साहित्य चक्र

06 December 2022

कबीर दोहावली भाग- 04



।। कबीर दोहावली ।।


भाग- 04





सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।

तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥


हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।

मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥


कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।

पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥


कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।

सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥


त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।

जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥


कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।

सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥


कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।

सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥


कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि ।

सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥


कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।

पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥


बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।

और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥


कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।

जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥


माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।

मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥


करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।

जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥


कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।

बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥


मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।

राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥


पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।

सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥


जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।

पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥


काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।

दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥


प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।

तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥


सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।

जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥


खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।

देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥


साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।

जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥


तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।

कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥


जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।

सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥


जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।

राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥


कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।

हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥


मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।

दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥


मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।

वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥


मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।

साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥


कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ ।

दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥


उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।

धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥


जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।

पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥


जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।

ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥


कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।

नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥


कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।

राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥


कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।

जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥


कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।

जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥


माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।

ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥


मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।

कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥


हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।

ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥

काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।

बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥


पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।

पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥


आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।

जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥


कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।

विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥


कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।

कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥


मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।

जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥


मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।

पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥


एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।

राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥


कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।

ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥


जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।

एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥


कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।

इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥


बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।

आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥


कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।

ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥


नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।

गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥


उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।

एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥


कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।

घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥


मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।

कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥


कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।

माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥


माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।

मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥


कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।

मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥


माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।

माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥


बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।

छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥


स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।

जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥


चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।

एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥


एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।

अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥


कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।

रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥


सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।

लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥


गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।

कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥


निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।

विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥


जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।

जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥


काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।

कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥


राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।

तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥


पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।

चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥


फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।

जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥


हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।

तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥


जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।

ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥


कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।

जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥


क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।

वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥


काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।

मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥


दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।

सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥


कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।

यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥


कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।

अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥


भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।

भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥


रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।

दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥


कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।

हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥


मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।

कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥


मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।

ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥


संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।

साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥


कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।

काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥


कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।

पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥


जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।

कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥


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