अटक गई है धूप कहीं पर,
अभी तलक न आई ।
बिना धूप के कुहरे ने अब,
अपनी धाक जमाई ।
हो सकता है ठीक समय से,
घर से धूप चली हो ।
ट्रैफिक में फंस गई तुरत हो,
जैसे ही निकली हो ।
बहु मंजिल बिल्डिंग मीनारें,
अनगिन तनी खड़ी हैं ।
कैसे उतरे धूप जमीं पर,
बाधा बहुत बड़ी है ।
हो सकता है धूप वहीं पर,
पहले जा अटकी हो ।
या कुहरेे से राह स्वयं ही,
वह भूली - भटकी हो ।
कुछ भी हो सच बिना धूप के,
लगता सूना - सूना ।
अगर धूप आ जाए हमको,
मिल जाए सुख दूना ।
जाड़े में यह धूप हमें अति,
प्यारी सी लगती है ।
मई - जून में यही धूप ही,
आंखों में चुभती है ।
मां ने सिर पर हाथ फेर कर,
निज ममता दिखलाई ।
और हमें फिर प्रकृति चक्र की,
पूरी बात बताई ।
धूप - छांह वर्षा के बादल,
सघन कोहरा पाला ।
ऋतु परिवर्तन सहज प्रकृति का,
समझो खेल निराला ।
समय - समय पर ऋतुएं बदलें,
मौसम आते जाते ।
बना संतुलन सबकी झोली,
खुशियों से भर जाते ।
साथ चलें हम सदा प्रकृति के,
यह है बहुत जरूरी ।
प्रकृति संतुलन से होती,
आवश्यकताएं पूरी ।
है अपना कर्तव्य प्रकृति का,
सदा करें संरक्षण ।
पर्यावरण प्रदूषण रोकें,
करके वृक्षारोपण ।
- श्याम सुंदर श्रीवास्तव 'कोमल'
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