साहित्य चक्र

14 December 2022

कविताः धूप कहीं पर अटकी




अटक गई है धूप कहीं पर,
अभी तलक न आई  ।
बिना धूप के कुहरे ने अब,
अपनी धाक जमाई ।

हो सकता है ठीक समय से,
घर से धूप चली हो ।
ट्रैफिक में फंस गई तुरत हो,
जैसे ही निकली हो । 

बहु मंजिल बिल्डिंग मीनारें,
अनगिन तनी खड़ी हैं ।
कैसे उतरे धूप जमीं पर,
बाधा बहुत बड़ी है ।

हो सकता है धूप वहीं पर,
पहले जा अटकी हो ।
या कुहरेे से राह स्वयं ही,
वह भूली - भटकी हो ।

कुछ भी हो सच बिना धूप के,
लगता सूना - सूना ।
अगर धूप आ जाए हमको,
मिल जाए सुख दूना । 

जाड़े में यह धूप हमें अति,
प्यारी सी लगती है ।
मई - जून में यही धूप ही,
आंखों में चुभती है ।

मां ने सिर पर हाथ फेर कर,
निज ममता दिखलाई ।
और हमें फिर प्रकृति चक्र की,
पूरी बात बताई ।

धूप - छांह वर्षा के बादल,
सघन कोहरा पाला ।
ऋतु परिवर्तन सहज प्रकृति का,
समझो खेल निराला ।

समय - समय पर ऋतुएं बदलें,
मौसम आते जाते ।
बना संतुलन सबकी झोली,
खुशियों से भर जाते ।

साथ चलें हम सदा प्रकृति के,
यह है बहुत जरूरी ।
प्रकृति संतुलन से होती,
आवश्यकताएं पूरी ।

है अपना कर्तव्य प्रकृति का,
सदा करें संरक्षण ।
पर्यावरण प्रदूषण रोकें,
करके वृक्षारोपण ।


                                 - श्याम सुंदर श्रीवास्तव 'कोमल'


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