साहित्य चक्र

30 April 2022

कविताः बादल आएँ


बादल का एक टुकड़ा
आज आसमान में दिखाई दिया
उस बादल को देख
पूरा गांव प्रसन्न हो उठा
दादी बोली अरे बेटा !
बनाओ पकोड़े और चाय
आ रही हमारी बारिश देवरानी
लाई होगी
राहत चाचा को भी साथ
अब गर्मी मौसी
जल्द जाएगी ससुराल
आखिर कैसी हो ग‌यी
यह गर्मी विकराल...

- दीपक कोहली


बंद मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की कहावत सटीक क्यों सही है ?

भारतीय संस्कृति में बड़े बुजुर्गों की कहावतों की व्यवहारिक सटीकता, हमारे दैनिक जीवन में प्रमाणित होती है। वैश्विक सृष्टि की रचना जब अलौकिक शक्तियों से अलंकृत शक्ति ने की होगी तो, उसके अंश भारत पर विशेष कृपा, रहमत बरसाई होगी!! और अद्भुत संस्कारों, सभ्यता, मान सम्मान से ऐसी कौशलताओं की महक कर कृपादृष्टि बरसाई होगी कि भारत माता की मिट्टी में अद्भुत गुण समाहित हो गए और यहां जन्म लेने वाले हर जीव की देह में समाहित होकर बौद्धिक कौशलता से उपयुक्त गुणों की ज्योति पीढ़ी दर पीढ़ी जगाते रहते हैं जो, पीढ़ियों से हमारे बड़े बुजुर्गों को मिली और उसी वैचारिकता का हम लाभ उठा रहे हैं।





साथियों आज हम उन वैचारिकताओं के एक अंश, बड़े बुजुर्गों की कहावतों पर चर्चा करेंगे। वैसे तो कहावतें बहुत हैं जैसे दाने-दाने को मोहताज, ढाक के तीन पात, बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला, घर का भेदी लंका ढाए, बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो फिर खाक की सहित हजारों कहावतें हमें मिलेगी पर आज हम चर्चा इस उपरोक्त कहावत पर करेंगे।


साथियों बात अगर हम इस कहावत की करें तो हमें पारिवारिक,सामाजिक,व्यसायिक औद्योगिक, राजनीतिक सहित अनेक क्षेत्रों के संदर्भ में यह कहावत सटीक फिट होते हमारे व्यवहारिक जीवन में या या अन्यों के ऊपर लागू होते हम देखते रहते हैं मेरा मानना है कि उपरोक्त हर क्षेत्र में उनकी इस कहावत से उनकी अंदरूनी ताकत या बड़ी कमजोरियां निश्चित रूप से छिप जाती होगी, जिसे सार्वजनिक करना उनके लिए अति हानिकारक हो सकता है!! क्योंकि हर क्षेत्र की अपनी अपनी रणनीतियां होती है, कुछ सीक्रेट से होते हैं, जिन्हें सार्वजनिक करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर होता है क्योंकि वह उनके लिए प्रतिष्ठा, साख, ताकत, रोब का काम करते हैं!! हमारी मुट्ठी अगर बंद रहेगी तो हमारे सिवा किसी को यह कमजोरी पता नहीं चलेगी , कि उसमें क्या है ?


साथियों बात अगर हम आधुनिक परिपेक्ष में पारदर्शिता की करें तो यह इस कहावत की विरोधाभासी है! फिर भी इसे अपवाद के रूप में छूट है! क्योंकि वैश्विक स्तरपर रक्षा सहित उपरोक्त क्षेत्रों में अनेकों ऐसी बातें पारदर्शिता के दायरे से मुक्ति पाने की हकदार है इसलिए ही कानून विशेषज्ञ या जानकारों को मालूम होगा कि कानूनों में प्रोवीसो, बशर्ते, सिवाएं, अपवाद, छूट, लागू नहीं जैसे अनेकों शब्दों के बल पर कानूनी रूप से भी करीब-करीब सभी कानूनों में भी छूट रहती है ?


साथियों बात अगर हम, खुल गई तो फ़िर ख़ाक की, इसपर करें तो हम उसे उनकी हकीकत सामने आने के परिपेक्ष में देखते हैं, जो उपरोक्त हर क्षेत्र के लिए लागू है याने जो बात किसी को पता नहीं हो वह सबको पता चल जाती है जिससे उस क्षेत्र के, उस पक्ष की प्रतिष्ठा साख़ सहित सभी सकारात्मक स्थितियां नकारात्मकता में बदल जाती है जो उनकी बदहाली का कारण बनती है। परंतु हमें इस कहावत का अर्थ सकारात्मक में लेनें की ज़रूरत है। किसी गैर कानूनी या सृष्टि के किसी भी जीव को नुकसान या छल, धोखा पहुंचाने की दृष्टि से नहीं लेना चाहिए, यह नियम हर कहावत पर लागू होता है।



साथियों बात अगर हम इस कहावत के उदय की एक पौराणिक कहानी की करें तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कुछ सज्जनों द्वारा यह कहानी डाली गई है कि, एक समय एक राज्य में राजा ने घोषणा की कि वह राज्य के मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए अमुक दिन जाएगा। इतना सुनते ही मंदिर के पुजारी ने मंदिर की रंग रोगन और सजावट करना शुरू कर दिया, क्योंकि राजा आने वाले थे। इस खर्चे के लिए उसने दस हज़ार रुपए का कर्ज लिया। नियत तिथि पर राजा मंदिर में दर्शन, पूजा, अर्चना के लिए पहुंचे और पूजा अर्चना करने के बाद आरती की थाली में एक रुपया दक्षिणा स्वरूप रखें और अपने महल में प्रस्थान कर गए। पूजा की थाली में एक रुपया देखकर पुजारी बड़ा नाराज हुआ, उसे लगा कि राजा जब मंदिर में आएंगे तो काफी दक्षिणा मिलेगी। बहुत ही दुखी हुआ कि कर्ज कैसे चुका पाएगा, इसलिए उसने एक उपाय सोचा।


गांव भर में ढिंढोरा पिटवाया कि राजा की दी हुई वस्तु को वह नीलाम कर रहा है। नीलामी पर उसने अपनी मुट्ठी में एक रुपया रखा पर मुट्ठी बंद रखी और किसी को दिखाई नहीं। लोग समझे कि राजा की दी हुई वस्तु बहुत अमूल्य होगी इसलिए बोली दस हज़ार से शुरू हुई, बढ़ते बढ़ते पचास हज़ार रुपए तक पहुंची और पुजारी ने वो वस्तु फिर भी देने से इनकार कर दिया।


यह बात राजा के कानों तक पहुंची। राजा ने अपने सैनिकों से पुजारी को बुलवाया और पुजारी से निवेदन किया कि वह मेरी वस्तु को नीलाम ना करें। मैं तुम्हें पचास हज़ार की बजाय एक लाख रुपए देता हूँ। इस प्रकार राजा ने एक लाख रुपए देकर अपनी प्रजा के सामने अपनी इज्जत को बचाया।तब से यह कहावत बनी- बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की। यह मुहावरा आज भी प्रचलन में है।


अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो फिर खाक की। पारिवारिक, सामाजिक, व्यवसायिक, राजनीतिक सहित अनेक क्षेत्रों के संदर्भ में बंद मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की कहावत सटीक फिट है। भारतीय संस्कृति में बड़े बुजुर्गों की कहावतों की व्यवहारिक सटीकता हमारे दैनिक जीवन में प्रमाणित होती है।


- एड किशन भावनानी 


शीर्षक: छुट्टी वाला रविवार कब आएगा




वर्तमान युग की भागदौड़ वाली जिंदगी को जितना चाहे आसान बनाने की कोशिश कर ली जाए,परंतु फिर भी अपने हिस्से का वक्त यहां कोई इंसान निकाल ही नहीं पाता। जिस भी शख्स से बात करो,बस यही सुनने को मिलता है कि यार, समय ही नहीं होता, पूरा दिन कुछ ना कुछ चलता ही रहता है।







कहने का मतलब यह है कि आज के आधुनिक युग में प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी आपाधापी वाली और बहुत ही फास्ट हो गई है ।किसी के पास किसी के लिए वक्त ही नहीं है। किसी और की तो बात छोड़ो यहां लोगों के पास आज खुद के लिए भी वक्त निकाल पाना लगभग असंभव सा होता जा रहा है ।लोग जिंदगी तो जी रहे हैं परंतु मन से नहीं।अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए लोग आगे ही आगे बढ़ने की अंधाधुन दौड़ में इस कदर पागल होते जा रहे हैं कि उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि इस भागदौड़ और आगे बढ़ने की चाह में वे कितना कुछ खोते जा रहे हैं। 


यह सभी को पता होता है कि बीता समय कभी लौट कर वापस नहीं आता, फिर भी ना जाने क्यों हर इंसान समय को पीछे छोड़ने की जहदोजहद में लगा रहता है। कम समय में अधिक हासिल करने का जुनून आज हर इंसान के सिर पर सवार है ।कम समय में अधिक पाने की लालसा ने ही आज हर व्यक्ति के जीवन की उमंगों और खुशियों पर जैसे ताला ही लगा दिया है। आज इंसान अपनी जरूरतों से अधिक कमा रहा है परंतु इतना होने के पश्चात भी वह सुखी नहीं है !!कारण? कारण सिर्फ यही है कि इंसान किसी स्तर पर जाकर संतोष का अनुभव ही नहीं करता। वह दिन दुगुनी और रात चौगुनी उन्नति करने के स्थान पर दिन आठ गुणी और रात सौलह गुणी उन्नति करने के ख्वाब सजाता है।


वैसे तो आपाधापी भरी दिनचर्या के महिला और पुरुष दोनों ही बराबर के शिकार देखे जाते हैं,परंतु आज मेरे इस लेख का मुख्य केंद्र महिलाएं हैं। बात यदि रविवार की छुट्टी की की जाए तो अधिकतर महिलाओं के हिस्से में रविवार कभी आता ही नहीं है ,जिसे वे छुट्टी मानकर इंजॉय कर सकें। विशेष रूप से कामकाजी महिलाएं तो रविवार शब्द ,जिसका उन्हें पूरे सप्ताह बेसब्री से इंतजार रहता है, का अर्थ ही भूल गई हैं,क्योंकि पूरे सप्ताह भागम भाग करने के पश्चात जब सप्ताह के अंत में रविवार आता है तो उनके पास जिम्मेदारियों और कामों की एक बड़ी मोटी गठरी पहले से ही बंध कर तैयार होती है जिसे वह शायद ही 1 दिन जिसे लोगों ने रविवार का नाम दिया है ,को पूरा कर पाती है।इन कामों में ; घर के बिखरे सामान को संभाल कर रखना ,बच्चों के स्कूल कॉलेजों का पेंडिंग काम निपटवाना, घरवालों के लिए उनकी पसंद की अलग अलग डिशेज बनाना,रिश्तेदारों का आना जाना, बाजार जाकर पूरे सप्ताह के लिए राशन पानी और अन्य जरूरतों का सामान जुटाना आदि आदि।


तो आखिर क्या करें एक नारी ?? जिसके हिस्से में पूरे साल में कोई ऐसा दिन नहीं आता जिसे वह अपने तरीके से इस्तेमाल कर खुद को हल्का और अच्छा महसूस करवा सके।इसका प्रत्यक्ष संबंध उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य से है। वह चाहते हुए भी अपने मन की नहीं कर पाती और हर वक्त अपने स्थान पर अपनों के ही हिसाब से जिंदगी जीना शुरु कर देती है।इसका परिणाम यह होता है कि वह स्वयं को जैसे भूल ही जाती है और इस वजह से उसका मानसिक विकास अवरुद्ध होने लगता है, वह समय से पहले स्वयं को वृद्ध मानने लगती है ,उसके मन से उमंग और उत्साह का ह्रास होने लगता है , वह कम काम करने के बाद भी बहुत अधिक थकने लग जाती है।सारा समय भाग भागकर जिम्मेदारियों को निभाते निभाते फिर एक स्थिति ऐसी भी आती है ,जब वह अंदर से चाहने लगती है कि काश!!! इस थका देने वाली दिनचर्या को छोड़कर कहीं दूर शांत अकेले एक टापू पर अपना बसेरा बना पाना संभव होता।


यह स्थिति महिलाओं के लिए किसी भी प्रताड़ना और सजा से कम नहीं हो सकती।कोई भी महिला या पुरुष इस प्रकार की नकारात्मक स्थिति का शिकार ना होने पाए, इसलिए परिवार के सभी लोगों को मिलजुलकर परिवार की जिम्मेदारियों का बीड़ा उठाना होगा और महिलाओं के हिस्से का समय उन्हें हर हाल में देना ही होगा ।माना कि पुरुष और स्त्री दोनों ही मिलजुलकर गृहस्थी को चलाते हैं, वे एक दूसरे के पूरक भी कहे जाते हैं ,परंतु, हकीकत कुछ और ही होती है।अधिकतर घरों में आज भी घर बाहर की अधिकतर जिम्मेदारियों को निभाने का जिम्मा महिलाओं का ही होता है।


एक दूसरे की परवाह करते हुए पुरुषों और महिलाओं को घर की जिम्मेदारियों में एक दूसरे का हाथ बंटाना चाहिए और एक दूसरे के स्वास्थ्य और खुशियों को सर्वोपरि रखते हुए ही परिवार रूपी संस्था का विकास करना चाहिए ।

स्मरण रहे ,एक खुशहाल परिवार सच्चे मायनों में तभी खुशहाल कहला सकता है जब उस घर की नींव अर्थात उस घर की महिलाएं स्वस्थ हों,प्रसन्न हों। महिलाएं चाहे कामकाजी हों अथवा गृहणियां, दोनों को ही सप्ताह में 1 दिन उनकी मनमर्जी के मुताबिक बिताने की छूट दी जानी चाहिए ताकि उस 1 दिन में वे स्वयं के लिए जिएं और अपने जीवन से जोश उमंग और उत्साह को कभी खत्म ना होने दें।



                                               लेखिका- पिंकी सिंघल


22 April 2022

देश के नागरिकों को सुरक्षित कल की गारंटी देता है आपराधिक प्रक्रिया पहचान विधेयक- 2022



आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक संसद द्वारा पारित किया गया है और यह कैदियों की पहचान अधिनियम, 1920 को निरस्त करने का प्रयास करता है। यह विधेयक उन सूचनाओं के दायरे का विस्तार करता है जो सरकार दोषियों, गिरफ्तार व्यक्तियों और आदतन अपराधियों जैसे अन्य व्यक्तियों से एकत्र कर सकती है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य देश में दोषसिद्धि दर में सुधार करना, नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा करना और समाज में अपराध के खिलाफ कार्रवाई का एक मजबूत संदेश देना है। इस विधेयक ने संसद और देश भर में व्यापक बहस को आकर्षित किया है, जो मौलिक अधिकारों और कानून के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार द्वारा सुनिश्चित किए गए नियंत्रण और संतुलन से संबंधित महत्वपूर्ण चिंताओं को उठाती है।







कैदियों की पहचान अधिनियम 1920, पुलिस अधिकारियों को दोषियों और गिरफ्तार व्यक्तियों सहित व्यक्तियों की कुछ पहचान योग्य जानकारी (उंगलियों के निशान और पैरों के निशान) एकत्र करने की अनुमति देता है। किसी अपराध की जांच में सहायता के लिए, मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति की माप और तस्वीर लेने का आदेश दे सकता है। उसके अनुसार एक बार जब व्यक्ति को छुट्टी दे दी जाती है, तो सभी सामग्री को नष्ट कर दिया जाना चाहिए। डीएनए प्रौद्योगिकी में महत्वपूर्ण प्रगति के साथ, अपराध के आरोपी व्यक्तियों की माप के लिए वैकल्पिक तरीकों को लागू किया जा सकता है जो जांच प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं। इस संदर्भ में, डीएनए प्रौद्योगिकी (उपयोग और अनुप्रयोग) विनियमन विधेयक, 2019 जो लोकसभा में लंबित है, एक रूपरेखा प्रदान करता है।


1980 में, भारत के विधि आयोग ने कैदियों की पहचान अधिनियम 1920 की जांच की और पाया कि जांच के आधुनिक रुझानों को देखते हुए अधिनियम को संशोधित करने की आवश्यकता है। आपराधिक न्याय प्रणाली के सुधारों पर विशेषज्ञ समिति ने डीएनए, बाल, लार और वीर्य के लिए रक्त के नमूने जैसे डेटा के संग्रह के प्राधिकरण के लिए मजिस्ट्रेट को सशक्त बनाने के लिए कैदियों की पहचान अधिनियम 1920 में संशोधन की सिफारिश की। यह बिल निजता के अधिकार के साथ-साथ समानता के अधिकार का उल्लंघन करने की  प्रवृत्ति को आकर्षित करता है। बिल के कुछ प्रावधान व्यक्तियों के व्यक्तिगत डेटा के संग्रह की अनुमति देते हैं जो किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई थी।


यह कानून के अनुच्छेद 14 की आवश्यकताओं को निष्पक्ष और उचित और कानून के तहत समानता पर भी चोट है। डेटा न केवल दोषी से बल्कि जांच में सहायता के लिए किसी अन्य व्यक्ति से भी एकत्र किया जा सकता है। बिल 75 वर्षों तक डेटा को बनाए रखने की अनुमति देता है और इसे किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के अंतिम निर्वहन पर ही हटाया जाएगा। जांच के लिए संभावित उपयोग के आधार पर केंद्रीय डेटाबेस में डेटा का प्रतिधारण, भविष्य में, आवश्यकता और आनुपातिकता मानकों को पूरा नहीं कर सकता है। एनसीआरबी डेटा के प्रतिधारण के लिए केंद्रीय भंडार होगा और इसे अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों के साथ साझा किया जा सकता है। यह पेश किए गए कानून के दुरुपयोग के लिए ढेर सारे विकल्प बनाता है।


जैविक नमूनों का संग्रह इस अपवाद को जोड़ता है कि ऐसे नमूने जबरन एकत्र किए जा सकते हैं यदि अपराध महिलाओं और बच्चों के खिलाफ निर्देशित किया जाता है। उदाहरण के लिए, यह किसी महिला के खिलाफ जांच के नाम पर चोरी हो सकती है जिसके आधार पर दोषी के जैविक नमूने एकत्र किए जा सकते हैं। ऐसा प्रावधान उन व्यक्तियों के बीच कानून की समानता का उल्लंघन करता है जिन्होंने एक पुरुष और एक महिला से कोई वस्तु चुराई है। डेटा एकत्र करने के लिए अधिकृत अधिकारी के स्तर को कम करके व्यक्ति को मनमाने ढंग से हिरासत में लेने से बचाने के लिए कई सुरक्षा उपायों को कमजोर कर दिया गया है।


आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) विधेयक, 2022 के संबंध में तर्क डेटा सुरक्षा के संबंध में लोगों की सबसे बड़ी चिंता को उजागर करते हैं। यही कारण है कि विशेषज्ञ नागरिकों को राज्य द्वारा निगरानी के व्यापक और मुक्त दायरे से बचाने के लिए संसद में एक मजबूत डेटा संरक्षण विधेयक पेश करने की वकालत करते हैं। जैसा कि बिल में डेटा संग्रह के दायरे का विस्तार करने की परिकल्पना की गई है, जो अब न केवल बायोमेट्रिक नमूनों के संग्रह की अनुमति दे रहा है, बल्कि जांच के लिए सहायता के रूप में "व्यवहार संबंधी विशेषताओं" के तहत किसी व्यक्ति की लिखावट पर विचार किया जाता है। यह राज्य को भारी शक्तियाँ सुनिश्चित करता है जिसके लिए यह सुझाव दिया जाता है कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए ठोस सुरक्षा उपाय होने चाहिए जो पारित कानून के साथ हाथ से काम करेंगे।


75 वर्षों के लिए अभिलेखों को बनाए रखने की समय अवधि का आकलन करने के लिए बिल पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है जो कि एक भारतीय नागरिक की जीवन प्रत्याशा के विपरीत है जो कि 69.6 वर्ष है। इस प्रावधान का एक उपयुक्त तर्क के साथ विश्लेषण किया जाना चाहिए। उचित जांच और संतुलन सुनिश्चित करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों और कानून प्रवर्तन अधिकारियों की देखरेख में उचित प्रशिक्षण और पुलिसिंग द्वारा मजबूत सुरक्षा का एक पारिस्थितिकी तंत्र, वैज्ञानिक साक्ष्य के आधार पर एक आपराधिक जांच की एक मूर्खतापूर्ण प्रणाली बनाएगा और वास्तव में लाभ प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करेगा। 


                                                                                - सत्यवान 'सौरभ'


हर साल क्यों जलाए जाते हैं उत्तराखंड के जंगल ?



इन दिनों उत्तराखंड के जंगलों में आग लगी हुई है। हमारे देश के लोग ऑस्ट्रेलिया के जंगलों और अफ्रीका के जंगलों में आग लगने पर चिंता व्यक्त करते है। उत्तराखंड के जंगलों में हर साल आग लगाई जाती है। इस पर कोई गंभीर कार्रवाई आज तक नहीं हुई है। सरकार चाहे कांग्रेस की हो या फिर बीजेपी की। उत्तराखंड का आम जनमानस हर साल आग लगने के कारण कई समस्याओं से जूझता है। कुछ लोग उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग को सही ठहराते हैं। उनका मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने से बरसात के समय घास अच्छी होती है और पानी के कारण होने वाली आपदा का खतरा कम हो जाता है। पता नहीं आग को सही ठहराने वालों का यह कैसा तर्क है।

उत्तराखंड के जंगलों में आग लगाने के पीछे कई कारण होते हैं। जिनमें जंगल से लकड़ी कटान मुख्य कारण है। नवंबर से फरवरी-मार्च तक उत्तराखंड के जंगलों में लकड़ी कटान बेहिसाब होता है। अगर आपको उत्तराखंड के जंगलों में लकड़ी कटान देखना है तो आप दिसंबर और जनवरी के आसपास उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र में चले जाएं। आखिर यह लकड़ी कटान क्यों होता है ? लकड़ी कटान कौन लोग करवाते हैं ? यह लकड़ी किन लोगों के पास जाती है ? आज के समय में लकड़ी का इस्तेमाल इतना ज्यादा तो नहीं है, मगर इसके बावजूद भी उत्तराखंड के जंगलों में इतना लकड़ी कटान क्यों होता है ? इस तरह की कई सवाल आपके मन में आ रहे होंगे।

उत्तराखंड में हर गांव में हर साल कुछ लोगों को लकड़ी कटान के लिए वृक्ष दिए जाते है। यह वृक्ष इसलिए दिए जाते हैं क्योंकि यहां के लोग इस वृक्ष की लकड़ी से अपने घर को रिपेयर करवा सकते है। उत्तराखंड में अधिक मात्रा में रिपेयर वाले घर बने होते है। यहां के घरों की छत करीब 10, 20, 30 सालों में बदलनी पड़ती है। ऐसे ही यहां के घर के दरवाजे और घर में कई ऐसा सामान होता है, जिसे रिपेयर करना पड़ता है। यह पेड़ देने की परंपरा अंग्रेजों के समय से चली आ रही है। इसी परंपरा के चक्कर में पांच पेड़ों के बदले 15 पेड़ काटे जाते हैं। वन विभाग के कर्मचारी एक बोतल या ₹500 के नोट में अपना मुंह बंद कर लेता है। बाकी आप जानते ही हैं कि भारत में सरकारी व्यवस्था का क्या हाल है ? 

उत्तराखंड की शान यहां के जंगलों से है। अगर यहां जंगल समाप्त हो जाते हैं तो फिर उत्तराखंड में जीवन जीना बहुत ही कठिन हो जाएगा। जीवन जीने के लिए इंसानों को मुख्य रूप से पानी और हवा की जरूरत होती है। उत्तराखंड में आज जितना ही पानी है वह लगभग जंगलों से है। इसके अलावा कुछ नदियां है मगर नदियां हर पहाड़ी क्षेत्र में नहीं है। पहाड़ी क्षेत्रों में पानी प्राकृतिक स्रोत यानी पेड़ों की जड़ों से प्राप्त होता है। अगर जंगल ही नहीं रहेंगे तो फिर प्राकृतिक स्रोत से पानी कहां से आएगा ? आज उत्तराखंड से लगातार पलायन हो रहा है। उत्तराखंड के जंगल तेजी से काटे जा रहे है। जंगलों से लकड़ी की तस्करी, लीसा की तस्करी, जड़ी बूटियों की तस्करी से लेकर इत्यादि तस्करी चल रही है।

अब आप खुद सोचिए हर साल क्यों जलाए जाते हैं उत्तराखंड के जंगल ? हमारा मानना है कि उत्तराखंड के जंगलों को हर साल इसलिए जलाए जाता है क्योंकि जो जंगलों में लकड़ी के अवशेष बच जाते हैं उन अवशेषों को आग के माध्यम से ही समाप्त किया जा सकता है। सरकार द्वारा हर साल आग बुझाने के लिए करीब तीन चार महीने के लिए कर्मचारी भी नियुक्त किए जाते है। इसके बावजूद भी जंगलों में आग लग जाती है। उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के फायदे कम नुकसान बहुत ज्यादा है। आग के कारण नए पौधे नहीं पैदा हो पाते हैं। जब नए पौधे पैदा ही नहीं होंगे तो फिर कटने वाले पेड़ों की भरपाई कैसे हो पाएगी ? 

उत्तराखंड के जंगलों में आग के लिए मुख्य रूप से उत्तराखंड का वन विभाग जिम्मेदार है। वन विभाग को जंगलों के प्रति ईमानदार होने की जरूरत है। जिस भी क्षेत्र में आग लगे उस क्षेत्र के अधिकारियों पर कार्यवाही हो और जंगल की भरपाई के लिए उन अधिकारियों से मानदेय लिया जाए। जिसे जंगलों की सुरक्षा और उत्थान के लिए लगाया जाए। इसके अलावा उत्तराखंड सरकार को उत्तराखंड के हर ग्राम पंचायत में जंगलों के प्रति जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। ग्राम पंचायतों को जिम्मेदारी दी जाएगी कि वह अपने जंगलों की सुरक्षा के लिए काम करें। अगर सरकार के पास और बेहतर प्लान है तो उसे जल्द से जल्द जमीनी स्तर पर लागू किया जाए। हर साल उत्तराखंड के जंगल यूं ही जलते रहेंगे तो आने वाले समय में उत्तराखंड में रहने के लिए ऑक्सीजन के सिलेंडर साथ में लेकर चलना होगा। उत्तराखंड वासियों को इस विषय पर सोचने की जरूरत है। 



                                                            - दीपक कोहली


20 April 2022

कविताः वैश्विक तापवृद्धि




पहुँचाकर क्षति प्राकृतिक संपदा को 
 हे मानव तुम इतना क्यों इतराते हो
यह पर्यावरण तुम्हारे लिए है इसमें
तुम अपने ही हाथो आग लगा कर
वैश्विक ताप बढ़ाते हो।।

जब जंगल होगा तब मंगल होगा
यही समझना होगा अब सबको!
पर्यावरण को दूषित करने बालों 
काट काट कर तुम वृक्षों को सारे
क्यों वैश्विक ताप बढ़ाते हो।।

हरी-भरी जब धरती होगी अपनी
ताप रहेगा संतुलन में पृथ्वी का 
पर्यावरण की दशा सुधर जाएगी 
शुद्ध प्राणवायु फिर लौट आएगी
वैश्विक ताप मैं कमी आएगी ।।

करके नियंत्रित वैश्विक ताप वृद्धि
चारों दिशाओं में फैलेगी समृद्धि 
विपदा सारी टल जाएगी जब 
पर्यावरण मैं होने लगेगी शुद्धि 
वैश्विक ताप तब थम जाएगा।।


                                                     लेखिका- प्रतिभा दुबे 


कविता- मेरा तिरंगा




वो खून से लिपटा हुआ धरती माँ का दुप्पटा देखा 

और लहराता मेरा तिरंगा देखा। 


कही किसी वीर सैनिक के प्रतीक को देखा ,

तो कही उस सैनिक की माँ के प्यार को देखा।

कही उसे धरती माँ के दर्द को अपनी झोली में समेटते देखा ,
तो कही किसी माँ को अपने लाडले की खून से भरी वीरता को देखा।

हा वो खून से लिपटा हुआ धरती माँ का दुप्पटा देखा 

और वो लहराता मेरा तिरंगा देखा। 


शान से लहराते हुए धरती माँ के उस तिरंगे को देखा ,
और उसके बीच में बने उस अशोक चक्र को देखा।

लहराते उस तिरंगे को अपनी आँखों मे समाते देखा ,
तो कभी किसी बेदर्द माँ को अपने सैनिक बेटे के सही सलामत 
लौट आने की उम्मीद में अपनी अश्रु धाराओ को बहते देखा।

हा वो खून से लिपटा हुआ धरती माँ का दुप्पटा देखा 

और लहराता मेरा तिरंगा देखा।

 

कही ना कहीं किसी माँ की कोख को उजड़ते देखा ,
फिर भी उसे अपने बेटे की वीरता पर गर्व करते देखा।

कही किसी पत्नी का सुहाग उजड़ते देखा ,
फिर भी शान से उसे धरती माँ की जय बोलते देखा।

हा खून से लिपटा हुआ धरती माँ का वो दुप्पटा देखा 
और शान से लहराता वो तिरंगा देखा ।



                                    लेखिका- किरण

कविताः देखो आई राखी



आज सजेगी भाई की सुनी कलाई,
 देखो आई राखी !

भैया माथे मैं तेरे, कुमकुम तिलक लगाऊं।
लेकर दीपक थाल, तेरी मैं लूं बलियां।

सूनी कलाई पर मैं , तेरे रक्षा धागा बांधू।
बांध के राखी तुझसे, मैं  एक वादा मांगू।

वादें में, बनवाकर तुम कलाई, पर रेशम का धागा।
 भाई बहन के रिश्ते को, मजबूत बनाना मेरे भैया।

मेरी दुआएं भी, तेरे साथ रहेंगी।
 हर सुख दुख में, मैं भैया तेरे पास रहूंगा।

जीवन के पथ पर, मेरा भैया बढ़े।
 हर खुशियां उसके, कदमों तले।

चाहे जितनी दूर, हो जाओ तुझसे भैया।
हरदम मैं तेरे, हृदय के पास रहूंगी।



                                         डॉ माधवी मिश्रा शुचि


19 April 2022

आखिर लाउडस्पीकर क्यों ?


इन दिनों भारत में लाउडस्पीकर खूब चर्चा का विषय बना हुआ है। यह लाउडस्पीकर वही है जो शादी ब्याह में बसता है इसके अलावा मेट्रो स्टेशन, रेलवे प्लेटफार्म, बस स्टैंड, चुनावी रैली इत्यादि जगहों पर बजता मिलता है। लाउडस्पीकर को लेकर इतना हंगामा क्यों हो रहा है ? कई सालों से भारत में इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग लाउड स्पीकर से अज़ान यानी नमाज पढ़ने के लिए सूचना या बुलावा देते आ रहे हैं। जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी बहुत कम है या जहां मस्जिद नहीं है, वहां अज़ान सुनने को नहीं मिलती है। अज़ान नमाज पढ़ने के लिए तैयार होने का एक संकेत मात्र है। जैसे ईसाई धर्म में बहुत बड़ा घंटा बजाया जाता है वैसे ही इस्लाम धर्म में नमाज का बुलावा देने के लिए अज़ान दी जाती है।




अज़ान का समय नमाज के अनुसार तय होता है। दिन में करीब 5 बार इस्लाम धर्म के अनुसार अज़ान दी जाती है। वैसे कुरान में अज़ान की बात लिखी तो नहीं गई है, मगर इस्लामी धर्म गुरुओं ने इस्लाम को मानने वाले लोगों के लिए यह सुविधा बनाई है। अज़ान छोटी सी अवधि की होती है। हां कभी-कभी अज़ान की आवाज सुनकर इस्लाम को ना मानने वाले लोगों में इसके प्रति गुस्सा दिखाई देता है। यही गुस्सा आज अज़ान के समय हिंदू धर्म के कुछ कट्टरपंथियों द्वारा हनुमान चालीसा बजाने पर उतर आया है।


अज़ान देना जरूरी है क्या ? क्या अपनी सुविधा के लिए अन्य लोगों को डिस्टर्ब करना सही है ? क्या इस्लाम धर्म को मानने वाले लोग अज़ान की जगह कुछ दूसरी चीज का इस्तेमाल नहीं कर सकते ? आजकल आधुनिक दुनिया हो गई है। क्या इस्लाम धर्म के लोग मोबाइल या फिर किसी अन्य टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर अज़ान को लाउडस्पीकर में ना बजाकर अन्य दूसरे रूप में बजाए जाए, जिससे दूसरों का डिस्टर्ब ना हो। हां हो सकता है जब अज़ान की शुरुआत की गई हो उस समय इसकी जरूरत महसूस की गई हो, मगर आज कई ऐसे संसाधन है जो अज़ान को सिर्फ इस्लाम को मानने वाले लोगों तक ही सीमित रखा जा सकता है। हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता और दंगों को कम करने के लिए ऐसे फैसले लिए जाने चाहिए।


भारत एक लोकतांत्रिक देश है यहां सभी लोगों को अपने धर्म संस्कृति मानने की पूर्ण आजादी है। इसलिए सभी धर्म के लोगों को बराबरी का अधिकार मिलना चाहिए। अगर हिंदू धर्म के लोग शिवरात्रि, कावड़ यात्रा, नवरात्रि, समय-समय पर भगवत कथा, रामलीला आयोजित कर बड़े-बड़े लाउडस्पीकर बजा सकते हैं तो फिर इस्लाम को मानने वाले लोगों के लिए दिन में 5 बार थोड़ी सी समय अज़ान का लाउडस्पीकर पर बजने में क्या समस्या है ?


भारत में हिंदू, मुस्लिम के अलावा अन्य धर्म और संप्रदायिक को मानने वाले लोग रहते हैं। भारत में बहुत बड़ी संख्या में नास्तिक लोग भी है। क्या हिंदू, मुस्लिम के चक्कर में अन्य लोगों की भावनाओं का ख्याल नहीं किया जाना चाहिए ? जिस तरह मुसलमानों की अज़ान से हिंदुओं को समस्या होती है ठीक उसी तरह हिंदू के भी कई बड़े-बड़े कार्यक्रमों को लाउडस्पीकर पर बजाकर अन्य लोगों को भी समस्या होती है। व्यक्तिगत तौर पर मैं अपना उदाहरण देना चाहता हूं मैं हाई स्कूल के पेपर दे रहा था। उस समय मेरे पास ही के गांव में भागवत कथा का आयोजन हो रहा था। जिसके कारण पूरे गांव में लाउडस्पीकर पर भजन, भगवत कथा दिन-रात चलती रहती थी। हम उस भगवत कथा के आयोजन के कारण सही ढंग से अपनी पढ़ाई भी नहीं कर पा रहे थे। यह घटना सिर्फ मेरे साथ ही नहीं बल्कि कई लोगों के साथ हुई होगी।

आजकल शहरों में जितना ध्वनि प्रदूषण है। वह इंसान के लिए दिन-ब-दिन खतरनाक होता जा रहा है और ऊपर से अब इन दिनों लाउडस्पीकर बजाने की होड़ सी मची हुई है। जो इस खतरे को और गहरा बनता जा रहा है। हम सभी को समस्त मानव जाति के बारे में सोचना चाहिए और मिलजुल कर एक निर्णायक सही फैसला लेना चाहिए। आज हम सभी एक दौड़ भाग भरी जिंदगी का हिस्सा है।

- दीपक कोहली


हे ! वाग्वादिनी माँ


हे ! वाग्वादिनी माँ
हे ! वाग्वादिनी माँ
तू हमें ज्ञान दें
तू हमें ध्यान दें।

भटक रहें हम
जीवन पथ पर
आकर हमें तू अब थाम लें।

तू ब्राम्ह की माया
तू ही महामाया
हम फंसे मोहजाल
आकर हमें तू अब निकाल लें।

तू ज्ञान की मुद्रा
तू ध्यान की मुद्रा
हम गिरे अज्ञान में
आकर हमें तू अब ज्ञान दें।

तू सुर की वन्दिता
तू ही सुरवासिनी
हम हो रहें बे-सुरे
आकर हमें तू सुर का ज्ञान दें।

तू विद्या की धात्री
तू ही विद्युन्माला
हम धंस रहें अविद्या में
आकर हमें तू विद्या का वरदान दें।

हे ! वाग्वादिनी माँ
हे ! वाग्वादिनी माँ
तू हमें ज्ञान दें
तू हमे ध्यान दें।

                                             लेखक- राजीव डोगरा



गिरगिट तो यूँ ही बदनाम है



यूँ ही बदनाम किया था गिरगिट का
आदमी कर रहा गिरगिट का काम है
दिन में कई रंग बदलते हैं आजकल लोग
गिरगिट का नाम तो यूँ ही बदनाम है

समय के साथ रंग बदलते रहते है
कुछ लोग तो रंग बदलने में अभिनेता हैं
रंग बदलना सबके बस की बात नहीं
सबसे ज़्यादा रंग बदलते नेता हैं
अफवाहें भी बहुत फैलाते हैं
जरूरत पड़ती है जब कभी
तब तो बहुत गिड़गिड़ाते हैं
किसी से उधार वापिस मांगे
तो अपना रंग दिखाते हैं

झूठ का लेते हैं बहुत सहारा
पकड़े जाने पर गलती हो गई कहते
बार बार वही गलती दोहराते है

आजकल के गिरगिट न केवल रंग बदलते हैं
उसी को काटते हैं जिसका खाते हैं
पीठ पीछे करते रहते है छुप कर वार
बाहर से बहुत अपनापन दिखाते हैं
चुनाव जब आते हैं गिरगिट बहुत नज़र आते है
हड्डी चूसने की आदत पड़ी लार बहुत टपकाते हैं
हरा लाल पीला नीला भगवां जो भी मिले
उसी रंग में रंग जाते हैं


लेखक- रवींद्र कुमार शर्मा


कविताः दोमुंहे सांप



वो लोग 
जो जहर उगलते हैं
सार्वजनिक मंचों पर हर समय
दूसरों के लिए,
होते होंगे क्या इतने ही जहरीले
अपनी निजी जिंदगी में भी
सबके लिए?

अगर होते होंगे
तब तो बड़ा मुश्किल होता होगा
उनके परिजनों, पड़ोसियों और
रिश्तेदारों को
उनके साथ निबाहने के लिए,
लेकिन अगर नफरत का यह चोला
रखा होगा उन्होंने
सिर्फ दूसरों के लिए,
अपने करीबी लोगों से
वो भी करते होंगे प्यार,
फिक्रमंद रहते होंगे वो भी
अपने परिजनों के कुशल-मंगल के लिए,
तो समझना चाहिए उन्हें
कि उनका उगला जहर बन सकता है
अमंगल का कारण
न जाने कितनों के प्रियजनों के लिए,
उन्हें समझना चाहिए कि
बेकाबू आग लील जाती है खुद को ही
चाहे वो लगाई गई हो 
किसी दूसरे के लिए,
उन्हें समझना चाहिए कि
नफरत का सांप दोमुंहा है,
जितनी नफरत करोगे तुम किसी दूसरे से
पाओगे उतनी ही खुद के लिए।


                                          जितेन्द्र 'कबीर'


कविता- विवाहित स्त्री और प्रेम



विवाहित स्त्रियाँ जब होती हैं प्रेम में
तो उतनी ही प्रेम में होती हैं
जितनी होती हैं कुँवारी लड़कियां
प्रेम कुँवारेपन और विवाह को नहीं जानता
केवल मन के दर्पण को देखता
मन के राग को सुनता है
विवाहित स्त्रियाँ भी समाज से डरते हुए
करती जाती हैं प्रेम
किसी अमर बेल की तरह
क्योंकि प्रेम के बीज बोये नहीं जाते
वे स्वत ही हृदय की नम सतह पाकर
कभी भी कहीं भी किसी क्षण
प्रेम बनकर अंकुरित हो उठते हैं
प्रेम में हो जाती हैं वे भी
सोलह सत्रह बरस की कोई नयी सी उमंग
ललक उठता है उनका भी मन
प्रेमी की एक झलक पाने को
दैहिक लालसा से परे होता है उसका प्रेम
वे आलिंगन के स्पर्श से ही मात्र
आत्मा के सुख में प्रवेश कर जाती है
वे भी बिसरा देती है अपना हर एक दुख
प्रेमी की आँखों में डूबकर
उसकी हर आहट से हो जाती है वो मीरा
तार तार बज उठता है उसके मन का संगीत
प्रेमी की एक आवाज से
सोलहवें सावन सा मचल उठता है
भावनाओं का बादल
खिल उठती है वह पलाश के चटक रंगों की तरह
लहरा उठती है उसकी खुशियां
बसंत के पीले फूलों की फसलों की तरह
नहीं चाहतीं वह अपने प्रेम पर
समाज का कोई भी लांछन
नहीं चाहती कोई कुल्टा कहकर
उसके प्रेम का करे अपमान
बनी रहना चाहती है अपने बच्चों सबसे अच्छी माँ
और पति की कर्तव्यनिष्ठ पत्नी
वह विवाह के सामाजिक बंधनों के दायित्वों से
नहीं फेरना चाहती अपने कदम
वह बनी रहना चाहती है
अपनी इच्छाओं के समर्पण से एक सुंदर मन की स्त्री
जैसे बनी रहना चाहती है कुँवारी लड़कियाँ
अपने भाई की लाडली बहन
और माँ बाप की समझदार बेटी
अपने प्रेमी की होने के सपनों के साथ
विवाहित स्त्रियाँ भी अपने प्रेमी का हर दुख
अपने आँचल में छुपा लेना चाहती है
अपनी हर प्रार्थना में करती हैं
उनके सुख की कामना के लिए आचमन
परन्तु कुँवारी प्रेमिकाओं की तरह
उसके सपनों की कोई मंजिल नहीं होती
वह अपने सपनों में जीना चाहती है
अपने प्रेमी के साथ एक पूरा जीवन
गाड़ी के दो पहिए की तरह चलता है
उसका प्रेम और उसकी गृहस्थी
रात के बैराग्य मठ पर नितांत अकेले
वे पति की पीठ पर देखती हैं प्रेमी का चेहरा
पाना चाहती है प्रेमी की भावनाओं में
अपनेपन की छाँव और जीवन की विषमताओं में
उसकी सरलता का साथ।
कुँवारी लड़कियाँ प्रेमी के संग
बंधना चाहती है परिणय सूत्र में
जबकि विवाहिता स्त्रियाँ प्रेमी को नहीं चाहती खोना
बंध जाना चाहती है विश्वास के अटूट बंधन में
वे विवाहिता होने की ग्लानि में
प्रेम की आहूति नहीं देती
बल्कि संसार की सारी प्रेमिकाओं की तरह
अपने प्रेमी को मन प्राण से करती जाती है प्रेम।


लेखिकाः अनामिका चक्रवर्ती


कविताः आखिर क्या कसूर था मेरा



आखिर क्या कसूर था मेरा
जो पैदा होते ही कचरे में फेंक दिया गया,
नवजात शिशु को नए कपड़े पहनाए जाते हैं
आखिर क्या कसूर था मेरा
जो मुझे पॉलिथीन में लपेट दिया गया,
अपनी खुशियों की खातिर हर बंधन तोड़ डाला
अपनी ग़लती का ठीकरा मेरे सपनों पर फोड़ डाला,
बस एक बार तो बता दो मां
आखिर क्या कसूर था मेरा 
अरे वो तो अंजान था उस एहसास से
रखा है ख़ुदा ने दूर उसे उस मिठास से,
लेकिन तुम तो एक मां थी।

अपने हर इक निवाले से तुमने, डाली मुझमें जान थी
कैसे भूल गई तुम, मैं अंश थी तुम्हारा
बस यही कसूर था ना कि नहीं चला सकती थी वंश तुम्हारा,
एक मौका दे कर तो देखती मां मुझे
तू कभी नहीं कहती कि चाहिए इक बेटा मुझे
इस दुनिया में इतना नाम कमाती
कि तेरी ज़िन्दगी में किसी चीज़ की कोई कमी ना रह जाती।

अफसोस कि ना सुन सकी मैं इस दुनिया की बातें
खुलने से पहले ही बन्द हो गई मेरी ये आंखें
ऊपर जाऊंगी तो ख़ुदा से रो रो कर करूंगी फ़रियाद
ऐ ख़ुदा ना देना कभी किसी को नाजायज़ औलाद।

वरना होते रहेंगे बार बार ये गुनाह
ना मिलेगी हम मासूमों को किसी आंचल में पनाह,
आख़िर क्या कसूर था मेरा
कि पैदा होते ही मुझे फेंक दिया गया
कभी कचरे में, तो कभी आश्रम में, 
मौत की अग्नि में झोंक दिया गया।


                                                   रूखसाना नारू