साहित्य चक्र

29 August 2020

एक स्त्री के लिए लॉकडाउन के कोई नए माइने नहीं है।

 


वह तो हमेशा क़ैद रहती हैं चारदीवारों के बीच ये लॉकडाउन तो उसे पुरुष द्वारा बनाएँ गये नियमों ने दिए है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि ये शब्द कहीं यहीं से तो नही लिया गया। ख़ैर जो भी हो पुरुषों के लिए ये एक नयी चुनौती है। वो खुद को नही क़ैद कर पा रहे उन चारदिवारों के बीच और खुद को रोके भी तो कैसे.. ? उन्हें भी तो घर चलाने के लिए भाग दौड़ करनी ही पड़ेगी यही एक ही तो बहाना है। जिसकी वजह से वो इस महामारी में बाहर निकल सकते है।

घर में रहने वाली स्त्रियाँ जो हफ़्ते में एक दो बार ही पुरुषों की गालियाँ, थप्पड़ खाती थी, वो इस लॉकडाउन में रोज़ ही खा रही है। एक ख़ुराक सुबह तो एक शाम कभी-कभी तो बोनस भी मिल जाता है। “मर्दों को हमारे साथ ऐसा बर्ताव करने की हिम्मत भी औरतें ही देतीं है, उनकी छोटी-छोटी नाजायज़ बातों को मान कर और यही से उनको गलत करने आदत हो जाती है। उनको हमारे साथ कुछ भी करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।” महिलाओं को इन बातों का विरोध करना चाहिए।

गाँव के लगभग हर घर के हालत ऐसे ही हैं कि वहाँ आए दिन मारपीट झगड़ा लड़ाई होती ही रहती है। बाहर रहने वाले सभी लोग अपने-अपने घर आ गए है और उनके पास कोई काम नही है तो कोरोना ही एक मात्र उनके मनोरंजन का साधन है और दोपहर के बाद लोग एक गमछा मुँह पर बाँध के निकल जाते है इस महामारी को चुनौती देने..। अरे भाई अगर मर्द घर से बाहर नहीं निकलेंगे तो ये कोरोना घर-घर कैसे पहुँचेंगा, मोदी जी ने इनको थोड़ी मना किया है घर से बाहर जाने से। राजनीति में तो इन लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है कोरोना की वैक्सीन तो इन लोगों ने बहुत पहले ही बना ली है। जो भी हो यहाँ की राजनीति समझना बहुत ही मुश्किल है। घर की औरतें खेतों में काम करती है और पुरुष चार लोगों के साथ बैठ के मोदी से लेकर ट्रम्प तक की चर्चा कर डालते है। घर बैठे चीन को युद्ध की चुनौती देते है उनके पास सभी ख़बरें होती हैं।

घर पर सब ख़ाली हैं तो छोटी-छोटी बातों पर भी एक दूसरे के जान के दुश्मन बन जाते हैं। गाँव में अगर दो लोगों के बीच कोई विवाद होता है तो उनके बीच पिसती हैं स्त्रियाँ। मलीन किया जाता है उनका चरित्र सारी गालियाँ उनके हिस्से में लिखी हुई है। इसलिये ये उन्हीं के मत्थे मढ़ दी जाती है। दो पुरुषों के बीच पिस जाती हैं बेक़ुसूर स्त्रियाँ...। आखिर क्यों..?

“एक लड़की का
खुद का कोई वजूद
तो होता ही नही
ज़लील होती हैं
हर तरह से लड़कियाँ.
शादी से पहलें
माईके वाले
उसकी ज़िंदगी की तमाम ख़्वाहीस
आज़ादी ...
को एक ख़ाली बक्से
में क़ैद करके
घर के किसी कोने में दफन कर देते हैं।
और शादी के बाद
वो ससुराल वालों के हाथों
की कठपुतली मात्र बन के रह जाती है।
खुली किताब सी होती है एक लड़की
जिसके हर एक पन्नो को
हर कोई बार बार पढ़ना चाहता है।”





पहले की स्त्रियों के हालात में और इक्कीसवीं सदीं की स्त्रियों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन मुझे नज़र नहीं आता है। आज भी दहेज उत्पीड़न के वाक़िये सामने आते रहते हैं, बेटियों को जला के मार देने की ख़बर अख़बारों के मुख्य पृष्ठ पर ही पढ़ने को मिल जाती है। रेप के मामले तो इतने वीभत्स होते हैं कि पढ़ के रूह काँप जाती है।

अगर इस समाज ने महिलाओं के प्रति अपना नज़रियाँ नही बदला तो एक दिन ये समाज स्त्रीविहीन हों जाएगा क्यूँकि एक बेटी ही बेटी को जन्म देने से डरेगी और एक दिन ऐसा आएगा कि प्रकृति की संरचना ही डगमगा जाएगी।

एक स्त्री कितना भी पढ़-लिख ले फिर भी वो आज़ाद नहीं कर पाएगी खुद को इस पुरुषवादी समाज केे रूढ़ियों से... जब तक वो ख़ुद इस विचारधारा का खुले तौर पर प्रतिरोध नहीं करेगी। कुछ चंद लड़कियों के आवाज़ उठने से ये समाज नहीं बदलेगा इसके लिए सभी को इकट्टा होना होगा।

बदलनी होगी ये मानसिकता...
आवाज़ उठनी होगी अपने हक़ के लिए..
बाहर निकलना होगा रूढ़ियों की चार-दीवारी से...

मेरा ये मनाना है कि पूरी दुनियाँ की रूपरेखा एक स्त्री से ही तय होती है। देश की प्रगति में भी स्त्री का योगदान अविस्मरणीय है फिर चाहे वो राजनीति हो, खेल, प्रशासन, शिक्षा, आई.टी. आदि सभी क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी पकड़ बनायी हुई है। अगर हम इन सभी बातों को ताक पर रख कर पुरुषवादी विचारधारा का ढिंढोरा पीटते रहेंगे तो एक देश कभी प्रगति नहीं कर सकता है।

अब हम बात करेंगे देश की वर्तमान स्थिति में महिलाओं की भागेदारी:- राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं ने लगातार अपना वर्चस्व बनाए हुई है। ममता बनर्जी, उमा भरती, वसुंधराराजे, मायावती जैसी महिलाएँ अपने किरदार को बुलंदियों तक ले गयी है। आज वो सभी भारतीय राजनीति का एक सफल चेहरा हैं।

खेल में महिलाओं स्थिति:- खेल में भी महिलाओं ने अपना विशेष योगदान दिया है। पी. वी. सिंधु, सानिया मिर्जा, ज्वाला गट्टा, मैरीकॉम जैसे महिला खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा से कई बार भारत को गौरान्वित किया है। इसी तरह अन्य खेलों में भी महिलाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित किया है।

शिक्षा एवं शिक्षण में महिलाओं की स्थिति:- शिक्षा एवं शिक्षण कार्य में भी महिलाओं का योगदान सराहनीय रहा है।

महात्मा गाँधी के अनुसार- “एक आदमी को पढ़ाओगे तो एक व्यक्ति शिक्षित होगा और एक स्त्री को पढ़ाओगे तो पूरा परिवार शिक्षित होगा।" बेहतर शिक्षण कार्य महिला ही कर सकती है। वर्तमान समय में महिला साक्षरता को बढ़ावा देने के लिए अनेक योजनाएँ जैसे बेटी पढ़ाओ- बेटी बचाओ सरकार द्वारा शुरू की गयी है। मानव जीवन में एक वृक्ष की तरह विकास की भी कई शाखाएँ होती हैं इसकी हर शाखाओं में महिलाओं की भूमिका अहम है। शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित कर समाज में महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया जा सकता है।

हाल में गणतंत्र दिवस पर शमशाद बेग़म और फूलबासन यादव जी जो छत्तीसगढ़ की निवासी हैं उन्हें साक्षरता के प्रसार-प्रचार में योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। इसके अलावा हाल ही के दसवीं और बारहवीं की बोर्ड परीक्षा के परिणाम से लड़कियों की स्थिति का अनुमान आसनी से लगाया जा सकता है। ख़ैर शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो लड़के और लड़कियों को एक दूसरे के प्रति सम्मान की दृष्टि पैदा करें, ना की द्वेष की भावना को बढ़ावा दें। क्योंकि अब स्त्रियाँ हर क्षेत्र में पुरुषों के समान ही है।

रोज़गार में महिलाओं की स्थिति:- विश्व स्तर पर लगभग आधी महिलाएं काम करती हैं, और हाल ही में कई देशों में महिला श्रम-बल में वृद्धि के कारण रोजगार में महिला-पुरुषों के बीच का अंतर कम हुआ है। फिर भी भारत की बाजार अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी के रुझान इसको विपरीत दिशा में बढ़ रहे हैं। भारत में महिला श्रम-बल  भागीदारी के कम दर ग्रामीण क्षेत्रों की विवाहित महिलाओं पर केंद्रित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मध्‍यम स्‍तर की शिक्षा-प्राप्‍त महिलाएं बच्चों की देखभाल और घरेलू काम पर अधिक समय बिताने को प्राथमिकता देती हैं।

एक सर्वे में पता चला है कि भारत में महिला कामगारों के समक्ष सिर्फ विकल्प ही कम नहीं है बल्कि उन्हें पुरूषों की तुलना में कम वेतन भी मिलता है। समान रूप से शिक्षित होते हुए और समान कार्यों के लिए महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले 34 फीसदी कम वेतन मिलता है। आखिर ऐसा क्यों...?




निष्कर्ष:- हमें महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए सर्वप्रथम समाज में व्याप्त रूढ़ियों को तोड़ना होगा। महिलाओं को विकास के अवसर प्रदान किए जाए। बेहतर शिक्षा की व्यवस्था की जाए। जिससे वो देश दुनियाँ के बारे में जान सकें समझ सकें उनका शारीरिक और मानसिक विकास अच्छी तरह हो। उन्हें उनके श्रम के अनुसार वेतन मुहैया कराया जाए, जिससे कि काम के प्रति उनकी रुचि बनीं रहे और बाकी की महिलाओं को भी स्वावलंबी बनने की प्रेरणा मिलें।



                                                              लेखिका- श्रद्धा मंजू



क्षणिकाएं




एक

वह जार-जार, बेजार रो रहा था
लाड़-दुलार की फुहार व्यर्थ जा रही थी
हाथी-घोड़ा, गाजा-बाजा भी बेअसर जा रहा था
माँ ने उसकी उसे फिर, अपनी छाती से लगाया
छाती से लगाकर उसे, अपना दूध पिलाया
कुछ पलों बाद वह अबोध मुस्कुरा रहा था

दो

कचड़े के उस अम्बार से, हर शख्स बचकर चल रहा था
नाक को कोई हथेलियों से, तो कोई रूमाल से ढक रहा था
घृणा से देखती आँखों से बेखबर, गड्ढे मे तब्दील वे आँखें
शिद्दत से अपने मतलब का सामान ढूंढ रही थी
अधबुझी आँखों में अब जुगनू चमक रही थी
शायद उन्हें उनके मतलब का सामान दिख रहा था

तीन

पेट था या वह उसकी पीठ थी, पता नहीं चल रहा था
हाड़ जलाकर काँपती हड्डियों से वह हड्डी-ढाँचा
अपनी हड्डियों से नमक बहा रहा था
अंतड़ियों में उठती उमेठन, शायद उसमे बल भर रही थी
दिन ढले उसके नमक की कीमत, जब उसकी हाथों में आई
उसकी अँतड़ियां खुश हो रही थीं, वह मुस्कुरा रहा था

                                      निशान्त राज



इंतकाम



मैं पत्थर सा हुआ 
उनकी याद में,

वो तोड़ते रहे मुझे 
अपने इंतकाम में,

सोचा न उन्होंने कभी
कि बीते हुए वक्त में 

मैं कितना तड़पा हूँ 
उनकी याद में,

बस वो जख्म देते रहे मुझे
हँसते हुए अपने इंतकाम।

मैं लेकर मिट्टी का तन 
उड़ता रहा उनकी याद में 

और वो बनकर बवंडर
खिलवाड़ करते रहे मुझसे 

अपने ही इंतकाम में।


                             राजीव डोगरा 'विमल'


विधा -कुकुभ छन्द गीत





कोरोना से छिड़ी भयंकर,जंग जीत ही जायेंगे ।
अभी ज़रा विचलित हैं लेकिन,कब तक यूँ घबरायेंगे ।।

🙏🙏🙏🙏❣️❣️🙏🙏🙏🙏

मानवता के शुक्ष्म शत्रु का,छद्म रूप दिखलाना है ।
है सवार संकल्प शीश पर,अब पाषाण गलाना है ।
उग्र ज्वाल यदि हृदय भरेंगे, नष्ट तभी कर पाएंगे ।।
कोरोना से छिड़ी भयंकर........।

🙏🙏🙏🙏❣️❣️🙏🙏🙏🙏

रख कर  दूरी भीड़-भाड़ से, कहीं नहीं आएं जाएं ।
अभिवादन हो हाथ जोड़ कर,ना मिले न गले लगाएं।
अब सख्ती से अनुशासन के,नियम सभी अपनाएंगे ।।
कोरोना से छिड़ी भयंकर ......। 

🙏🙏🙏🙏❣️❣️🙏🙏🙏🙏

हमें बढ़ानी है  प्रतिरक्षा, नित्य  योग  व्यायाम  करेंगे ।
संक्रमण पर विजय प्राप्त कर,नहीं रुग्ण असमय मरेंगे ।
स्वच्छता को हथियार बना हम,भारत देश बचाएंगे ।।
कोरोना से छिड़ी भयंकर .......।

🙏🙏🙏🙏❣️❣️🙏🙏🙏🙏

सार समझ लो श्वास-श्वास का,बंद करो नित मनमानी ।
हां!बचाव में ही इलाज यह ,बात  समझ ले  हर प्राणी  ।
कब तक घेरेंगी विपदाएं,दिन यह भी टल जाएंगे ।।
कोरोना से छिड़ी भयंकर .......।

                           रीना गोयल

आवारा बादल



आपकी नजरों मे....

मै क्या ? 

मेरा वजूद क्या ? 

मेरे जज्बात क्या ? 

चलो छोड़ो !


 ख्याल रखना अपनो का जरा सलीके से....

मैं तो आवारा बादल हूँ ... 

मेरा प्रेम क्या ? 

मेरा स्नेह क्या ? रिश्ता क्या ?  

चलो छोड़ो !


                         अभिषेक शुक्ला 

हकीकत की कहानी





ना मैं तेरे फसाने का किस्सा
ना तू मेरे हकीकत की कहानी

मै तेरे दिल की सुलगती आग
तू मेरी आंख से बहता पानी

किनारे पे तन्हा बैठा बुढ़ापा
लहरों संग हंसती खेलती जवानी

मैं बर्फीली हवाओ सी सर्द सर्द
तू आइने में जमी सी गर्द गर्द

मेरे रग रग से छलकता ईमान
तेरी नस नस से झलकती बेइमानी

तू शरदी की ढलती हुई शाम
मैं चढती हुई सुबह सुहानी

तेरे शब्द शब्द का मतलब तू
मेरे लफ्ज़ लफ्ज़ में मैं बेमानी

मेरे भीतर ठहराव समंदर का
तेरे भीतर बहती दरिया तूफानी


                                      आरती त्रिपाठी


"रात को नींद नही आती है"





बिस्तर पर अधखुली ऑंखे
नींद से होकर बेखबर बेफिजूल
की ख्याल बुनती रह जाती है,
रात को नींद नही आती है।

कुछ बंजर पड़े ख्वाब,
निरीह तन को करते है विक्षत
इसी कशमकश में रात गुजर जाती है
रात को नींद नही आती है।
  
अतीत के किस्से तो कभी
भविष्य में हाथ लगने वाले हिस्से
के बीच विचरण करता है दृग
रात को नींद नही आती है।

रात खेल रही है कोई खेल
या नींद ने की है गुस्ताख़ी
बीत जाती है रात करने मे तफ़्तीश
रात को नींद नही आती है।

तमिस्र भरी रातो में चमकते
तारक व कुमुद के देख तफ़नगी
ऑंखे रात को कोसती रह जाती है
रात को नींद नही आती है।
        
                                आशुतोष यादव


संघर्ष





जिंदगी एक संघर्ष है
यहाँ हर दिन एक नया दिन है।
खुद को हराकर जितना ही
असली जीत है जिंदगी की।

आज पैर देश जूझ रहा है जीवन के लिए।
महामारी पैर पसारे खेल रही नित जीवन से।
खत्म हुए रोजगार और व्यापार है।


खत्म आज नए आयात और निर्यात है।
कैद हो गए इंसान घरों में
बढ़ती समाजिक दूरी से बेहाल है।

पर जितना इस काल मे
लिखना संघर्ष की एक नई कहानी को।
जितना हर हाल में इस बीमारी को।।

                                       संध्या चतुर्वेदी


23 August 2020

घूंघट में चुड़ैल



एक दिन की बात है, मनोज को जो गार्ड की नौकरी करता था ओवर टाइम लगाना पड़ता है और देर रात १२ बजे उसकी छुट्टी होती है। गांव की गलियों में रोशनी की दिक्कत थी लेकिन ये पूनम की रात है और चांद की सफेद रोशनी में बेझिझक वो चला जा रहा है। गांव के बीच में ही एक बड़ा चौराहा था जहां पानी का हैंडपंप लगा हुआ है। मनोज को प्यास लगी है और पानी पीने की सोचता है अचानक मनोज को एक परछाई दस कदम दूर हैंडपंप के पास खड़ी दिखाई देती है। एक औरत इतनी रात को घूंघट लिए खड़ी है चुपचाप ! मनोज पुछता है कौन हो और इतनी रात को यहां क्यूं अकेले खड़ी हो, औरत का कोई जवाब नही आता है। मनोज को शक होने लगता है कि ये कोई और चक्कर तो नही कहीं गांव में किसी से मिलने आती हो ! पर किससे ? मनोज फिर पुछता है कौन गांव की हो इस गांव की तो नही लगती ! औरत का फिर कोई जवाब नही आता।

मनोज कहता है थोड़ी मदद कीजिए ना, हम थोड़ा पानी पी लेंगे प्यास लगी है हाथ थोड़ा हैंडपंप पे दे दीजिए । औरत चुपचाप वहीं खड़ी थी कोई जवाब नहीं देती। अब मनोज खुद पानी पी लेता है और दो कदम आगे बढ़कर पुछता है फिर से, बताओ तो सही कौन हो लेकिन वो औरत भी दो कदम पीछे हट जाती है। मनोज को अजीब लगता है और और वो जल्दी से चार कदम आगे लेता है उतनी ही तेजी से वो औरत भी चार कदम पिछे हो जाती है। अब मनोज को लगता है कि चहरा मैं अब देखकर ही रहूंगा और वो उसकी तरह तेजी से आता है औरत भी भागती है मनोज तेज़ भागने लगता है औरत भी और तेज़ भाग रही है।

भागते भागते मनोज का ध्यान जाता है कि गांव से बाहर आ चुका था और औरत भागती हुई जंगल की तरफ जा रही है। मनोज के दो कदम उसके एक कदम के बराबर हो ग‌ए हैं और जैसे जैसे जंगल के नज़दीक वो जा रही थी वैसे - वैसे उसका शरीर बौना हो रहा था। मनोज भागते भागते डर रहा है, ये क्या हो रहा है वो सोच नही पाता कि करूं क्या! और जैसे ही जंगल के बिल्कुल पास औरत जो बोनी हो चुकी थी वो और भी बौनी हो जाती है।

मनोज अब आव देखता ना ताव वो वापिस घूमता है और इतना तेज़ भागता है जितना तेज़ वो कभी नही भागा था पहले कभी भी। वो घर हांफते हांफते पहुंचता है जगाता है सबको और जो भी हुआ वो बताता है। उसे गांव वालों ने बोला तुम्हारी किस्मत अच्छी थी अगर जंगल में गलती से चले जाते उसके पिछे तो कभी वापिस नही आते।

स्वामी दास

क्या लिखूं..?



ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में समानता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में सहनशीलता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में दया भाव आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में मानवता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में करुणा आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में नैतिकता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में इंसानियत आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में सद्बुद्धि आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में एकता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में प्रेरणा आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में शुद्ध विचार आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में नहीं सोचा आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में विविधता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में धर्मनिरपेक्षता का भाव आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में बराबरी आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में विनम्रता आ जाए।

ऐसा क्या लिखूं..?
जिससे समाज में जागरूकता आ जाए।

@दीपक मदिरा


हिंदू खतरे में कब-कब आते हैं..?




अक्सर आपने यह सुना होगा हिंदू खतरे में है। मगर कब से हैं और कहां के हिंदू हैं किसी को नहीं पता होता है। बस लोग बोलते चले जाते हैं औश्र सोशल मीडिया की व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में इसे फैलाते रहते हैं। विडंबना यह है कि यह मैसेज चुनाव के समय ही व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के सिलेबस में आती है। जल्दी ही यह अध्याय बंगाल और बिहार में शुरू होने वाला है, क्योंकि वहां इलेक्शन होने वाले हैं। इसलिए हिंदू खतरे में है का सिलेबस वहां के लोगों के लिए बहुत ही जरूरी है।

अगर आप सोशल मीडिया में रहते हैं तो मैं आपको गारंटी देता हूं चुनाव के समय आपने भी यह अध्याय अपने किसी मित्र या रिश्तेदार के व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर जरूर पढ़ा होगा। मुझे शर्म आती है उन लोगों से जो इस मैसेज को अन्य लोगों को फॉरवर्ड करते हैं। जरा आप खुद सोचिए भारत की जनसंख्या 130 करोड़ है और हिंदुओं की जनसंख्या करीब 80 करोड़ से अधिक है। आप मुझे बताइए कैसे हिंदू खतरे में हैं..? आप सोचिए क्या जो हिंदू सुरक्षित है- जैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, हिमाचल में क्या उन हिंदुओं के पास रोजगार है..? मैंने इन 4 राज्यों का नाम इसलिए लिया क्योंकि यहां सत्ताधारी पार्टी बीजेपी की सरकार है। यानी डबल इंजन की सरकार है उसके बावजूद भी इन चारों प्रदेशों की हालत आप न्यूज़ चैनल और अखबारों में देख रहे हैं।

अगर मैं उत्तर प्रदेश को रेप प्रदेश बोलूं तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जिस तरीके से वहां आए दिन रेप केस आ रहे हैं, जबकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एक संत जी हैं। बेरोजगारी की तो आप बात ही मत करो।
भाई साहब सुनो- अगर आपके यहां चुनाव होने वाले हैं तो आप सोच लेना आपके प्रदेश के हिंदू खतरे में आने वाले हैं। जैसे ही चुनाव खत्म होंगे वैसे ही वह हिंदू सुरक्षित हो जाएंगे। भले ही उन हिंदुओं के पास खाने के लिए रोटी हो या नहीं हो। मुझे तो इस हिंदू समाज पर भी शर्म आती है जो हर बार खतरे में आता है। आखिर आपका समाज इतना कमजोर है जो यूं ही खतरे में आ जाएगा। चार-पांच खुराफाती लोगों के चक्कर में आप अपने धर्म की ऐसी की तैसी क्यों बजा रहे हैं भाई..? खुद सोचो अगर हिंदू खतरे में ही होते तो आज नहीं हमारा देश हजारों साल गुलाम रहा तभी खत्म हो जाता। मेरा आप से निवेदन है- थोड़ा सा अपनी बुद्धि का प्रयोग करें और हर चुनाव में अपने समाज को खतरे से बचाएं हैं।

सम्मान जीवन जीने का अधिकार




भारतीय संविधान दुनिया के उन अद्वितीय संविधानों में से एक है जो समाज के प्रत्येक वर्ग का ध्यान रखता है। संविधान के निर्माताओं को मानवीय गरिमा और योग्यता के महत्व के बारे में पता था और इसलिए उन्होंने भारत के संविधान की प्रस्तावना में मानवीय गरिमा शब्द को शामिल किया। संविधान की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता मौलिक अधिकार है। संविधान के निर्माताओं ने इसे यूएसए से उधार लिया और संविधान के भाग III में एक अलग अध्याय के रूप में  जोड़ा। संविधान ने विभिन्न अधिकार प्रदान किए जैसे कि समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शिक्षा का अधिकार, संवैधानिक उपचार का अधिकार, जो कि सबसे पवित्र, अक्षम्य, प्राकृतिक और निहित अधिकारों के बारे में बात करता है। मौलिक अधिकारों की गारंटी संविधान द्वारा सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के दी जाती है। मौलिक अधिकारों का प्रावधान मानवीय गरिमा को सुरक्षित और संरक्षित करता है। न्यायपालिका ने बहुत सारे मामलों में मौलिक अधिकार के रूप में गरिमा पर जोर दिया है। नाज़ फाउंडेशन तथा एनसीटी की सरकार और अन्य लोगों के मामले   में कोर्ट ने कहा कि, "मानवीय गरिमा के संवैधानिक संरक्षण के लिए हमें अपने समाज के सदस्यों के रूप में सभी व्यक्तियों के मूल्यों को स्वीकार करना होगा"। भारत के सभी नागरिक बिना किसी व्यवधान के शांतिपूर्ण, गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत करेंगे।

न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ में सही कहा है कि जीवन का संरक्षण सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि किसी का जीवन खो जाता है, तो पुनरुत्थान की स्थिति बहाल नहीं की जा सकती क्योंकि पुनरुत्थान मनुष्य की क्षमता से परे है ’। जीवन का अधिकार मनुष्य का अविभाज्य मूल अधिकार है। यह मानवीय अधिकार , मौलिक, अविभाज्य, पारलौकिक और सबसे महत्वपूर्ण है । मेनका गांधी के केस के बाद से सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की  अनुच्छेद 21 की  वृहत व्याख्या की, जिसने जीवन के अधिकार के क्षितिज के विस्तार के एक नए युग की शुरुआत की है। परंपरागत रूप से जीवन के अधिकार को लोगों का प्राकृतिक अधिकार कहा जाता था। जीवन का अधिकार भारत के नागरिक और भारत के एलियंस के महत्वपूर्ण मौलिक अधिकारों में से एक है। यह भारत के संविधान द्वारा संरक्षित है। इसलिए जीवन के अधिकार में  मानव अधिकार के साथ जीने का अधिकार , कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार, स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार, जानने का अधिकार या सूचना का अधिकार, कैदियों का अधिकार, अवैध हिरासत के खिलाफ अधिकार , कानूनी सहायता का अधिकार, शीघ्र सुनवाई का अधिकार, मुआवजे का अधिकार, भयानक बीमारियों के खुलासे का अधिकार , निजता का अधिकार, सम्मान के साथ मरने का अधिकार, जीवन साथी चुनने का अधिकार और अन्य सब शामिल होना चाहिए।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मानव की सुरक्षा के लिए एक मुख्य तत्व के रूप में मानव गरिमा पर ध्यान केंद्रित किया। मानव गरिमा के वैचारिक आयामों की स्थापना 1948 में  की मूलभूत अवधारणा के रूप में की गई थी। यूडीएचआर की प्रस्तावना कहती है कि  निहित सम्मान की मान्यता और मानव परिवार के सभी सदस्यों के समान और अविच्छेद्य अधिकारों की विश्व में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव है ’। ह्यूमन राइट्स 1948 के यूनिवर्सल डिक्लेरेशन के आर्टिकल 1 की शुरुआत में उल्लिखित मानव गरिमा, दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा दुनिया के विभिन्न देशों के विभिन्न संवैधानिक कानूनों में मानवीय गरिमा के साथ जीवन के अधिकार की रक्षा और विकास के लिए प्रारंभिक कार्य प्रदान करती है। हर व्यक्ति को बिना भेदभाव के गरिमापूर्ण जीवन जीने का पूर्ण अधिकार है। वे राज्य के साथ-साथ अन्य व्यक्तियों से भी समान सम्मान का दावा करने के हकदार हैं। यह प्रत्येक राज्य के प्राथमिक कर्तव्यों में से एक है कि नागरिकों की गरिमापूर्ण जीवन को बेहतर बनाने के लिए मानव गरिमा के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए और कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया जाए।

जीवन के अधिकार के तहत कई और अधिकार हैं। इसमें सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के महत्वपूर्ण बिंदु शामिल हैं। उनसे यह पता चलता है कि अनुच्छेद 21 के दायरे और दायरे को बड़ा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई व्याख्या से मानव अधिकार का क्षेत्र बहुत बड़ा हुआ है। यह उल्लेख करने की आवश्यकता  नहीं है कि यह न्यायशास्त्र अब मानवीय गरिमा का अभिन्न  अंग है। यह सब सुप्रीम कोर्ट के उदारवादी रवैये और दृष्टिकोण के कारण हुआ। अदालत ने ओलीगा टेलिस बनाम बॉम्बे मुनीपाल कोरोपोरेशन और अन्य और कॉर्ली मुलिन बनाम दिल्ली के प्रशासक और केंद्र शासित प्रदेश के मामले में इस तरह से व्याख्या की है कि जीवन के अधिकार में एक गरिमापूर्ण जीवन स्वयं शामिल है।

वर्तमान में मानवीय गरिमा की कोई सटीक परिभाषा नहीं है। मानवीय गरिमा शब्द ने व्यक्ति के नागरिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा की बात सच्ची जाती है। मानव गरिमा का अर्थ सम्मान और समान स्थिति के योग्य अवसर  है और यह व्यक्ति के जाति, पंथ, लिंग, रंग, स्थिति के बावजूद मानव जीवन के साथ मानसिक रूप से जुड़ा हुआ है"। मानवीय गरिमा परिवार, जाति, समुदाय और समाज के साथ जुड़ी हुई है। प्रत्येक समाज में गरिमा के साथ अपने स्वयं के मानदंड हैं, वे प्रथाओं के अनुसार अपनी गरिमा, सम्मान और स्थिति बनाए रखते हैं। एक मानव होने के नाते इसे लिंग की परवाह किए बिना गरिमा के बराबर व्यवहार करना चाहिए। मानव गरिमा सरकार की विश्वव्यापी मानवाधिकार प्रणाली की मूलभूत अवधारणा है। मानव गरिमा का महत्व संयुक्त राष्ट्र के चार्टर, मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा और भारत के संविधान में भी निर्धारित किया गया है, जिसमें व्यक्ति की गरिमा का उल्लेख  प्रस्तावना में सबसे महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में किया गया है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश, जे एस वर्मा ने पूरी तरह से मानवीय सम्मान के साथ जीवन के अधिकार के बारे में विचार व्यक्त किया, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता प्राप्त है। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने कहा है कि, अनुच्छेद 21 को जीवन और स्वतंत्रता के संरक्षण के रूप में जाना जाता है। जीवन के अधिकार का मतलब यह नहीं है कि यह केवल जीवन का अस्तित्व है, बल्कि यह एक गरिमापूर्ण गुणवत्ता वाला जीवन होना चाहिए। खराह सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में की शीर्ष अदालत ने कहा कि अभिव्यक्ति 'जीवन' केवल शारीरिक संयम या कारावास तक सीमित नहीं था, बल्कि केवल पशु अस्तित्व से कुछ अधिक है । संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत किसी व्यक्ति को किसी भी प्रतिबंध या अतिक्रमण से मुक्त होने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि, अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार का अर्थ  इंसान की जरूरतों को शामिल करने के लिए सिर्फ एक जानवर के जीवन से परे होना चाहिए। पी रथिनम बनाम भारत संघ के मामले में जीवन शब्द को 'मानव गरिमा के साथ जीने के अधिकार' के रूप में परिभाषित किया गया है। यह मानवीय सभ्यता को और सुदृढ़ बनाता है और जीवन की व्यापक अवधारणा मतलब परंपरा, संस्कृति और विरासत को सही दिशा प्रदान करता है।


                                                               सलिल सरोज