साहित्य चक्र

03 December 2022

उत्तराखंड के प्रसिद्ध ढोल वादक सोहन लाल को डॉक्टर ऑफ लेटर्स (डी. लिट) की उपाधि से क्यों नवाजा गया ?


हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय ने उत्तराखंड के प्रसिद्ध ढोल वादक सोहन लाल जी को डॉक्टर ऑफ लेटर्स की उपाधि से नवाजा है। सोहन लाल ने उत्तराखंड संगीत की थाप देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक भी पहुंचाई है। सोहन लाल जी ने ढोल ना सिर्फ बजाया बल्कि देश-विदेश के कई लोगों को ढोल बजाना ही सिखाया है।





सोहन लाल मूल रूप से टिहरी जिले के पुजार गांव के निवासी हैं। इनका जन्म 1 जनवरी 1966 को हुआ। सोहनलाल को ढोल की प्रारंभिक शिक्षा उनके पिता स्वर्गीय ग्रंथी दास के द्वारा प्राप्त हुई। सीधे शब्दों में कहे तो सोहन लाल के पिताजी ढोल बजाकर अपना जीवन यापन करते थे। सोहन लाल जी के जीवन में संगीत के सुर उनकी माता स्वर्गीय लौंगा देवी जी के द्वारा बोए गए। घर की खराब आर्थिक स्थिति की वजह से सोहन लाल जी अपनी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं कर पाए। जिसके बाद उन्होंने भी ढोल वादक को अपने जीवन का सहारा बनाया।

उत्तराखंड के पहाड़ों में कई मंदिरों में आज भी सुबह-शाम या किसी शुभ अवसर पर ढोल बजाने का रिवाज है। जिसे उत्तराखंड की लोक भाषा में नौबत कहा जाता है। नौबत यानी ढोल वादक, बाजगी, या दास कहलाते हैं। यह काम दलित समाज के लोग करते हैं। सोहनलाल जी का जन्म एक ऐसे ही परिवार में हुआ। सोहन लाल जी की मजबूरी या संगीत के प्रति उनकी आस्था ने उन्हें आज यहां तक पहुंचाया है। सोहन लाल जी ढोल वादक में परिपूर्ण है। नौबत के 18 ताल और शादी के 12 ताल जानते हैं। नरसिंह,भैरव, निरंकार, रणभूत, घरभूत, घंडियाल और कई अन्य अनुष्ठानिक नित्य परंपराओं के सोहन लाल जी प्रयुक्त वादन जानते हैं।

हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय ने सोहन लाल जी को डॉक्टर ऑफ लेटर्स (डी. लिट) की डिग्री देकर सम्मानित किया है। मगर आज भी सोहन लाल जी‌ के समाज की हालत उत्तराखंड में दयनीय है। एक वक्त हुआ करता था, जब उत्तराखंड का संगीत सोहन लाल जी के समाज के लोगों के आस-पास ही रहता था और तो और संगीत के यंत्रों ढोल, दमाऊ, हुड़का तक को छूने में अपमान माना जाता था। आज सरकार प्रदेश संस्कृति और संगीत के लिए करोड़ों रुपए खर्च करती है, मगर वह पैसा सिर्फ कुछ नाम चर्चित लोगों के जेब में ही जाता है। ऐसे में उन लोगों को लेकर एक प्रश्न उठता है- क्या जिस संगीत को कभी आपके पूर्वजों ने एक समाज तक सीमित रखा था और उस समाज को उस संगीत को बजाने के लिए लगातार अपमानित होना पड़ता था।

आज उसी संगीत को आप अपना पेशा बना रहे हो, तो कम से कम सोहन लाल जी के समाज को उस संगीत के कारण हुए अपमान और भेदभाव के शिकार से मुक्ति तो दे दो। प्रदेश संस्कृति और संगीत के नाम पर सरकार करोड़ रुपए जो खर्चा कर रही है, उसमें थोड़ा सा हिस्सा और हक सोहन लाल जी के समाज के लोगों का भी बनता है। सोहन लाल जी के समाज ने उत्तराखंड के संगीत और संस्कृति को वर्षों तक आगे बढ़ाया है और आज उस समाज के हाथ क्या लगा है ? जिस समाज ने प्रदेश की संस्कृति और संगीत को हजारों साल जिंदा रखा, आज उस समाज को संस्कृति और संगीत के नाम पर कुछ भी नहीं मिल रहा है। क्या यही उत्तराखंड के देवों और यहां की भूमि का न्याय है ?


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