साहित्य चक्र

29 December 2022

कहानी: पिंजरा


"पापा मिट्ठू के लिए क्या लाए हैं?" यह पूछने के साथ ही ताजे लाए अमरूद में से एक अमरुद ले कर अंजना मिट्ठू के पिंजरे के पास पहुंच गई। जब से मिट्ठू आया है था अंजना कितनी खुश रहती थी। नहीं तो अंकिता के डिवोर्स लेने के बाद से वह मुरझाई-मुरझाई रहती थी। मां से अलग हो कर अचानक पिता के साथ अकेली रहना पड़े तो इसका असर बच्चे की मानसिकता पर सहज ही पड़ता है। 





वह किसी से बात ही कहां करती थी। बच्चे मां के बारे में सवाल करेंगे, यह सोच कर वह दोस्तों के साथ खेलने भी नहीं जाती थी। अकेली घर में पड़ी रोती रहती थी। खिलौनों से भी जैसे उसकी बोलचाल बंद हो गई थी। पर मिट्ठू के आने के बाद से उसे एक दोस्त मिल गया था, जिससे वह पूरे दिन बातें करती रहती थी। उसी की देखभाल में समय बिताती थी। नन्ही बेटी के मुखड़े पर खुशी देख कर प्रदीप का मन प्रसन्न हो उठता था। पर पता नहीं क्यों अंजना मिट्ठू के बारे में कोई सवाल करती तो प्रदीप के मन में अंकिता के साथ का अतीत दिमाग में मथने लगता था। इस तरह की सोच की सांकल भी कैसी विचित्र ताला में फंस जाती है। आखिर मानव मन इतना अटपटा क्यों होता है ?


जब प्रदीप मिट्ठू का पिंजरा खरीद कर लाया था, तभी अंजना ने पहला सवाल पूछा था, "पापा, इसे पिंजरे में क्यों रखा है ?" "जिससे हम इसकी देखभाल कर सकें, इससे प्यार कर सकें, इसकी रक्षा कर सकें।"


देखभाल, प्यार, रक्षा तो वह अंकिता की भी करना चाहता था। शादी के दस सालों में उसने यह सब करने की पूरी कोशिश की थी। अंकिता ने भी तो इन सभी मामलों में उसका पूरा-पूरा सहयोग दिया था। संबंधों की गाड़ी दो समांतर पहियों से ही आगे बढ़ सकती है। अंकिता ने भी सामने से उतना ही प्यार और स्नेह बरसाया था। अंजना के पालन-पोषण में उसने अपना कैरियर भी कितनी कुशलता से संभाला था। 

आज की एक सफल स्त्री की तरह उसने मातृत्व को अपने कैरियर का पूर्णविराम नहीं बनने दिया था। जबकि इसके लिए मेहनत की पराकाष्ठा की हद तक पहुंचने के अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं था। दोनों ने अपने-अपने कार्पोरेट व्यवसायों में जीजान से मेहनत कर के उत्तम व्यावसायिक प्रदर्शन कर रहे थे, साथ ही साथ अंजना के पालन-पोषण की जिम्मेदारी भी समान रूप से उठा रहे थे। आखिर परिवार की सफलता परिवार के सदस्यों की आंतरिक समझ के साथ सहयोग पर ही निर्भर होती है।





"पापा मिट्ठू का पिंजरा धूप से अंदर ले आती हूं तो वह चिढ़ जाता है। जबकी बाल्कनी में बहुत तेज धूप है।"


"बेटा, तुम्हें लगता है कि धूप से उसे बचाना चाहिए। पर हो सकता है उसे धूप अच्छी लग रही हो, इसलिए थोड़ी देर उसे धूप खाने दो।"

अंजना पिंजरा ले कर बाल्कनी में गई। प्रदीप की आंखें सामने अंकिता के साथ के वार्तालाप के विचारों की सांकल में उलझ गईं। 

"अंकिता, मैं जानता हूं कि यह प्रमोशन तुम्हारे कैरियर का सब से बड़ा पड़ाव है। पर मैं अपनी नौकरी छोड़ कर दिल्ली नहीं चल सकता। मैं लखनऊ नहीं छोड़ सकता। मैं ने भी अपनी नौकरी में इस स्तर तक पहुंचने के लिए दिनरात एक किया है, तब यहां पहुंचा हूं।"

"मैं जानती हूं प्रदीप, इसीलिए तो आशा करती हूं कि तुम मेरी मेहनत को समझोगे। फिर मैं कहां तुम से लखनऊ छोड़ने को कह रही हूं। तुम्हारे कैरियर के त्याग का तो सवाल ही नहीं है।"

"मतलब तुम अकेली ही दिल्ली जाने के बारे में सोच रही हो... और मैं और अंजना यहां लखनऊ में रहेंगे यही न ?"

"तुम कहो तो मैं अंजना का दिल्ली के किसी स्कूल में एडमिशन करा दूं। यह मेरे साथ रहेगी तो मुझे इसकी चिंता भी नहीं रहेगी।"

"और मेरा क्या होगा अंकिता? मैं तुम्हारे और अंजना के बिना अकेला लखनऊ में रहूंगा? इसे ही पारिवारिक जीवन कहेंगे? इज दीज कोल्ड ए फैमिली लाइफ ?"

"तुम इस तरह चिढ़ क्यों रहे हो ? ह्वाई आर यू ओवर रिएक्टिंग ?"

"तुम परिवार के दो टुकड़े करना चाहती हो। ऐसे में मुझसे दूसरी किस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद कर सकती हो।"

"इसका मतलब तो यह हुआ कि तुम्हारी अपेक्षा के अनुरूप निर्णय न हो तो मैं अपरिपक्व और नासमझ हूं? अब तुम राई का पहाड़ बना रहे हो प्रदीप।"
"तुम्हारे लिए परिवार राई जैसी छोटी बात होगी, पर मेरे लिए तो यह सर्वस्व है। सभी चीजों से महत्वपूर्ण मेरे कैरियर से भी ज्यादा।"

"तो फिर दिल्ली चलो न मेरे साथ... नहीं चलोगे न? जब मैं तुम पर तुम्हारी नौकरी यानी कैरियर छोड़ने का दबाव नहीं डाल लही हूं तो फिर मेरे कैरियर के साथ बलिदान और त्याग की यह अपेक्षा क्यों? क्योंकि मैं पत्नी हूं और तुम पति? एक शिक्षित, आधुनिक  मुक्त विचारों वाले पुरुष को क्या यह सब शोभा देता है ?"

"तो ऐसे अशिक्षित और रूढ़िवादी पति के साथ बंधे रहने की क्या जरूरत है? उड़ जाओ अपने मुक्त गगन में..."

तभी अंजना ने पीछे से आ कर उसका हाथ पकड़ कर वर्तमान में खींच लिया, "पापा, आप सच कह रहे थे। मिट्ठू को धूप अच्छी लग रही है।"

"देखा...? जिसे प्यार करते हैं उसे खुश रखना चाहिए... इसकै लिए उसके दिल के भाव को समझना पड़ता है... उसकी इच्छाओं और चाहतों का सम्मान करना पड़ता है... भले अपने अभिप्राय उससे अलग हों। समझ गई न मेरी गुड़िया ?"

अंजना किसी गहरी सोच में डूब गई और प्रदीप भी...।

"चलो जल्दी खा लेते हैं। सुबह जल्दी उठ कर कोर्ट चलना है।"

प्रदीप की बात सुन कर अंजना खुशी से उछल पड़ी, "मम्मी से मिलने ?"

"हां।"

अंजना के लिए कोर्ट की तारीख का मतलब काफी दिनों बाद मां को देखने का सुनहरा अवसर। सप्ताह में दो बार उसकी मां से फोन पर बात होती थी। पर उसे आंखों के सामने देखने, स्पर्श करने की बात ही अलग थी। अगले दिन अंजना किस के साथ रहेगी, इसका फैसला हो जाएगा। अंजना किस के साथ रहेगी, यह कोर्ट तय कर देगा। 

प्रदीप को पता था कि अंजना उसी के साथ रहेगी। उसकी नौकरी स्थाई थी। जबकि अंकिता की नौकरी दिल्ली स्थित हेडआफिस में जाने के बाद से अस्थाई हो गई थी। अलग-अलग शहरों में मीटिंग तो कभी अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों की वजह से विदेश की यात्राएं। इस सब का असर बच्चे के विकास और पढ़ाई पर होगा और अंजान आया या अंजान बेबीसिटर के साथ बच्चे को छोड़ने की अपेक्षा बच्चे की जिम्मेदारी पिता को ही सौंप देना ज्यादा ठीक रहेगा। स्पष्ट था कि उनके वकील की तार्किक दलीलें जज को प्रभावित कर चुकी थीं। कल जज के फैसला सुनाते ही सारी चिंता खत्म हो जाएगी। अंकिता के जाने से जीवन में व्यापी शून्यता अब अंजना के साथ रहने से भर तो नहीं सकती, पर राहत जरूर दिला सकती है।


सुबह जल्दी अंजना को तैयार कर के प्रदीप खुद कोर्ट जाने की पूर्व तैयारियों में व्यस्त था। अंजना तैयार हो कर मिट्ठू के पास बाल्कनी में चली गई थी। तैयार हो कर प्रदीप बाल्कनी में पहुंचा तो नजर के सामने जो दृश्य था उससे वह चौंक उठा था। मिट्ठू का पिंजरा खुला था और मिट्ठू पिंजरे में नहीं था। अंजना आकाश की ओर दोनों हाथ ऊंचे किए हंस रही थी। मिट्ठू के बिना अंजना की क्या हालत होगी, यह सोच कर प्रदीप परेशान हो उठा था, "मिट्ठू कहां है अंजना?"

"वह तो उड़ गया।" बाल सहजता से जवाब देने वाली अंजना की आंखें अभी भी आकाश में ही मंडरा रही थीं।

"पर कैसे?" प्रदीप ने विकल मन से पूछा।

"मैं ने जैसे ही यह दरवाजा खोला, वह फुर्र से उड़ गया।"

"पर अब उसके बिना कैसे रहोगी? यह दरवाजा क्यों खोला था बेटा?"
"पापा, आप ने ही तो कहा था, जिसे प्यार करते हैं उसे खुश रखना चाहिए। इसीलिए उसके दिल की बात समझनी चाहिए। उसकी चाहत और इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए। मिट्ठू जब पिंजरे से अन्य पक्षियों को उड़ते देखता था तो क्या उसका खुले आकाश में उड़ने का मन न होता रहा होगा? कोई हमारे हाथ-पैर बांध दें तो हम उससे प्यार थोड़े ही करेंगे। उस पर तो गुस्सा ही आएगा न? भगवान ने उसे पंख उड़ने के लिए ही दिए हैं न। मेरी खुशी के लिए उसे बांध कर रखना, प्यार नहीं कहा जाएगा, स्वार्थ कहा जाएगा।"

अंजना की बात सुन कर प्रदीप चौंक उठा। उसे लग रहा था, उसका रोमरोम कांप रहा है। पूरी देह के रोएं खड़े हो गए हैं। छोटी अंजना ने बहुत बड़ी बात कह दी थी। एक छोटे हृदय ने एक बड़े हृदय को हिला कर रख दिया था।

कोर्ट में पहुंचते ही अंजना मम्मी के पास भाग गई थी। बेटी को सीने से लगा कर अंकिता की आंखें खुशी से छलक उठी थीं। अंकिता और प्रदीप की नजरें मिलीं तो दोनों के चहरों पर औपचारिक फीकी हंसी उभरी। अंजना की इच्छा का सम्मान करते हुए प्रदीप उसे अंकिता के पास ही बैठी छोड़ कर अपने वकील के पास चला गया। 

न्यायाधीश ने अपना निर्णय सुनाने से पहले दोनों पक्षों को अपना मंतव्य प्रकट करने का एक अंतिम मौका दिया। भरी अदालत में अपना मंतव्य प्रकट करने के लिए खड़े प्रदीप की आंखें अंकिता की ही आंखों को ताक रही थीं। उन आंखों में अंकिता के जो भाव दिखाई दिए, वह उसकी आंखों का भ्रम तो नहीं ही था। उसने एकदम से कहा, "जज साहब, आप अंजना को अंकिता को सौंप दीजिए। मुझे पूरा विश्वास है कि अंजना की देखभाल अंकिता से अच्छी और कोई नहीं कर सकता, मैं भी नहीं।"

अदालत में उपस्थित लोग चौंक उठे। दोनों पक्षों के वकील भी हैरान थे। अंकिता को भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अपनी कलम नीचे रख कर न्यायाधीश भी विस्मय से प्रदीप को ताकने लगे थे।

प्रदीप ने अंकिता की ओर देखते हुए कहा, "साॅरी अंकिता, मैं स्वीकार करता हूं, गलती मेरी ही थी। अगर यही प्रमोशन मुझे भी मिला होता तो मैं इसे नहीं ठुकराता। तुम से सहयोग की अपेक्षा रखता। तुम से अलग न होना पड़े, इस डर ने मुझे तुम से हमेशा के लिए अलग कर दिया। अब अंजना को भी तुम से छीन लूं तो मुझसे बड़ा स्वार्थी दूसरा कोई नहीं होगा।"

"जज साहब मुझे कुछ कहना है।" 

परमीशन मिलते ही अंकिता प्रदीप के सामने आ कर खड़ी हो गई। उसने प्रदीप का हाथ थाम कर कहा, "अंजना की कस्टडी न मुझे मिलनी चाहिए और न प्रदीप को।"

न्यायाधीश सहित पूरी अदालत हैरान थी। दोनों वकील और प्रदीप की भी कुछ समझ में नहीं आया था। तभी अंकिता ने आगे कहा, "अंजना की कस्टडी मुझे और प्रदीप को संयुक्त रूप से मिलनी चाहिए। जिससे हम दोनों मिल कर अपनी प्यारी गुड़िया की देखभाल कर सकें।"

अनुभवी न्यायाधीश की अनुभवी दृष्टि ने सब समझ लिया था। होठों पर हल्की मुसकान के साथ सिर हिलाते हुए उन्होंने दस्तखत कर के केस क्लोज कर दिया। 

गाड़ी की पिछली सीट पर बैठी अंजना मम्मी-पापा को एक साथ गाड़ी में बैठा देख कर हैरान थी। आखिर उसने पूछ ही लिया, "मैं मम्मी के साथ रहूंगी या पापा के साथ ?"

प्रदीप और अंकिता खिलखिला कर हंस पड़े। अंजना के निर्दोष सवाल के जवाब में दोनों एक साथ बोल पड़े, "कभी मम्मी के साथ दिल्ली में तो कभी पापा के साथ लखनऊ में और हमेशा एक-दूसरे के साथ।"

अंजना की तालियों से पूरी कार गूंज उठी, साथ ही प्रदीप और अंकिता का सूना जीवन भी। घर में घुसते ही बाल्कनी में पहुंची अंजना उत्हाह से उछल पड़ी, "पापा मिट्ठू वापस आ गया।"

हैरान प्रदीप बाल्कनी में पहुंचा। मिट्ठू वापस आ कर बाल्कनी में आराम से बैठा था। अपने मित्र को पा कर अंजना की खुशी दोगुनी हो गई थी। मिट्ठू अब उसके साथ ही रहेगा। लेकिन हां, पिंजरे में कैद हो कर नहीं। मुक्त पंखों के साथ मुक्त सांस लेते हुए। 

बाल्कनी से अंदर आ कर रसोई में काॅफी बना रही अंकिता का प्रसन्न चेसरा देख कर प्रदीप की भी खुशी दोगुनी हो गई थी। अंकिता अब साथ ही रहेगी। हां, पर पिंजरे में कैद हो कर नहीं, मुक्त पंखों के साथ मुक्त सांसें लेते हुए।


                                      - वीरेंद्र बहादुर सिंह


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