साहित्य चक्र

27 September 2018

दहेज की बदलती तस्वीर


प्रिया एक समझदार लड़की है,जो बचपन से एक ऐसे माहौल में पली बढ़ी है जहां पर उसने हमेशा अपने बड़े बुजुर्गों और माँ बाप का आदर सम्मान किया है और अपने माँ बाप की सारी बाते मानते हुए अपनी पढ़ाई की है।अपने पिता के सख्त स्वभाव के बाद भी उसने अपनी पढ़ाई निश्चित समय पर और सही तरीके से पूरी की है क्योंकि उसके पिता सख्त जरूर है किन्तु उन्होंने कभी भी प्रिया को पढ़ाई करने से नही रोका।पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रिया को एक बहुत अच्छी मल्टीनेशनल कंपनी में एक मैनेजर के रूप काम करने लगी है।आधुनिक विचारों की होने के बावजूद भी प्रिया हमेशा अपने मां-बाप का सम्मान करती है और कहीं ना कहीं उसने यह बात मन में ठानी हुई है कि वह अपने माता-पिता की पसंद से ही शादी करेगी।

 धीरे धीरे अब वो समय आ गया जिसमें प्रिया के विवाह के बारे में उसके मां बाप सोचने लगे और अपने सामर्थ्य के अनुसार उसके पिता ने एक बहुत ही अच्छी जगह पर अपनी बेटी प्रिया का रिश्ता तय किया और अपने पूरे सामर्थ्य से उसके विवाह किया और उसे अपने जीवन की जमापूंजी दहेज में देकर ससुराल के लिए विदा किया।एकलौती बिटिया प्रिया के विवाह में उन्होंने कोई कमी नही की।  

 धीरे-धीरे समय गुजरने लगा।प्रिया अपने पति वरुण के साथ बहुत खुश थी। उसके साँस ससुर का व्यवहार भी प्रिया के साथ हमेशा अपने मां-बाप की तरह ही था।अपनी खुशियो से भरे जीवन मे प्रिया का एक वर्ष बडी ही खुशियो के साथ गुजर रहा था।अब वो समय भी आ गया था कि प्रिया और वरुण के जीवन एक बच्चे के रूप में उनके बेटे ने जन्म लिया।सब कुछ बड़ा ही खुशियों से भरा चल रहा था,समय पंख लगा कर खुशियों के साथ उड़ता जा रहा था,किसी कारणवश प्रिया बच्चा होने के बाद अपने जॉब को करते हुए अपने बेटे का पालन पोषण ढंग से नही कर पा रही थी और खुद भी काफी थका और बीमार सा महसूस करने लगी थी।यहाँ से उसकी जीवन एक नया बदलाव आया जिसके बारे में उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

प्रिया को अचानक ही अपने पति और सास ससुर के व्यवहार में कुछ परिवर्तन सा महसूस होने लगा।उसने देखा कि किसी ना किसी तरीके से उसका पति और उसके सास ससुर उसे दुबारा से जॉब पर जाने के लिए कहते थे।उसके बीमार हालत को भी नही समझा जाता था।धीरे धीरे प्रिया को समझ आने लगा कि पढ़ी लिखी और जॉब करने वाली लड़की से ही शादी की चाहत रखने वालों का अब ये दहेज लेने का दूसरा तरीका बन गया है।शायद यही दहेज के आधुनिक रूप है कि अब लड़की बिना अपना ख्याल रखे बाहर भी कमाए और घर के भी सारे काम करे।


                                                                    *नीरज त्यागी*


#कहाँ गया वो सब्जी वाला.....!

एक बड़े शहर की पॉश कॉलोनी में बनवारी नाम का सब्जी वाला लगातार सब्जियां बेचने के लिए आता था। वह सब्जी वाला काफी समय से यहां पर सब्जियां दे रहा है और उसका संबंध वहां पर सभी लोगों से बहुत अच्छा है यूं तो बनवारी जो सब्जियां लाता है वह काफी अच्छी होती है और उसी हिसाब से उसके रेट भी हमेशा बाकी सब्जी वालों से ज्यादा ही होते हैं,लेकिन लोगों को उसकी कुछ ऐसी आदत है कि लोग इसके अलावा किसी से सब्जी लेना पसंद नहीं करते धीरे धीरे बनवारी से लोगों का मेलजोल इस कदर बढ़ गया कि बनवारी की आदत कुछ लोगों से उधार लेने की हो गई। 500 - 1000 कुछ ऐसी छोटी-छोटी रकम उसने कई लोगों से उधार ले रखी थी।

*नाम - नीरज त्यागी*

अचानक पता नहीं क्या हुआ बनवारी ने कॉलोनी में आना जाना बंद कर दिया।लगभग 2 सप्ताह हुए थे लोग परेशान होने लगे अब उन्हें सब्जी खरीदने के लिए काफी दूर जाना पड़ता है यदि अपने पास ही कोई चीज आसानी से मिल जाती है तो लोग थोड़े पैसों के फर्क की परवाह नहीं करते। बाजार हालांकि ज्यादा दूर नहीं है लेकिन जाना आना में जो समय समाप्त होता है, बनवारी के आने से लोगों को काफी समय बच जाता है अब लोगों को बनवारी की चिंता होने लगी चिंता के भाव अलग-अलग थे,कुछ लोग उसकी चिंता कर रहे थे कि उसने उधार लिया हुआ था।अब बड़े घरों वाले छोटे लोगों की सोच देखिए जनाब जिन लोगों ने बनवारी को ₹500 उधार दिया हुआ था,वो 5000 बताने लगे, और जिन्होंने 1000 उधार दिया हुआ था वह 10000 बताने लगा और अपने अपने कयास सभी लगाने लगे कि बनवारी शायद इसलिए नहीं आ रहा कि वह लोगों के पैसे खा गया है और अब वापस नहीं आएगा धीरे-धीरे समय बीतने लगा और लगभग 6 माह बाद बनवारी एक मिठाई का डब्बा लिए हुए उस कॉलोनी में आया मिठाई के डिब्बे से सभी को मिठाई खिलाने के साथ उसने लोगों से जितने पैसे लिए हुए थे,वो उनको वापस लौटा रहा था और सभी से अपने ना आने की माफी मांग रहा था खैर माफी मांगते हुए बनवारी अपनी एक छोटी सी खुशी सब के साथ शेयर कर रहा था और साथ-साथ यह भी कह रहा था कि मेरा आप लोगों के अलावा है कौन है। आज उसका बेटा पढ़ लिख कर एक सरकारी अधिकारी के रूप में नियुक्त हो चुका है और लगभग 4 माह से उसी लड़के को उसकी पोस्ट पर स्थापित करने की वजह से वह कॉलोनी में समय पर सब्जी बेचने नहीं आ पा रहा था। अब उसका बेटा काफी पैसा कमाने लेगा है, लेकिन उसने ये तय किया कि वह सब्जी बेचना बंद नही करेगा ताकि लोग परेशान ना हों।आखिर इन्ही लोगो ने बुरे वक्त में उसे उधार देकर उसके लड़के को पढ़ने का सहारा दिया था। यहां मैं इस बात को लोगों के सामने इसलिए लाया हूँ कि बड़े बड़े मकानों में रहने वाले छोटी मानसिकता के लोग कई बार छोटे छोटे मकानों में रहने वाले लोगों से कितने नीचे स्तर की सोच रखते हैं।

*संपादन- नीरज त्यागी*

04 September 2018

।। सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन और शिक्षा दिवस ।।


एक शिक्षक का हमारे जीवन में बहुत बड़ा योगदान होता है जैसे माता पिता हमें चलना सिखाते हैं उसी तरह एक शिक्षक हमें जीवन में आगे कदम बढ़ाना सिखाता है भारतवर्ष में 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।उनका विचार था कि

"शिक्षा का परिणाम एक मुक्त रचनात्मक व्यक्ति होना चाहिए जो ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध लड़ सके."

शिक्षक दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म-दिवस के अवसर पर मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन का जन्म दक्षिण मद्रास में लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित तिरुतनी नामक छोटे से कस्बे में 5 सितंबर सन् 1888 को सर्वपल्ली वीरास्वामी के घर पर हुआ था। उनके पिता वीरास्वामी जमींदार की कोर्ट में एक अधीनस्थ राजस्व अधिकारी थे। डॉ. राधाकृष्णन बचपन से ही कर्मनिष्ठ थे।1939 से लेकर 1948 तक वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी. एच. यू.) के कुलपति भी रहे। वे एक दर्शनशास्त्री, भारतीय संस्कृति के संवाहक और आस्थावान हिंदू विचारक थे। सन् 1952 में डॉ. राधाकृष्णन भारत के उपराष्ट्रपति बने। 1954 में उन्हें भारतरत्न की उपाधि से सम्मानित किया गया।डॉ.राधाकृष्णन 1962 में राष्ट्रपति बने तथा इन्हीं के कार्यकाल में चीन तथा पाकिस्तान से युद्ध भी हुआ।1965 में आपको साहित्य अकादेमी की फेलोशिप से विभूषित किया गया तथा 1975 में धर्म दर्शन की प्रगति में योगदान के कारण टेम्पलटन पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।उनका विचार था कि

"हमें मानवता को उन नैतिक जड़ों तक वापस ले जाना चाहिए जहाँ से अनुशासन और स्वतंत्रता दोनों का उद्गम हो."

डॉ. राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है।उनका मानना था कि शिक्षा हमारी हर समस्या का समाधान है। हर व्यक्ति के लिए शिक्षा अनिवार्य है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति को पशु से मनुष्य बनाती है। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के सोच को इस प्रकार बदलना होना चाहिए कि वह प्रजातन्त्र का एक जिम्मेदार नागरिक बन सके। उनके विचार था कि

"ज्ञान हमें शक्ति देता है, प्रेम हमें परिपूर्णता देता है."



आज के समय में भले ही शिक्षक और शिक्षार्थी का संबंध पहले जैसा अच्छा नहीं रहा फिर भी हमें उस संबंध को पहले जैसा बेहतरीन अच्छा करना ही होगा क्योंकि एक शिक्षक ही हमें जीवन के सही मूल्य के बारे में बताता है। शिक्षा की की निजी करण के कारण शिक्षकों का स्वभाव भी बदल गया शिक्षा व्यवसाय बनके रह गया है अंत में मैं यही कहूंगा कि हमें सर्व पल्लवी डॉक्टर राधाकृष्णन जी के विचारों पर चलकर शिक्षा के गौरव को बढ़ाते रहना चाहिए और शिक्षक और शिक्षार्थी के संबंध को और भी अच्छा बनाना चाहिए

अमित डोगरा
पीएचडी स्कॉलर 
हिंदी विभाग
गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर


।।गुरु की महिमा।।

हर मनुष्य के जीवन में एक ऐसा व्यक्ति जरूर होता है जो उसको जीवन के मुल्यों के बारे में समझाता है और आगे बढ़ने के लिए सदा प्रोत्साहित करता है ऐसा व्यक्ति ही हमारा गुरु कहलाता है। जीवन के हर क्षेत्र में हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती है जैसे हमें शिक्षा ग्रहण करनी है तो हमें गुरु के पास जाना पड़ता हैं, कोई काम सीखना हैं तो भी गुरु की आवश्यकता पड़ती है और यदि हमें ईश्वर से मिलना हैं तो भी हमें गुरु से ज्ञान लेना पड़ता  हैं। इसीलिए हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाएं हमें गुरु से जुड़ना ही पड़ता है। गुरु की महिमा आदि काल से  चली आ रही है।श्री गुरु नानक देव जी, कबीर,नामदेव, मीराबाई ,रैदास,जायसी आदि जैसे बहुत सारे हिंदी कवि हैं जिन्होंने गुरु की महिमा का गुणगान किया हैं।

"जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥"

आजकल गुरु के लिए हम बहुत सारे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं जैसे शिक्षक,अध्यापक टीचर इत्यादि। प्राचीन समय में जब हम किसी के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए या वेदों का अध्ययन करने के लिए जाते थे तो उन्हें शिक्षक की जगह गुरु कहा जाता था पर आजकल गुरु शब्द के स्थान पर शिक्षक शब्द का अधिक प्रयोग होता है इसका मुख्य कारण यह है कि पहले जो शिक्षा-दीक्षा होती थी वह मंदिरों में या मस्जिदों में या फिर गुरुद्वारों में होती थी मगर आजकल शिक्षा को इन से बाहर कर अलग संस्थानों में दिया जाता है। पर हम गुरु कहे या शिक्षक, गुरु की महिमा आज भी बनी हुई हैं।

"बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।"



हर साल पुरे भारत के स्कूलों और कॉलेजों में 5 सितम्बर को, हमारे पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस पर उन्हें सम्मान और श्रद्धांजलि देते हुए इस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है।इस दिन स्कूलों और कॉलेजों में पूरे दिन उत्सव-सा माहौल रहता है। दिनभर रंगारंग कार्यक्रम और सम्मान का दौर चलता है। 

समय के साथ-साथ गुरु की महिमा भी कम होती जा रही है गुरु का मान सम्मान आजकल बहुत कम लोग करते हैं जहां तक हम शिक्षा क्षेत्र की बात करें तो वहां पर गुरु शिष्य का संबंध पहले जैसा नहीं रहा न पहले जैसे शिक्षक रहे हैं और न ही शिक्षार्थी रहे हैं।

"गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥"

शिक्षा क्षेत्र के निजीकरण के बाद से शिक्षा एक व्यवसाय का रूप ले चूंकि है इसलिए शिक्षकों के व्यवहार में भी परिवर्तन देखने को मिला है, यही मुख्य कारण है कि शिक्षकों के सम्मान में पिछले कुछ वर्षों में कमी आई है | शिक्षकों के सम्मान में आई कमी के लिए छात्र ही नहीं बल्कि शिक्षक भी समान रुप से दोषी हैं | 
      अंत में अपनी कलम को विराम देते हुए यही कहूंगा कि हमें शिक्षक दिवस के महत्व को समझते हुए गुरु की महिमा को बनाए रखना चाहिए और अपने शिक्षक या अपने गुरु का हमेशा मान सम्मान करना चाहिए। शिक्षकों को भी शिक्षार्थियों के मित्र, परामर्शदाता, निर्देशक एंव नेतृत्वकर्ता की भूमिका अदा करनी चाहिए तो जो गुरु शिष्य का संबंध अटूट बनाया जा सकें।

                    -राजीव डोगरा-
                 कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश


01 September 2018

।।प्रेरणादायी है कान्हा का जीवन।।


हिंदुओ की आस्था का पर्व: जन्माष्टमी
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 भारत वर्ष में जन्माष्टमी का त्यौहार बड़ी आस्था एवं उल्लास से मनाया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार पृथ्वी पर जब-जब भी पापियों के  अत्याचार बढ़े हैं,तब पापियों का नाश करने के लिए भगवान ने पृथ्वी पर जन्म लिया है ।मथुरा के राजा कंस के अत्याचारों से मुक्त करने के लिए भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया ।और भाद्रपद में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण के रूप में अवतरित हुवे।इसलिए जन्मोत्सव के रूप में जन्माष्टमी का त्यौहार बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाती है। 



 देवकी और वासुदेव के आठवें पुत्र के रुप में श्री कृष्ण ने जन्म लिया, उस समय मथुरा के राजा कंस थे। जिसकी अत्याचारों से प्रजा काफी त्रस्त थी। कंस को  एक बार आकाशवाणी हुई कि उसकी बहन देवकी की आठवीं संतान उसका वध करेगी ।यह जानकर कंस ने अपनी बहन देवकी और उसके पति वासुदेव को काल कोठरी में बंद कर दिया ।कंस ने देवकी के 7 बच्चों को  तो मार डाला था।उधर  भगवान विष्णु ने वासुदेव जी को कहा कि श्री कृष्ण को गोकुल में यशोदा माता और नंद बाबा के पास पहुंचा दो। कृष्ण को कोई खतरा नहीं होगा और मामा कंस  से भी सुरक्षित रहेगा।श्री कृष्ण का पालन पोषण यशोदा माता और नंद बाबा ने किया तभी से प्रतिवर्ष जन्माष्टमी  त्योहार पर गोकुल में विशेष आयोजन होते है। जन्माष्टमी  पर पूरा गोकुल श्रीकृष्ण की भक्ति के रंग में सरोबार रहता है। गोकुल में जन्माष्टमी विशेष तौर पर खास मानी जाती है क्योंकि वहां श्री कृष्ण भगवान का गोकुल की गलियों और रास्तों में आज भी उनका एहसास होता है। 

मथुरा में भी जन्माष्टमी का भव्य आयोजन किये जाते है।
जन्माष्टमी पर दूर दूर से श्रद्धालु मथुरा,व्रन्दावन जाते है।

 जन्माष्टमी के त्योहार की तैयारियां रक्षाबंधन के बाद से ही शुरू हो जाती है ।मंदिरों में रंग-रोगन विभिन्न तरह के फूलों की सजावट , रंग बिरंगी लाइटों से मंदिरो को दुल्हन की तरह सजाया जाने लगता है ।मंदिरो  में बहुत ही सुंदर  और अलौकिक झांकियां सजाई जाती है ।श्री कृष्ण भगवान की रासलीलाओ का मंचन किया जाता है ।कान्हा जी को झूले में सुलाया जाता है।श्रद्धालुओ द्वारा कान्हा जी को झूला झुलाया जाता है।श्री कृष्ण जी की मूर्ति का अलौकिक श्रृंगार किया जाता है। माखन मिश्री का भोग लगाया जाता है।

दही -हांडी फोड़ प्रतियोगिता
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देश भर में युवाओं के समूह द्वारा मौहल्ले में,मुख्य बाजारों में दही  हांडी फोड़ने की प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती है।और मटकी फोड़ने वाले को पुरुस्कार भी दिया जाता है। दही मटकी की भिन्न  भिन्न रूप में प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती है।युवाओं में उत्साह देखने को होता है। जन्माष्टमी का व्रत स्त्री और पुरुष दोनों ही बड़े आस्था श्रद्धा से करते हैं ।सुबह स्नान करके कान्हा जी की पूजा की जाती है। इस व्रत में पूरे दिन का उपवास  होता है ।रात को 12:00 बजे बाद में प्रशाद लेकर उपवास  खोला जाता है।


लेखकः- शम्भू पंवार





कौमी एकता की जीवंत मिसाल:नरहड़ दगाह शरीफ

जन्माष्टमी पर लगता है विशाल मेला..। राजस्थान के झुन्झुनू जिले के चिड़ावा शहर से 7 कि. मी. दूरी पर स्थित साम्प्रदायिक  सदभाव का  प्रतीक  धार्मिक स्थल नरहड़ है।नरहड़  में हजरत शक्करबार की दरगाह है ।अजमेर के गरीब नवाज ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह को सूफियों का बादशाह कहा गया है उसी प्रकार नरहड़ पीर बाबा की दरगाह को बागड़ की धनि कहा गया है, क्योंकि पीर बाबा अजमेर पहुंचने से पहले यहां आ गए थे ।नरहड़ के बाबा हजरत शकरवार की दरगाह सांप्रदायिक सदभाव एवं कौमी एकता की  जीवंत मिसाल  है।इस दरगाह में हिंदू ,मुस्लिम ,सिख, ईसाई सभी धर्म के लोग मंनोति  लेकर आते हैं और पूरी होने पर मजार पर प्रशाद व चादर चढ़ाते हैं ।सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हर वर्ष श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर रूहानी बादशाह के दरबार पर यहां विशाल मेला लगता है।" हिंदू मुस्लिम भाई-भाई यही कहता है नरहड़ का हर नर-नारी।इस अटूट प्रेम व स्नेह की मिसाल संभवतः अन्यत्र  ही कहीं देखने को मिले। यह भी संप्रदाय सद्भावना की मिसाल है की  श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर इस पवित्र स्थली पर 3 दिवसीय  मेला लगता है ।
मजार शरीफ जाने से पहले तीन दरवाजे हैं , पहला बुलंद दरवाजा ,दूसरा बसन्ती दरवाजा,तीसरा बंगली  दरवाजा है। इसके बाद शरीफ की मजार चिकनी मिट्टी से बनी हुई जिसमें पत्थर नही लगाया हुआ है ।ै ऐसी मान्यता है कि कभी इस गुम्बन्द से शक्कर बरसती थी,इसलिए पीर बाबा को शक्करबार के नाम से भी जाना जाता है। दरगाह के मुख्य द्वार के आगे चौक में मस्तिष्क प्रेत आत्मा की शिकार महिलाएं व पुरुषं काफी  संख्या में रहते हैं।ओर  सभी अपने शरीर पर मिट्टी मलते है।। कहा जाता है कि संदल कि इस मिट्टी को मलने से प्रेत आत्मा का साया होता है तो वो हट जाता है।
नरहड़ दगाह शरीफ

 दगाह परिसर में एक जाल का विशाल पेड़ है।जिस पर आने वाले जायरीन अपनी मन्नत की डोरी बांधते है।ऐसा माना जाता है कि इस पेड़ के डोरी बांधने से  मन की मुराद पूरी होती है।और मन्नत पूरी होने पर बाबा के प्रसाद और चादर चढ़ाते है।दरगाह के तीन और मुसाफिर खाने बने है,एक तरफ पीर बाबा के साथियों की मजार है।जिसे "धरसो वालो की मजार" भी कहा जाता है।यहां महिलाओ का प्रवेश नही है।
शेखावाटी के वयोवद्ध साहित्यकार सालिक अजीजी ने अपनी पुस्तक हाजिबुलहरम में एक अफगानी संदर्भ के साथ लिखा है कि सन 1451 ई. में  सम्राट लोधी ने दिलावर खान नागड़ को एक फौजी दस्ते के साथ लडने को  भेजा, लेकिन जंग में सफलता नहीं मिली। अफगानी सरदार ने अपने सपने में किसी बुजुर्ग को यह कहते  देखा कि फला टीले के नीचे मजार है।  उसे खोद कर निकाला ओर  उसी से प्रेरणा लेकर युद्ध किया और ऐसा करने पर अफगानी सरदार सफल हुए ।उन्होंने टीले की खुदाई से निकले हाजी शक्करवार के रोजे की हिफाजत का काम भी किया।यही हजरत हाजिब शक्करवार बाबा नरहड़ दरगाह के पीर है।बाबा का जन्म 579ई०  या 589 हि ०  का है।
नरहड़ दरगाह पर वर्ष में 2 उत्सव होते है।प्रति वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर 3 दिवसीय मेला बड़े उत्साह से भरता है।तथा इस्लामी महीने रजब की 25 ओर 26  तारीख को सालाना उर्स मनाया जाता है।इन दोनों उत्सवों पर राजस्थान,मध्यप्रेदश, महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली राज्यो से हिन्दू ,मुस्लिम दोनों सम्प्रदाय के जायरीन बाबा के दरबार मे आते है।
इस अवसर पर दरगाह परिसर को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कई हिन्दू परिवार यहां अपने नवजात शिशु के मुंडन संस्कार करते है।हिन्दू महिलाएं थाली में पूजा की सामग्री सजाकर अपनी परंपरागत शैली में पूजा करती है तो मुस्लिम जायरीन अपनी परम्पराओ के अनुसार इबादत करती है।
दरगाह का इंतजाम राजस्थान वक्फ बोर्ड के अधीन है।बोर्ड की ओर से एक इंतजामिया कमेटी  बनाई गई है।कमेटी दरगाह की पूरी व्यवस्था देखती है।15 एकड़ में दरगाह कमेटी द्वारा संचालित धर्मशाला,सार्वजनिक कुएं,दुकाने तथा भोजन के लिए सुविधाएं फैली हुवी है। जिला प्रशासन द्वारा भी एतिहात के तौर पर पूरी व्यवस्था पर नजर लगाए रखते है।


।।लेखकः शम्भू पंवार।।