साहित्य चक्र

06 December 2022

व्यंग्य कविताः हाजिरी




अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है 

शासकीय कर्मचारी हूं निजी काम बहुत रहते हैं 
चालू ऑफिस में छुट्टी करता हूं सेटिंग है 
मशीन में अंगूठा भी लगता है डिजिटल है 
अप्सेंट रहता हूं पर हाजरी लगती है 

टेबल पर जानबूझकर फाइलें फैला देता हूं 
बाजू वाला बोल देता है बाबू राउंडपर हैं 
रोब जमानें कहता हूं साहब की केबिन में हूं 
अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है 

घर के बहुत अर्जेंट काम रहते हैं 
रिश्तेदारी में भी आनाजाना लगा रहता है 
हम सब हमाम में वो हैं सेटिंग चलती है  
अप्सेंट रहता हूं पर हाजरी लगती है 

मैं अकेला नहीं सब करतेहैं सेटिंग चलती है 
साहब ख़ुद भी करते हैं झूठे राउंड चलते हैं 
किसी को पता नहीं चलता सब समझते हैं 
अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है 

सरप्राइस चेकिंग में टांग भी फंसती है 
फ़िर भी धीरे से सेटिंग होती है 
जनता को दिखाने बोगस केस होते हैं 
अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है

- किशन सनमुख़दास भावनानी


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