साहित्य चक्र

06 December 2022

कविताः जज़्बातों के घरोंदे

  

इन बूंदों को पकड़ कर रो लूँ,     
जी चाहता है कि तेरी यादों  से,
मैं भी आज,लिपट कर रो लु ,
दामन तेरा मुक़द्दर में नहीं , 
मुक़द्दर से लिपट कर रो लु ,
जाम पीना हां मेरी फ़ितरत में ,
बता कहाँ था शामिल , 
दिल मे आता है कि आज , 
साक़ी से लिपट कर रो लुं , 
तेरी जुल्फ़ों की घटाओं में , 
मैं भी कभी ठहरा था , 
आज बारिश , की इन बूंदों को ,
मैं भी पकड़ कर , रो लुं ,
आ भी जा के दो पल के लिए , 
ही मेरी आँखों मे समा जा , 
सुरमई शाम है मगर , तन्हा , 
तन्हाइयों से लिपट कर रो लुं , 
जाने वाले मेरी आहों की तपिश ,
तुझको हाँ , जला ही देगी , 
मैं भी पागल हुँ तेरी गर्द व , 
गुबार से , ही लिपट कर रो लूं , 
तू आता तो मैं अपने दिल को , 
तेरी राहों में बिछा ही देता , 
जुदाई और तन्हाई है मेरी , 
खुद ही ख़ुद में सिमट कर रो लु ,
मजबूर हूँ नाखुदाओं का सहारा , 
मगर दरकार नहीं मुझे " मुश्ताक़ " 
नादान मैं भी नहीं हूँ कि , राह के ,
मुसाफ़िर । से ही लिपट कर तो लूँ ,


                          डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह


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