इन बूंदों को पकड़ कर रो लूँ,
जी चाहता है कि तेरी यादों से,
मैं भी आज,लिपट कर रो लु ,
दामन तेरा मुक़द्दर में नहीं ,
मुक़द्दर से लिपट कर रो लु ,
जाम पीना हां मेरी फ़ितरत में ,
बता कहाँ था शामिल ,
दिल मे आता है कि आज ,
साक़ी से लिपट कर रो लुं ,
तेरी जुल्फ़ों की घटाओं में ,
मैं भी कभी ठहरा था ,
आज बारिश , की इन बूंदों को ,
मैं भी पकड़ कर , रो लुं ,
आ भी जा के दो पल के लिए ,
ही मेरी आँखों मे समा जा ,
सुरमई शाम है मगर , तन्हा ,
तन्हाइयों से लिपट कर रो लुं ,
जाने वाले मेरी आहों की तपिश ,
तुझको हाँ , जला ही देगी ,
मैं भी पागल हुँ तेरी गर्द व ,
गुबार से , ही लिपट कर रो लूं ,
तू आता तो मैं अपने दिल को ,
तेरी राहों में बिछा ही देता ,
जुदाई और तन्हाई है मेरी ,
खुद ही ख़ुद में सिमट कर रो लु ,
मजबूर हूँ नाखुदाओं का सहारा ,
मगर दरकार नहीं मुझे " मुश्ताक़ "
नादान मैं भी नहीं हूँ कि , राह के ,
मुसाफ़िर । से ही लिपट कर तो लूँ ,
डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह
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