शौक़ से सुनिये क़िस्सा मेरी मुहब्ब्त का,
साक़ी तेरी बात से हम इत्तफ़ाक रखते हैं,
क़सम नहीं थी, हम तो मज़ाक़ करते हैं,
सरे महफ़िल कर गया वो इशारा मुझको ,
हाय करने लगे कहा,तूझसे प्यार करते हैं,
शौक़ से सुनिये क़िस्सा मेरी मुहब्ब्त का,
क्या आप भी गिरेबां को चाक़ करते हैं,
न रही शाख न वो गुलशन ही रहा अपना ,
बाक़ी है ज़िन्दगी उसको खाकर करते हैं,
ए बर्क क्या रहा बाक़ी,जो तु जलाने आई,
लौट जा मुश्ताक़ आख़िर सलाम करते हैं,
डॉ . मुश्ताक अहमद शाह
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