साहित्य चक्र

21 December 2022

कविताः बेमंजिल

ये बेमंजिल राह मेरी

कविताः बेमंजिल


 सिमटे हैं हर सपने सहमकर,
कोने में जिंदगी के कहीं.
कुछ पेड़, कुछ झाड़, कस्बे और घाटियां,
हैं यही सब अब हमसाये मेरे.
ले जाएगी कहां मालूम नहीं,
ये बेमंजिल राह मेरी.

धुंधले पड़ चुके अरमां दिलों में,
आस क्या है आगे क्या खबर ?
ये धूप, ये छांव, बदलते हर मौसम के चाल,
बस यही हैं अब रोज़मर्रा के अफसाने मेरे.
अंजाम क्या है बेखबर इससे,
ये बेमंजिल राह मेरी.

बंध चुकी सी ज़िन्दगी,
ख़ामोश सड़क के दो छोरों पर.
सादी पट्टियां, ये डिवाइडर, और होड़ रफ्तार की,
अब यही तो हैं जीने के मायने मेरे.
शायद रुख बदले कभी कायम है उम्मीद,
पर फिलवक्त तो उलझी ही है खुद में,
ये बेमंजिल राह मेरी.... 

ये बेमंजिल राह मेरी....


                                        कवि- कुणाल


No comments:

Post a Comment