जिस पल तुम मुझे
बुद्ध जानोगे
मैं तुम्हें क्रोध में
किसी पर युद्ध में
लड़ती नज़र आ जाऊंगी
जिस पल तुम मुझे
मेरी अमीरी में जानोगे
तुम्हारी नज़र
मेरे घिसे हुए जूते पर
पड़ जाएगी
जिसे मैंने जानकर
सालों से न बदला
कि उन्हें भी दूर तक
चलना चाहिए
जिस पल में तुम
मुझे प्रेमी जानोगे
तुम देख पाओगे
मैं इंसानों के बीच
रहकर भी
ईश्वर की मित्र
प्रेमिका बनी रही
मैं दोष पूर्ण
प्रेम करती रही
मेरी मासूमियत पर
नफरत की बोली
लगती रही
जिस पल तुम मुझे
अंधा समझोगे
तुम देख पाओगे मुझे
किसी और की
आंखों के अभाव में
उसे दृष्टि देते हुए
तुम जिस दिन मुझे
वाचाल समझोगे
तुम मेरे मौन और
शून्यता में बैठे
मेरे अर्थों को
सुनकर रो पड़ोगे
तुम्हें शायद
घिन आ जाए
मेरे किए गए कृत्यों पर
जिन्होंने मुझे
अनगिनत अंधकार दिए
मगर तुम देख न पाओगे
वो प्रकाश भी
जो ईश्वर से था
आकाश भर था
मगर रहा मुझ में
ईश्वर सा फैला हुआ
चारों ओर
मेरी शून्यता ही
मेरी दोस्त रही
न मुझे कुर्सी से
न जीवन से
ना ही मृत्यु की
खोज रही
मैं तो ढूंढ सकी
खुद को तब
जब निर्विचार रह
अपनी बुद्धि में
मैं बस मैं रही
एक अनंत खोज रही
लेखिका- प्रशस्ति पाठक
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