।। पहली कविता ।।
हक़ की बातें न करूं मैं सच्चाई से दूर हो जाऊं,
अपने ज़मीर से लड़लुं,कोई अखबार हो जाऊं,
मेरे दिल को हो गया भरम कि मैं फरिश्ता हूं,
मगर डर लगता है ज़माने,से इंसान हो जाऊं,
तिजारत का है बाज़ार,हर चीज़ यहां है सस्ती,
ज़माने के साथ चलूं ईश्क़ का बाज़ार हो जाऊं,
उससे है गर मुहब्ब्त तुझको तो सोचना क्या है,
बेहतर है कि बस उसका ही तलबगार हो जाऊं,
गल्तियां मेरी नहीं हैं फ़िर भी अब बहुत सोचूं,
बड़ा हुं घर का अब मैं ही समझदार हो जाऊं,
ईश्क़ के सभी रिश्ते यहां कच्चे धागों से बंधे हैं,
मैंभी इस खेल का मुश्ताक़,फ़नकार हो जाऊं।
।। दूसरी कविता ।।
खुशबू जैसे लोग कहां मिलते हैं ...
मुद्दतें गुजरीं एक लम्हा नहीं गुजरा.
चला गया वो रेत पर घरोंदेबनाकर.
वो बिछड़ा तो मैं किसी दर का न रहा।
चला गया मुझे ख्वाब झूठे दिखा कर।
पतझड़ की तरह बना देते हैं मौसम।
चले जाते हैं यह दरखतों को हिला कर।
दर्द की शिद्दत में छिपी होती है मुहब्बत।
दिल धड़कता रहता है उनकी अदा पर।
तुम कहीं भी रहो निगाहों में ही रहोगे।
हम जी नहीं सकते हैं तुम को भुला कर।
खुशबू जैसे लोग कहां मिलते हैं मुश्ताक।
एक खत रखा है मैंने किताबों में छुपा कर।
।। तीसरी कविता ।।
काजल आंखों में तूलगाया कर।
जुल्फों को हटा ले चेहरे से।
चांदनी को भी शरमाया कर।
वादा करना तो कोई बात नहीं।
वादों को शिद्दत से निभाया कर।
नजरों में जमाने की तू नहीं रहना,
मेरी पलको में छुप के बैठ जायाकर।
जब कभी साथ चलना हो।
सारी दुनिया को भूल जाया कर।
ना उम्मीदी कुफ्र है क्या नहीं मालूम ,
हाथ भी दुआ के लिए उठाया कर।
चाहने वाला है ये पागल मुश्ताक,
दीवाने को इस तरह न सताया कर।
कभी दिन का भी रात तु कर दे।
काजल आंखों में तूलगाया कर।
बहुत प्यास है ला पिला दे आंखों से।
कभी होंठोसे होंठ भी लगाया कर।
छत पे आजाऊं तेरी डर लगता है।
दुपट्टा हवाओं में तू उड़ाया कर।
।। चौथी कविता ।।
याद आयेंगे लम्हात बहुत
मालुम न था के आँखों से होगी कभी बरसात बहुत,
वो रुठ गया, पता न था, याद आयेंगे लम्हात बहुत,
अनजान राहों के थे मुसाफिर कभी मैं भी तुम भी,
चलते चलते राह में आगये जुदाई के तूफ़ान बहुत,
सदाएँ हर तरफ अब भी तेरी सुनाई देती हैं, मुझे,
बेगाना मैं, इस तरह बह जाएंगे मेरे अरमान बहुत,
मुहब्बत के चराग़ अचानक जल उठे दीदार जे तेरे,
फ़िर सफ़र ज़िंदगी का क्यूं होगया सुनसान बहुत,
ढूंढा ,किया तलाश गली गली आवाज़ भी दी तुझको,
तुझसा न मिला इंसान ,लोग थे यहाँ "मुश्ताक़" बहुत,
।। पांचवी कविता ।।
सफ़ा ,दिल से निकाल दूं,,,,,,,
अपने अहसास के पैरों में
एक ज़ंजीर डाल दूं,
शिकवा तो है आंखों से
कुछलहू तो निकाल दूं,
नया दौर है नया ज़माना
है रूदाद सुनेगा कौन,
अदब तहज़ीब का ये
सफ़ा ,दिल से निकाल दूं,
मुझसे पूछो न तुम मेरे
माज़ी कोइ भी तज़किरा,
पहले मैं अपने दोस्तों की
फेहरिस्त निकाल लूं,
सच बड़ा ख़ौफ़ ज़दा हूं ,
मैं अपनों से आजकल,
इंतेज़ार थोड़ा सा ,कश्ती
भंवर से तो निकल लूँ,
रूबरू कभी आएं मेरे
इतनी जसारत भी नहीं,
अहसानों का हर वर्क़
" मुश्ताक़" दरिया में डाल दूं।
- डॉ . मुश्ताक अहमद शाह
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