साहित्य चक्र

06 December 2022

कविताः मुसाफिर





चल उठ ! खड़ा हो, क्या सोच रहा मुसाफिर
चलना तेरी नियती, रुकना तेरी हार मुसाफिर

लोगों की बातें दिल पर लेकर
मन उदास क्यों कर जाता है
मुड़ मुड़ कर पीछे देखता
सामने मंजिल को क्यों भुलाता है

विशाल हृदय, मन समंदर तेरा
आंखों में सारा आसमान है
चौराहे पर खड़ा होकर तू
क्यों मन का भूगोल भुलाता है

चल उठ! खड़ा हो , क्या सोच रहा मुसाफिर
चलना तेरी नियति , रुकना तेरी हार मुसाफिर

पैरों की बेड़ियां तोड़ दे
लहूलुहान छालों से आगाज कर
मंजिल तेरे कदमों में होगी
एक बार तो हुँकार कर

अर्जुन सा लक्ष्य बना कर
अपने पथ पर बढ़ता जा
पहाड़ों से टकरा जा तू
सैलाबो से हाथ मिला

चल उठ! खड़ा हो, क्या सोच रहा मुसाफिर
चलना तेरी नियति, रुकना तेरी हार मुसाफिर

पग पग पर कांटे होंगे
रात में जुगनूओ के उजाले होंगे
अपना सूरज खुद तलाश कर तू
तेरे पीछे अनगिनत कारवां होंगे

तू बस चलता जा, चलता जा
अपने पथ पर, बढ़ता जा
खुली आंखों से देखे जो तूने सपने
अपने सपनों को साकार करता जा

चल उठ! खड़ा हो, क्या सोच रहा मुसाफिर
चलना तेरी नियती, रुकना तेरी हार मुसाफिर


- कमल राठौर साहिल


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