साहित्य चक्र

19 December 2022

सुधा उपाध्याय की कविताएँ




1. औरत

औरत
तूने कभी सोचा है
जिस परिधि ने तुझको घेर रखा है
उसकी केंद्र बिंदु तो तू ही है
तू कहे अनकहे का हिसाब मत रख
किए न किए कि शिकायत भी मत कर
तू धरा है धारण कर
दरक मत
तू परिधि से नहीं
परिधि तुझसे है

 

2. चिल्लर

समेट रही हूं
लंबे अरसे से
उन बड़ी-बड़ी बातों को
जिन्हें मेरे आत्मीयजनों
ठुकरा दिया छोटा कहकर।
डाल रही हूं गुल्लक में
इसी उम्मीद से
क्या पता एक दिन
यही छोटी-छोटी बातें
बड़ा साथ दे जाए
गाहे बगाहे चोरी चुपके
उन्हें खनखनाकर तसल्ली कर लेती हूं कि
जब कोई नहीं होगा आसपास
तब यही चिल्लर काम आएंगे।

 

3. टोपी भाग्य विधाता

धन धन धन अधिनायक जय हे
टोपी भाग्य विधाता …
यही स्वर अब सब जगह गूँजेगा
क्योंकि गली नुक्कड़ चौराहों पर बिक रही हैं टोपियाँ
न बेचने वालों को इसका मोल पता है
न ही खरीदने वालों को इसका भाव
फिर भी टोपियाँ पहनी ही नहीं पहनाई भी जा रही हैं
अब देशभक्त पैदा ही कहाँ होते हैं
इसलिए टोपी पहनकर बनाये जा रहे हैं देशभक्त
सब लाचार हैं इन्हीं टोपियों के तले
और भूलते जा रहे हैं राष्ट्रगीत
देश समय समाज भूलकर गाओ मेरे साथ
धन धन धन अधिनायक जय हे
टोपी भाग्य विधाता।

 

4. सच की हत्या

अब जबकि
हर बात के निकाले जाते हैं
कई मायने
हर बात के पीछे मंशा
और आगे जोड़ा जाता है स्वार्थ
ऐसे में कठिन है कही गई बात का
वैसे ही स्वीकृत होना,
हालात के साथ
आदमी बने रहना,
और सच के तमाम प्रयोगों पर
लंबी दूरी तक चल
एक समय ऐसा आएगा
मेरे बच्चे ही
गलत को सही समझना
समय की ज़रूरत बताएँगे।

 

5. मृगमरीचिका

महत्वाकांक्षाएँ
कर देती हैं आत्मकेंद्रित
मार देती हैं भीतर की सद्भावना
दुख सुख भी सहज होकर नहीं बाँट पाते
मृगमरीचिका सी स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ते
छूट जाते हैं बचपन के संगी साथी
जवानी का घर परिवार
बुढ़ापे में बाल बच्चे।
गहरी यंत्रणा की इन घड़ियों में
बदहवास भागते
हम समझ ही नहीं पाते
इस महत्वाकांक्षा को पालने पोसने में
हमें किस-किस की बलि चढ़ानी पड़ी।

 

6. हँसिए की धार

बहुत हो चुका कागज कलम का खेल
बहुत बैठाई हमने जुबानी कठबैती
बहुत सारी क्रांतियाँ तो कहासुनी में हो गई दफन
अब पेंसिलों की धार बनाने से पहले
हँसिए की धार बनानी होगी
दिमाग चलाने के साथ, चलाने होंगे हाथ
दूसरों को कहने से पहले
अब दिखाना होगा खुद करके।

 

7. बंधन

कई महीन धागों से बँधा है
जीवन
बचपन, संस्कार, परिवर्तन, परिपक्वता
और इन सबसे कहीं बढ़कर
खुद को टटोलने की अदम्य इच्छा
जब-जब खोजने निकलती है।
वह खुद को
बार-बार उलझती है उन्हीं धागों में
बेटी, बहन, पत्नी और माँ के
महीन धागे आपस में उलझे हैं
सुलझाने की कोशिश में
टूटने लगते हैं
क्या कभी वह खोज पाएगी
उस औरत को
जो इन बंधनों से अलग है।

 

8. कलातंत्र और लोक

अन्ना अफसोस है मुझे
तुम्हारी आवाज़ में आवाज़ शामिल नहीं कर पाया
आज़ादी की तुम्हारी दूसरी लड़ाई में
मैं ताउम्र जूझता रहा
आज़ादी की पहली लड़ाई में
उलझा रहा कलातंत्र और लोक को समझने में
पार पाना चाहा
डाल दिया मकबूल पर दलदल
जितना उठता उससे ज्यादा धँसता गया
और मैं फिदा हो गया
हुसैन नाउम्मीद नहीं हुआ
आज़ादी को लेकर।

 

9. क्यों करती हो वाद-विवाद

क्यों करती हो वाद-विवाद
बैठती हो स्त्री विमर्श लेकर
जबकि लुभाते हैं तुम्हें
पुरुषतंत्र के सारे सौंदर्य उपमान
सौंदर्य प्रसाधन, सौंदर्य सूचक संबोधन
जबकि वे क्षीण करते हैं
तुम्हारे स्त्रीत्व को
हत्यारे हैं भीतरी सुंदरता के
घातक हैं प्रतिशोध के लिए।
फिर क्यों करती हो वाद-विवाद।

 

10.आभार

उन सबका आभार
जिनके नागपाश में बंधते ही
यातना ने मुझे रचनात्मक बनाया।
आभार उनका भी
जिनकी कुटिल चालें
चक्रव्यूह ने मुझे जमाने का चलन सीखाया।
उनका भी ह्दय से आभार
जिनके घात प्रतिघात
छल छद्म के संसार में
मैं घंटे की तरह बजती रही।
मेरे आत्मीय शत्रु
तुमने तो वह सबकुछ दिया
जो मेरे अपने भी न दे सके।
तुम्हारे असहयोग ने
धीमे-धीमे ही सही
मेरे भीतर के कायर को मार दिया।


                                     लेखिका- सुधा उपाध्याय


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