साहित्य चक्र

16 December 2022

कविताः पिता




जब अपना करने जाता हूँ,
कुछ सोच कर में रूक जाता हूँ।

कुछ जिम्मेदारियो के बोझ तले,
अब हँस कर मैं दब जाता हूँ।

बच्चे जब मेरे खुश होते,
तब में भी खुश हो जाता हूँ।

जब सो जाते वो बे फिकरे,
तो चैन से में सो जाता हूँ।

जब खेले वो और चोट लगे,
मैं भी खुद में रो जाता हूँ।

जब काम करे वो कुछ अच्छा,
में सूर्य सा उदय हो जाता हूँ।

मुड़ कर देखु जब में पिछे,
बच्चों को अपने पाता हूँ।

उनके बचपन में मै भी अब,
अपना बचपन जी जाता हूँ।


- विपिन कुमार

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