साहित्य चक्र

31 July 2021

सच्ची मित्रता


        


कृष्ण - सुदामा  जैसे  मेरे मित्र
पग-पग पर साथ निभाते मित्र ।
महकतें आदर्श जिनके सर्वत्र 
सार्थक भाव का लगाकर इत्र ॥


दोस्ती है तो  जिंदगी  है  पवित्र
रब  की  ऐसी   बंदगी  है  मित्र ।
सुख  और   दुःख  का   साथी
अंधेरे मे उजाले की बाती मित्र ।।


पढ लेना मन की किताब मित्र
मित्रता महकता गुलाब विचित्र । 
मित्रता का खजाना बेशुमार है,
जिंदगी में उपहार है सच्चा मित्र ।।


मित्रता को तोड़ न पाएं  कोई तंत्र 
ऐसा है सच्ची मित्रता का महामंत्र ।
बनाओं जीवन में खुशीयों के चित्र
ईश्वर भी कहें, बनें सबके ऐसे मित्र ॥

         
                                      गोपाल कौशल


हाइकू



आँख मलती
जग रही बिटिया
मुँह बनाती।

ठप्प दुकान
नहीं कोई ग्राहक
बुरा समय।

गलियाँ तंग
आवाजाही हो रही
चुभे दीवार।

मकान छोटा
मोटे पतले लोग
विवश खड़े।

बारिश हुई
टपक रही छत
तनता छाता।

बुजुर्ग बैठे
भूली बिसरी यादें
पुरानी बातें।
अशोक बाबू माहौर


मेरी रचना मेरा सृजन




मेरा सृजन, मेरे अल्फ़ाज़
मेरी रचना, मेरी सोच
तुम्हारे मनोरंजन के लिए नही है।

मेरी दुकान पे तुम्हे,
हँसी का ठहाका नही मिलेगा।

में लतीफ़ों का व्यापार 
नही करता।

मेरा सृजन बदलाव का है।
मेरा सृजन मंथन का है।

अगर मेरे अल्फाज़ो के 
फूलों की महक,
तुम्हे रोमांचित कर जाए 
तो तुम्हारा स्वागत है ।

मेरे सृजन की माला पहन कर
 अगर तुम बदलाव कर पाओ तो,
  तुम्हारा स्वागत है ।

मेरा सृजन ना भूत का,
ना  भविष्य के सुनहरे सपनो का,
मैं तुम्हें मुंगेरीलाल के सपने भी 
नहीं दिखा पाऊंगा,
 ना शेखचिल्ली की तरह 
सपनों में जीना सिखाऊंगा।

मेरा सर्जन तो वर्तमान का है।
आज के यथार्थ का है।
 सच तो यही है।
 जो आज है वही सत्य है।

                                    कमल राठौर साहिल


प्रकृति संग जीना छोड़ दिया


वो बचपन का सावन 
न जाने कहाँ खो गया
देखते ही देखते यह 
क्या अब हो गया

संस्कृति और संस्कारों की अब 
किसी को क्या है पड़ी
मानवता देखो आज
चौराहे पर है खड़ी

जिधर नज़र दौड़ाओ
अंधेरा नज़र आता है
कुछ देखने की कोशिश 
करते करते मन डर जाता है

आधुनिकता की इस दौड़ में
सबको अपनी अपनी है पड़ी
थोड़ी से काम नहीं चलता 
ज़रूरतें हो गई सब की बड़ी

पेड़ वो पुराने काट दिए 
नहीं रहे अब आंगन और द्वार
शहरों में बना ली गगनचुम्बी इमारते 
छोड़ दिये गांव के घर बार

कुएं बावड़ियों में नहीं है पानी 
सबके घर घर लग गए नल
शोपीस बन कर रह गए हैं 
आता नहीं हैं उनमें जल

सावन के झूले भी अब दिखाई नहीं देते
जहां नई नवेली दुल्हने झूला झूलती थी
अल्हड़ हंसी चूड़ियों की खनखनाहट और 
पायल की झंकार से पूरी वादियां गूंजती थी

पनघट के रास्ते भी हैं अब वीरान
कोई नहीं जाता पड़े हैं सुनसान 
वो पगडंडियां जिनपे चलती थी दुनियाँ
आज उनके मिट गए है नामों निशान

पर्यावरण को दूषित कर दिया बहुत
आदमी ने प्रकृति को कर दिया है नष्ट
प्रकृति संग जीना अब छोड़ दिया सबने
आदमी हो गया है अब कितना भ्रष्ट


                                     रवींद्र कुमार शर्मा


* धरती माँ *




माँ सी प्यारी धरा हमारी,
हमको है प्राणों से प्यारी।
देवों ने मिल इसे रचाया,
वन-उपवन से इसे सजाया।।

देखो कितनी लगती न्यारी,
देती सुख-सुविधा है सारी।
नित्य उठ हम करें अभिनंदन,
मस्तक झुका करें हम वंदन।।

कितना सुंदर, कितना प्यारा,
ऋषि-मुनियों ने इसे सँवारा।
चौदह - रत्न यहाँ से पाया,
देवों ने यहाँ घर बनाया।।

द्यौ से प्यारी धरा हमारी,
इसकी माटी है गुणकारी।
रामचंद्र जब वन में आए,
इसके रज से तिलक लगाए।।


                               कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'


भूखे के हिस्से की रोटी




मैं देखता हूं बहुत बार
अपनी छोटी सी बिटिया को
खाना खाते हुए,
साथ में अपनी प्यारी गुड़िया को भी
खिलाने की कोशिश करते हुए,
पानी पीते हुए उसको भी
पानी पिलाने की कोशिश करते हुए,
सोते हुए उसको भी
साथ में सुलाते हुए,
यहां तक कि अपनी मां का दूध पीते हुए भी
उसको दूध पिलाने की कोशिश करते हुए,

फिर देखता हूं दुनिया में
बहुत सारे लोगों को भूख से मरते हुए,
रोटी के चंद टुकड़ों की खातिर
एक-दूसरे की जान का दुश्मन बनते हुए,
पापी पेट की खातिर 
गलत धंधों में कई बार उतरते हुए,
दो जून की रोटी परिवार के जुटाने की खातिर
दिन-रात खून पसीना एक करते हुए,

तो सोचता हूं
कि काश सारी दुनिया बच्चों की तरह 
अबोध होती,
तो कम से कम भूख किसी की मौत का
कारण न होती,
न इकट्ठा करके रखते बहुत लोग
जरूरत से ज्यादा
तो हरेक के पास होती उसके हिस्से की रोटी।


                                         जितेन्द्र 'कबीर'


रानी अवंतीबाई




१८५७ के विप्लव में अहम भूमिका को निभाना है।
रामगढ़ राज्य की संपूर्ण जिम्मेदारी को उठाना है।

ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता संग्राम को लड़ना है।
आजादी की खातिर चैन की नींद को त्यागना है।

गांव-गांव जाकर क्रांति की कथा को सुनाना है।
राजा-महाराजाओं को एकता के पाठ को पढ़ाना है।

विजयादशमी के दिन क्रांति के शंख को फूंकना है।
'मर मिटो या चुडियां पहनो'के जुनून को जगाना है।

चारों ओर से घिरकर भी हीमत को नहीं हारना है।
खुद को खंजर भोंककर वीरगति को प्राप्त करना है।

मुझे अवंतीबाई से भारत की प्रथम वीरांगना बनना है।
स्वतंत्रता की इमारत की नींव का पत्थर बन जाना है।

मुझे स्वतंत्रता की इमारत का स्वर्ण-कलश नहीं बनना है।
मुझे बाहरी चकाचौंध से दूर रहना है।

मुझे नींव का पत्थर बन जाना है।
मुझे नींव का पत्थर बन जाना है।
मुझे नींव का पत्थर बन जाना है।


                                               समीर उपाध्याय


कुछ इस तरह


हम बिखरगे
कुछ इस तरह
कि तुम संभाल भी न पाओगे।

हम टूटेंगे
कुछ इस तरह
तुम जोड़ भी न पाओगे।

हम लिखेंगे
कुछ इस तरह
कि तुम समझ भी न पाओगे।

हम सुनाएंगे दास्तां
कुछ इस तरह
कि तुम कुछ कह कर भी
न कह पाओगे।

हम जाएंगे इस जहां से
कुछ इस तरह
कि तुम्हारे बुलाने पर भी
कभी लौटकर न आएंगे।

                                             राजीव डोगरा 'विमल'


शिवगीत




भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है
भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है


मौसम भी आ गया अब सावन का
भांग धतूरा  गंगाजल काँवर का
मौसम भी आ गया अब सावन का
भांग धतूरा  गंगाजल काँवर का
बाबा का करना श्रृंगार है
आने ही वाली वह बहार है

भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है
भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है


भोला अभिषेक को मन तरसा है
सावन में बरस रही अब बरसा है
भोला अभिषेक को मन तरसा है
सावन में बरस रही अब बरसा है
बाबाधाम जाने को मन बेकरार है
सावन में भक्तों की बहार है

भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है
भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है


सावन में जल हम चढ़ाएंगे
भोला बाबा को हम मनाएगे
सावन में जल हम चढ़ाएंगे
भोला बाबा को हम मनाएगे
भोले से जग को यह आधार है
यह तो भोला बाबा का प्यार है

भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है
भोला मेरा अड़भंगी है
वो तो गौरा जी का ही संगी है


                            डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन


परवरिश





मुश्किलें जीवन में कभी कम होएगी नहीं, है परवरिश 
ठोस तो सन्तान इन ठोकरों में खोयेंगी नहीं, ग़र दिया 
संस्कार हमने तो अनीति होएगी नही..

चक्रव्यूह के जैसा है जीवन बिन संस्कार इनमे उलझते 
जाएँगे, ग़र दिए संस्कार हमने  तो ये उलझन खुद वो 
सुलझायेंगे, ग़म का घुट भी पीना पड़े तो हंस कर सह 
जाएँगे, है परवरिश ठोस तो सन्तान..

ये गूढ़ रहस्य खुशियों  का संस्कारों से ही समझ वो 
पायेंगे, है   संस्कार तो  जीवन को  रसीला  पाएँगे,
अन्यथा  राग,  द्वेष, ईर्ष्या,जलन, में ही रह  जाएँगे,
संस्कार गर बच्चों में भरते जाएँगे, इस नयी पीढ़ी को 
ग़ज़ब तोहफ़ा हम दे जाएँगे, संस्कारी बच्चे मुश्किलों में 
रोएँगे नही  धैर्य  चुनौतियों  में  अपना  खोएँगे नहीं,
है परवरिश ठोस तो सन्तान..

ठोस तो सन्तान इन ठोक़रो में खोएँगे नहीं, मुश्किलें 
जीवन में कभी कम होएगी नहीं है परवरिश ठोस तो 
सन्तान इन ठोकरों में खोएगी नहीं..

                                   सुषमा पारख


रिमझिम बारिश

बारिश के साथ हवा का झूमना और मेरा वही थम जाना,
बारिश आज कुछ इस अंदाज से बरस रही है,
कि हवा को भी अपने साथ ले रही हैं। 
बारिश का यू बरसना, और हवा का यू बहना,
जैसे सावन के महीने में कोयल किसी की याद में गाना गुनगुना रही हैं।





बारिश का कभी तेज और कभी धीरे बरसना,
और मन मे एक हलचल सी मच जाना।
कही ना कहीं उसके साथ मेरा झूम जाने की आरजू सी बन जाना। 
हा बारिश के साथ हवा का झूमना और मेरा वही थम जाना।


ठंडी हवा का मेरे गालों को छूना,
और मेरा सिकुड़ के बैठ जाना,
और उस रिमझिम होती बारिश को महसूस करना,
और चुपचाप बैठे उसको देखते रहना,
कही ना कहीं मेरा इस बारिश और हवा के प्यार में ओझल हो जाना।
हा बारिश के साथ हवा का झूमना और मेरा वही थम जाना।


                       किरन कुमारी



'निर्भय'




अब "कृष्ण" बचाने न आएंगे, 
तुम्हे खुद "काली" बनना पड़ेगा।

हथेलियो पर मेहंदी भी रचा लो, 
पर तलवार भी पकड़ना पड़ेगा।

जब 'राक्षसी' प्रवर्तिया बढ जाऐ, 
तुम्हें भी' चण्डी 'रूप धरना पडेगा।

मरने के बाद "निर्भया" मत बनो 
जीते जी 'निर्भय' बनना पड़ेगा।

अब कृष्ण बचाने न आएंगे 
तुम्हे खुद काली बनना पड़ेगा"।।


                                     विभा श्रीवास्तव


कलम का सिपाही- कथा सम्राट प्रेमचंद




कलम सिपाही प्रेमचंद ने,
मानव चरित्र का आख्यान लिखा।

 धनपत राय श्रीवास्तव से,
प्रेमचंद हो,
जीवन का संपूर्ण व्यवधान लिखा।

कलम सिपाही प्रेमचंद ने,
समाज में फैली बुराइयों को,
 दूर करने का संकल्प लिखा।

 मानसरोवर के आठ भागों में, 
देकर कहानियों के 301 मोती। 
उस युग का महा त्राण लिखा।

कलम सिपाही प्रेमचंद ने,
मानव चरित्र का आख्यान लिखा। 

कर्मभूमि की राहों में,
रंगभूमि का नया आयाम लिखा।

 नारी की दुर्दशा सहेज कर,
 मंगलसूत्र का प्राण लिखा।

विधवा विवाह की कर अगवाही, 
कायाकल्प का आगाज़ लिखा।

 कलम सिपाही प्रेमचंद ने,
मानव चरित्र का आख्यान लिखा।

 देकर नवजीवन,
 नवल सोच साहित्य को,
 वह कथा सम्राट 
नौ कहानी संग्रह,
नौ उपन्यास का,
कर योग गया।

प्रथम अनमोल रत्न साहित्य का, 
कर गोदान,
 कफन में ,
लिख जीवन सारांश का,
अंत गया।


                                       प्रीति शर्मा "असीम "


'जाने कब तक सहना होगा'




जाने कब तक सहना होगा।
यु घुट-घुटकर रहना होगा।।
बनकर खून ए मजलूमो का।
गली-गली में बहना होगा।।
अपनी मूँछे अपना तन।
सोच भी अपनी,अपना मन।।
फिर भी नफरत मिलती है।
ख्वाबों की लाशें जलती है।।
बात है सुनना बडजात्यों की।
बस हाँ जी-हाँ जी कहना होगा। बनकर खून..

घोडी़ अपनी,सवार न होगे।
गले नोट के हार न होगे।।
अपनी शादी में बैंड बजे ना।
नव वस्त्रों से कभी सजे ना।।
महगा छाता हाथ मे अपने।
पर धूप गमों में तपना होगा। बनकर खून.....

अपने हक पर अधिकार नही।
हम कभी उन्हें स्वीकार नही।।
शिक्षा-दीक्षा न दिया कभी।
बन द्रोण अगूंठे लिया सभी।।
बनकर सरकटी लाश कबतक।
हमें मौत नदी में बहना होगा।  बनकर खून..

मुगलों से जो भी हार मिली।
गोरों से जो दुत्कार मिली।।
हमसे बदला लेते उनका।
न उखाड़ सके कुछ भी जिनका।
गोरों ने कायर नाम दिया।।
इन्हें कायर ही कहना होगा। बनकर खून..

न वक्त है,कुछ भी सहने को।
आओ मिलकर यलगार करें।।
विष वेल है जो मानवता के।
उनको समूल संहार करें।।
गीदड़ मारे जाते वन में।
अब सिंह सदृश रहना होगा। बनकर खून..


                   रामराज बौद्ध जी की कलम से..