साहित्य चक्र

14 December 2022

भारतीय पत्रकारिता के पीछे का सच!


इस मुद्दे पर बहुत दिनों से लिखने की कोशिश कर रहा था, मगर वक्त की कमी के कारण लिख नहीं पा रहा था। चलिए आज इस विषय पर विस्तार से बात करते हैं। भारतीय पत्रकारिता बाहर से जितनी अच्छी और बेहतर लगती है, अंदर या उसके पीछे का सच उतना ही खतरनाक और डरावना है। आज एक के बाद एक न्यूज़ चैनल खुल रहे हैं और इसके अलावा डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी आये दिन नए-नए मंच बन रहे हैं। जिस-जिस प्रदेश या क्षेत्र में चुनाव होता है, उस-उस क्षेत्र या प्रदेश में नए-नए यूट्यूब चैनल, वेबसाइट और न्यूज़ चैनल खुलते हैं, चुनाव खत्म होने के बाद सब पर ताला लग जाता है। सरकार ने अभी तक ना ही यूट्यूब समाचार चैनलों और ना ही समाचार वेबसाइट के लिए कोई नियम कानून बनाए हैं। कई यूट्यूब चैनल और वेबसाइट तो ऐसे हैं जो महिनों तक अपडेट ही नहीं होते हैं। क्या यह सही है ?





हाल ही में जी हिंदुस्तान नाम का एक न्यूज़ चैनल बंद हो गया। जिसके बंद होने से एक झटके में करीब तीन-चार सौ मीडिया कर्मियों का रोजगार छिन गया। यह खबर कितनी बड़ी है, मगर हमारे प्रमुख समाचार चैनलों ने इस खबर को स्थान तक भी नहीं दिया। सवाल यह है कि जो मीडिया कर्मी बेरोजगार हुए क्या उन्हें किसी प्रकार की मदद दी गई ? क्या उन्हें दोबारा से रोजगार ढूंढने और जब तक रोजगार नहीं मिलता तब तक परिवार चलाने के लिए किसी प्रकार की कोई न्यूनतम आर्थिक मदद की जाएगी ?

भारतीय पत्रकारिता जगत में वेतन की असमानता एक प्रकार का कलंक है। कुछ पत्रकार करोड़ों-अरबों के मालिक बन जाते हैं तो कुछ पत्रकार 5-10 हजार में अपना घर चलाते हैं। क्या यह समानता सही है ? यहां हम सभी मीडिया की बात कर रहे हैं, चाहे वह गोदी मीडिया हो या चापलूस मीडिया हो ‌या फिर नए-नए यूट्यूब प्लेटफार्म ही क्यों ना हो। एक यूट्यूब समाचार चैनल को चलाने के लिए भी कम से कम दो से तीन लोगों की टीम की जरूरत होती है। क्या जो निजी पत्रकार ‌अपना यूट्यूब समाचार चैनल चला रहे हैं, वह अपनी टीम को ‌ मुख्य मीडिया के कर्मचारियों के बराबर सुविधा और वेतन दे रहे हैं ?

भारत में हजारों सैटलाइट समाचार चैनल, अखबार, वेबसाइट और हजारों यूट्यूब समाचार चैनल हैं। सैटेलाइट समाचार चैनल और अखबारों को छोड़ दें तो हमारी सरकार ने अभी तक अन्य प्लेटफार्म के लिए कोई गाइडलाइंस जारी नहीं की है। निजी पत्रकार हर प्रदेश के चुनाव में रिपोर्टिंग करते नजर आते हैं। ऐसे में मेरा सवाल यह है कि एक निजी पत्रकार अपने पॉकेट से इतना पैसा खर्च कैसे खर्च कर सकता है ? अगर उस पत्रकार को कही बाहर से फंडिंग आ रही है तो क्या वह फंडिंग टैक्स के दायरे में आई ? इसके अलावा कुछ ही सालों में करोड़ों की संपत्ति बनाने वाले पत्रकारों की संपत्ति की जांच क्यों नहीं होती है ? सीबीआई, ईडी और सरकार को यह अवश्य जाना चाहिए कि एक सामान्य पत्रकार को अपना जीवन चलाने के लिए महीने का मात्र 5-10 हजार ही मिल पा रहा है तो यह पत्रकार मात्र 2-4 सालों में करोड़पति कैसे बन गए ? ये बड़े-बड़े पत्रकार इतनी महंगी गाड़ियां कहां से लेकर आते हैं ? मीडिया हाउस जिन बड़े-बड़े पत्रकारों को महीने का लाखों और करोड़ों का पैकेज देती हैं, क्या उन मीडिया हाउसों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की एक योग्यता वाले पत्रकार को रखकर सभी कर्मचारियों को समान और अच्छा वेतन देकर चैनल को बेहतर ढंग से आगे चलाया जाए। क्या मीडिया हाउसों को विज्ञापन बड़े-बड़े पत्रकारों के चेहरे पर मिलते हैं या मार्केट टीम की मेहनत से मिलते हैं ?

मीडिया चैनलों में काम कर रहे कर्मचारियों की मानसिक और आर्थिक स्थिति क्या है, कभी आपने जानने की कोशिश की ? शायद नहीं की होगी, चलिए मैं बताता हूं। न्यूज़ चैनल में काम कर रहे कर्मचारियों की ड्यूटी का कोई समय नहीं होता है। कर्मचारी हमेशा मानसिक दबाव में रहते हैं कि कही उन्हें नौकरी से निकाल ना दिया जाए। छुट्टी के नाम पर महीने में दो या चार छुट्टी भी नहीं मिलती है। किसी भी प्रकार का स्वास्थ्य बीमा नहीं है। कोई भी जॉब गारंटी नहीं है। नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है। कोई दुर्घटना बीमा नहीं है। सीनियर अपने जूनियरों का खूब शोषण करते हैं। महिला कर्मचारियों का शोषण नीचे से लेकर ऊपर तक है। हर जगह अलग-अलग राजनीति है। हर डिपार्टमेंट में सीनियर अपने अनुसार टीम बनाते हैं। अगर कोई सीनियर के अनुसार काम नहीं करता है तो उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है। इंटर्नशिप के नाम पर बेहिसाब काम करवाया जाता है। जी हजूरी का रिवाज मीडिया में सबसे ज्यादा है। क्षेत्रवाद और जातिवाद की कोई सीमा नहीं है। योग्यता को तरजीह ना देकर चापलूसी और जी हजूरी को तरजीह दी जाती है।


- दीपक कोहली


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