हमारी आँखों में बसे
फूल जैसे सपने
तुम्हारी छाती के
वज़नदार पत्थर हो गए हैं
तुम्हारी बेचैनी ने
तुम्हारी करवटों ने
तुम्हारी अनिद्रा ने
हमें बता दिया है
कि हमारे सपने
सुई की तरह घुस चुके हैं
तुम्हारी नींद के गुब्बारे में
हमें पता है
धर्म की आड़ में तुमने हमारे इर्द गिर्द
जो भी सलाखें लगायीं
वो न तो शत्रुता में लगायीं और न ही सुरक्षा में
अपितु आत्मरक्षा में लगायी हैं
क्यों कि
पिंजरे में कमज़ोर को ही नहीं
ताकतवर को भी रखना होता है
जैसे जैसे हमारे उड़ने के लिए
पिंजरे खुल रहे हैं
वैसे वैसे
उड़ने लगे हैं
तुम्हारे हाथों के तोते भी
मगर
तुम निश्चिंत रहो जेंटल मैन
हमें तुम्हारे हिस्से का कुछ भी नहीं चाहिए
हमें चाहिए
केवल आधी हवा
आधा आसमान
और आधी ज़मीन
इस आधी आबादी को
सिर्फ़ आधा चाहिए भद्र पुरुष
- संध्या सिंह
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