साहित्य चक्र

29 December 2022

कविताः खामोशियाँ





खामोशियां भी जिंदगी को छूने वाली होती हैं,
कभी दो पल चुप होकर बैठ जाया करो 
कभी अपने मन ही मन विचार किया करो,
अंदर की आत्मा की आवाज को अपने होठों पर लाया करो,
यूं चुपके -चुपके खामोश होकर कुछ महसूस तो किया करो।

मत डरा करो इतना किसी की यू डरी हुई बातों को सुनकर,
 कभी खामोश होकर मुंह तोड़ जवाब तो दे दिया करो।
खामोश होकर शब्दों को बुनना और गुनना भी सीख लिया करो,
कभी कभी ज्यादा बोलने से आपका मनोबल बिगड़ सकता है,
किसी को सजा देने के लिए कभी-कभी खामोश हो जाया करो।

कभी उन घने पेड़ों की तरह बन कर तो देखिए ,
क्योंकि वह भी खामोश होकर कुछ बयां कर देते हैं।
ज़रुरी नहीं हर बात हम बोलकर ही जया कर पाए,,
होठों को बंद कर सिर्फ सामने वाले को सोचने पर मजबूर कर दो।

गुलाब की खुशबू से महक जाता है पूरा बगीचा अपना,
अपने आपको ऐसा बना कर रखो,
 कि आप ना हो वहां पर तो हमेशा सूनापन सा लगे लोगों को।

नदियां जब सरसराती हैं तो बहुत तेज आवाज आती है,
 जैसे ही वह समंदर का रूप ले लेती हैं ,
तो सीधा शांत स्वर में बहता है।


                                                          - रामदेवी करौठिया 


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