साहित्य चक्र

30 November 2019

लिपट कर रो पड़ी मेरी खुशियां

हंसो  तुम  दर्द  पर  इतना   कि  सारे  जख्म जल जाये,
लिपट कर रो  पड़े  खुशियां  तेरे सब गम भी गल जाये।


सुबक  कर रात भर  तुम  क्यूं  भिगो देते हो तकिये को।
निकालो दिल से यूं उसको  कि वो पानी से जल जाये।

बहारें    लाख    हो    फैलीं    मगर   तन्हा   रहे   इतना,
जो  देखे  खुद  को  आईने  में  उसका  मुंँह  जल जाये।

जले  दिल  इसकदर  उसका   कि  आंखे लाल हो जाये,
वो   देखे  आसमां  जब  भी  वही  पर  चांँद  गल  जाये।

मुहब्बत   पाक   थी   मेरा  भला   क्यूं   मैं   घुटूं  जाना,
मिले  सौतन   मुझे  तेरी ,  तेरा  फिर  जी  मचल  जाये।

खुदा  का  हो  करम  इतना  मुहब्बत  फिर से हों तुमको,
तेरे   जैसा   मिले   तुझको   झगड़कर   दूर  चल  जाये।

नहीं  परवाह  उसको  "मन"  के   जीने  और  मरने  की,
लगे  जो  प्यास  उसको  आब,  सहरा  में  बदल  जाये।

                                             मनीष कुमार विश्वकर्मा


आज फिर एक बुद्धा की तलाश है !



आज फिर एक बुद्धा की तलाश है !
ये नए युग का परावर्तन तो नहीं ,
कि  झूठ भी यथार्थ बन जाता है ,
नालंदा के ज्ञानद प्रांगण में ,
आज अज्ञानी भी ज्ञानी  का पद पा जाता है।

सच को सच कहने के लिए ,
आज फिर एक बुद्धा की तलाश है।

ये महाबोधि की शिराओं में ,
कौन सी गरम हवा बहने लगी है ,
जो कभी सभ्यता रचने की बातें कहती थी ,
आज गोधरा के साथ उसकी भी लाश बहने लगी है।

जिजीविषा की हद जानने के लिए ,
आज फिर एक बुद्धा की तलाश है।

कौन नरेश है कौशल का अब ,
जो प्रजा के लिए रोता है ,
बाण लगे शब्दों का भी,
तो अपने रक्त से उसे धोता है।

ऐसे राज्य की कल्पना के लिए ,
आज फिर एक बुद्धा की तलाश है।  

ज्ञान दान दीक्षा की झोली खाली ही  रह जाती है ,
क्यों इस व्यथा पे भी ये वसुंधरा चुप रह जाती है ?

जो ज्योति हुई प्रज्वलित यहाँ युगों पहले,
आज वो अन्धकार से क्यों डर  जाती है ?

वही चिर ज्योति पाने को ,
आज फिर एक बुद्धा की तलाश है।

ये नदी नालों में कुम्हलाए पलाश नहीं,
ये दम  तोड़ती इच्छाओं  की कतार है ,
जो पौरुष मृत्यु को भी जीत लाता  था,
आज वही वीभत्स घटनाओं का क्यों आधार है ?

 शक्ति की परिभाषा समझने को ,
आज फिर एक बुद्धा की तलाश है।

ये शरीर नहीं शाश्वत ,ना  ही ये प्राण शाश्वत  है ,
इस दुर्बोध  संसार में बस ज्ञान शाश्वत है ,
जीवन की सफलता इसको जीने में है ,
बस यही एक सत्य शाश्वत है।

जीवन का सारांश समझने के लिए,
आज फिर एक बुद्धा की तलाश है।

                                             सलिल सरोज 


ऊंची उड़ान भरी

मेरी माया नगरी


सुनहरे सपनो की मैंने 
एक ऊंची उड़ान भरी
जा पहुंची मैं उस लोक में
नाम है जिसका माया नगरी

शहर बसाया वहाँ पर मैंने  
सुंदर रुपहले सपनों का
रहते हो हम नील गगन में
साथ ज़मीं पर हो अपनों का

यथार्थ से करें डटकर मुकाबला
न हो कोई भी तन्हा
खुशननुमा हो प्रत्येक प्राणी के 
जीवन हर एक लम्हा

कभी न धुंधले हो 
ख्वाबों के चित्र प्यारे प्यारे
सतरंगी हो जाएं सपने
आलोकित हो मन के अंधियारे

कोई भी न फंसे कभी भी 
लोभ लालच के फेरे में
सारी कल्पनाएं साकार हो जाएं 
हर मन के चितेरे में

एक घाट पर पानी पीते
सिंह अजा बड़े प्यार से
मीठी वाणी हो मंत्र सभी का 
बैर रहे तीर तलवार से

सत्य बात कहने में न चूके 
क्या राजा क्या रानी
सबका हक हो एक बराबर 
नहीं चले किसी की मनमानी

राष्ट्र के सभी नेतागण
करें स्वच्छ स्वस्थ राजनीति 
ईमानदारी हो व्यक्तित्व में
कदापि न पनपे विष बेल रूपी अनीति

षडयंत्र खुराफाती तत्व 
सब जाएं कूड़ेदान में
रामराज्य का सपना सच हो 
हमारे देश हिंदुस्तान में 

ऐसी उज्ज्वल और मनभावन है 
मेरी माया नगरी
प्यार,सौहार्द ,भाईचारे 
और एकता की ये है गगरी

नर नारी,बड़े बुजुर्गो का 
हो समुचित मान सम्मान यहाँ
पावन वसुंधरा ही तब
बन जाए स्वर्ग समान जहां ।।

                                                    वंदना सोलंकी


इतिहास पुराना है।

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                                               निहाल छीपा


सिर्फ बेटियां विदा ही नही होती घर से

लड़के रोते नही तो क्या उन को दर्द नही होता।
होता तो बहुत है पर वो उस को जाहिर नही करते।

सिर्फ बेटियां विदा ही नही होती घर से।
बेटे भी अकेले विदा हो जाते है घर से।


बस उन की विदाई में बारात नही होती।
उन की विदाई का अहसास दुनियां को नही होता।

बेटे भी पढ़ने को और घर चलाने को
चुप चाप विदा हो जाते है घर से।

बस उन की विदाई में वो कोहराम नही होता।
अकेले रहते है दूर अपनो से और उफ्फ नही करते।

लड़के रोते नही तो ये नही कि उन को दर्द नही होता।
दर्द तो होता है उन्हें पर वो छुपा लेते है।

आँखे पोछकर अपनी सब को हँसा लेते है।
ये बेटे है, जिन के कंधों पर घर का बोझ होता है।

फिर भी ये सब से रिश्ता निभा लेते है।
पूछो गर हाल इन का तो बस मुस्कुरा देते है।

होस्टल में जब नही मिलता खाना घर का
तो रूखी रोटी ही चाय से खा लेते है।

वो नखरे नही करते रहने और खाने में।
माँ से नही करते शिकायत घर से दूर जाने में।

जब आती मुसीबत कोई घर पर,
माँ के लिए ये चट्टान बन जाते है।

राह तकते नही किसी की खुद अपनी ।
हिम्मत से हर मुश्किल को भगा देते है।

ये लड़के है जो घर गम में मुस्कुरा देते है।।
रोते नही ये गम दिखाने को ,दर्द सह जाते है।।

संध्या चतुर्वेदी


स्वर्ग से सुंदर

अपना घर 
-------------

स्वर्ग से सुंदर 
प्यारा-न्यारा 
अपना घर 
छोटा हो या हो बड़ा 
कच्चा हो या हो पक्का 
जैसा भी हो 
कैसा भी हो 
सबसे बढ़िया होता 
अपना घर 
सुख-शांति 
असीम तृप्ति 
आनन्द की खान 
अपना घर 
जाड़ा-गर्मी और बरसात से 
सहज बचा लेता 
अपनों के प्यार-स्नेह से 
महक उठता घर
घर का सुख 
पूछो उनसे 
जिनके पास नहीं है 
अपना घर 
टूटा हो या फूटा हो 
टाट-झोपड़ी वाला घर 
एक मंजिला हो या 
हो बहुमंजिला 
अपना घर तो 
अपना घर ही होता है |

                                       - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 


सेक्स और जेंडर




अमूमन सेक्स और जेंडर को हमारे समाज में एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखा जाता है ,कित्नु यह अवधारणा सत्य से उतनी ही दूर है जितना कि धरती से चन्द्रमा। समस्या हमारे समाज की सोच की भी है कि इन विषयों पर परिचर्चा करना आज भी दुष्कर्म ही माना जाता है। विद्यालयों में भी जहाँ यौन शिक्षा अनिवार्य कर दी गई है वहाँ भी इन विषयों पर आधा-अधूरा ज्ञान ही परोसा जा रहा है। सेक्स का मतलब संकोच के वातारण में पढ़ाया जा रहा कोई पाठ नहीं है बल्कि समाज के बेहतर परिकल्पना की दिशा तय करना भी होता है। सेक्स और जेंडर हमारे विद्यालयों के जीवविज्ञान के चैप्टर से बाहर भी बहुत कुछ है जिसे जानने और समझने की नितांत आवश्कयता है ,केवल स्त्री या पुरुष को नहीं बल्कि समाज के हर वर्ग के हर इकाई को।


सेक्स जहाँ एक जैव वैज्ञानिक संरचना है वहीं जेंडर एक सामाजिक परिकल्पना है। सेक्स ,महिला और पुरुष के शारीरिक ढाँचे के अंतर के साथ उससे जुडी हुई क्षमताओं और अक्षमातों को दर्शाता है तो जेंडर,समाज के द्वारा स्त्री और पुरुष के लिए गढ़ी हुई टकसाली अवयव है।सेक्स कीअसमझता जितना समाज का नुकसान करती है ,उससे कहीं ज्यादा जेंडर की गलत परिभाषा से समाज को नुसान पहुँचता है। सेक्स की गलत समझ से समाज में कई विद्रूप उत्पन्न होते हैं लेकिन जेंडर की दकियानूसी विचारों से कई पीढ़ियों का विनाश होना तय हो जाता है।


फ़्रांसिसी विद्वान् सिमोन डी विभोर लिखती हैं " महिलाएँ पैदा नहीं होती बल्कि महिलाएँ समाज के द्वारा बनाई जाती हैं। " यह विचार जब से सिमोन के द्वारा प्रतिपादित किए गए तब से लेकर आज तक यह अपने आप में एक अकाट्य सत्य की तरह अपनी जगह पर पूरी तरह से टिकी हुई नज़र आती है। जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो उसके लिंग या सेक्स का पता तभी चल जाता है लेकिन समाज में हर लिंग के लिए कितने अलग क़ानून बने हुए हैं यह समय के साथ उन्हें पता चलता है। यह समाज एक लिंग को दूसरे लिंग से कितना अधिक पूजता है ,यह दोगलापन धीरे-धीरे करके महिलाओं के सामने आगे आना शुरू हो जाता है। महिलाएँ जिन अक्षमताओं के साथ पैदा नहीं हुई होती हैं ,यह समाज उन अक्षमाताओं को स्त्रियों पर लादना शुरू कर देता है और कालान्तर में स्त्री की पूरी परिभाषा ही उलट हो जाती है। कुछेक वाक्य तो ऐसे हैं कि हर घर में सुबह-शाम, गर्मी-ठण्ड,घर-बाहर हर जगह दोहराए जाते हैं। "तुम लड़की हो ,इस तरह क्यों हँसती हो?  तुम लड़की हो ,लड़कों के साथ क्यों खेलती हो ? तुम लड़की हो ,पैर पसार कर क्यों खड़ी हो ? तुम महिला हो,पतियों से पहले क्यों खाती हो? तुम लड़की हो ,तुम तो मासिक धर्म से अपवित्र हो जाती हो ? तुम लड़की हो , तुम्हारे लिए सेक्स की बात करना तो पाप है? तुम लड़की हो,तुम्हें शाम से पहले घर पर होना चाहिए और ऐसे अनेक स्त्री विरोधी संरचनाएँ जेंडर अलगाव के तत्वाधीन पैमाने हैं।  और यह जेंडर विकसित करने का क्रम सिर्फ महिलाओं पर ही नहीं रूकता बल्कि लड़कों के लिए भी कुछ दोहे लागू किए गए हैं।  " अरे , तुम लड़के हो और रो रहे हो ? अरे लड़कों से ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं। मर्द को दर्द नहीं होता। ब्लू फिल्में नहीं देखी तो मर्द नहीं बने,तुम बेटे हो , मुखाग्नि तुम्हें ही देनी पड़ेगी और भी तमाम ऐसी सोच ने समाज में स्त्री और पुरुष के बीच में एक गहरी दीवार खड़ी कर रखी है। "


इस गहरी खाई का परिणाम यह है कि समाज में स्त्रियों को "सेकण्ड सेक्स " का दर्जा प्राप्त है और उन्हें दूसरे दर्जे के ही अधिकार प्राप्त हैं।  घर सम्भलना , बच्चे भी पति और ससुराल वालों की इच्छा से पैदा करना , जब और जैसे पति चाहे तब सम्भोग करना ,घर के आर्थिक और पारीवारिक निर्णय में शून्य भागीदारी , अर्थ के लिए पति तो कभी बेटों पर निर्भर रहना , परिवार के सुख के लिए लगातार समर्पण करना और तिल-तिल करके मरते रहना,स्त्रियों की नियति मान ली जाती है।  अपनी पसंद का कपडा नहीं पहनना , माहवारी में ये नहीं खाना तो वो नहीं खाना , 8 बजे के बाद यहाँ नहीं जाना तो वहाँ नहीं जाना , ये नौकरी नहीं करना वो खेल नहीं खेलना और कितने ही ऊल -जुलूल धारणाओं का शिकार है यह समाज और उस में पल रही लडकियां ,जबकि लड़के और पुरुष ऐसे किसी भी बंधन से उन्मुक्त विचरण करते हुए नज़र आते हैं।  इसका परिणाम है -महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध जैसे कि यौन हिंसा , डेट रेप, स्टाकिंग , घरेलू हिंसा , मानसिक प्रताड़ना ,दहेज़ के लिए जलाना और घर से निकाल देना। यदि जेंडर न्यूट्रल समाज की कलपना कभी भी की गई होती तो देश के कई राज्यों में स्त्री-परुष का लिंगानुपात इतना खतरनाक नहीं होता। बेटियों को बोझ नहीं समझा जाता।  भ्रूण हत्या ,बालिका वध जैसी कुरीतियाँ पैदा नहीं होती और हर घर से कोई कल्पान चावला तो कोई लक्ष्मी बाई निकलती लेकिन समाज कब तक तैयार होगा इस क्रांतिकारी बदलाव को,यह एक सोचनीय प्रश्न है।


राजेंद्र यादव की किताब " स्त्रियों के हक़ में " या तस्लीमा नसरीन की आत्मकथाएं या फिर कमला दस की कविताएँ  इस समाज को झकझोड़ने के लिए कतिपय काफी हैं लेकिन उसके लिए इनको पढ़ना और समझना भी जरूरी है। भारत के कई प्रांतों में स्त्रियाँ या तो देवी हैं या तो कुलटा ,बस स्त्री ही नहीं है।  स्त्री स्वयं में एक परिपूर्ण रचना है ,इसके आगे या पीछे जोड़ने की कोई ख़ास आवश्यकता नहीं है।  प्रकृति ने उसे जिस रूप में रचा हैं ,उसे उसी रूप में स्वीकार करने की हिम्मत इस समाज को दर्शानी होगी।


” ढोल, गंवार, शूद्र ,पशु , नारी सकल ताड़ना के अधिकारी ”  मतलब ढोल (एक साज), गंवार(मूर्ख), शूद्र (कर्मचारी), पशु (चाहे जंगली हो या पालतू) और नारी (स्त्री/पत्नी), इन सब को साधना अथवा सिखाना पड़ता है और निर्देशित करना पड़ता है…. तथा विशेष ध्यान रखना पड़ता है लेकिन क्यों और इसका अधिकार किसी ख़ास वर्ग को ही क्यों प्राप्त है? हालाँकि इसके कई अर्थ हो सकते हैं लेकिन यथास्थिति सच में सच से बहुत दूर है।

एरिका जोंग कहती हैं कि कोई भी समस्या सिर्फ महिलाओं की ही नहीं होती हैं। पूरे समाज को इसे सामाजिक समस्या के रूप में देखना होगा। वर्ना समाज का आधा हिस्सा हमेशा के लिए उपेक्षित और वंचित ही रह जाएगा। वो कहती हैं कि समाज में स्त्रियों को एक क्रांति की आवश्यकता है जहाँ उन्हें बिना वेतन का नौकर न माना जाए या उन्हें समाज में दूसरे दर्जे का नागरिक न समझ लिया जाए।


                                                                       सलिल सरोज


ढाई आखर प्यार के

पहला पहला प्यार
****************

ढाई आखर प्यार के
और पहली मुलाकात के
जब जब याद करता हूँ
नई जवानी नई ऊर्जा
नई उमंग नई बातें
अक्सर मन मे आती है
समन्दर के लहरों सी
विचारों की ये लहर
आती और जाती है
पहले प्यार के किस्से
वो छुप कर खत लिखना
वो छुप कर प्यार करना
लम्बी प्रतीक्षा
एक झलक पाने के लिए
किया करते थे हम
वक़्त कब गुजर गया
वो मुस्करा देती तो
दिन भर अच्छा लगता
कभी रूठती कभी मनाता
ये प्यार के पल पल
आखिर कैसे भुलाता
हाथों में हाथ थामना
और आँखों से बातें करना
ये सब पहले प्यार के
वो अनमोल क्षण हैं
जो गुजर गए और
अतीत के पृष्ठ बन गए

                                    राजेश पुरोहित


मेरी मुस्कानों के सृजनहार

मैया व लल्ला 



 "मेरी मुस्कानों के सृजनहार, 
तुझपर वारूं लाड दुलार। 

 मुझसे जन्में तुम मैं पूर्ण हुई, 
 युगों की तपस्या परिपूर्ण हुई। 

 नव अंकुर के नव पल्लव हो, 
 हर्ष का अनादि समन्दर हो। 

 विकल दृष्टि तुम पर जाती है, 
  बरबस मुस्कानें खिंच जाती है। 

  शूल तुम्हारे पांव मेरे हों, 
  छांव तुम्हारी,धूपो के गाँव मेरे हों। 

  छुअन तुम्हारी चंद्र किरण सी, 
  अनुभूति तुम्हारी मस्त पवन सी। 

   वात्सल्य मूर्ति बनकर आए हो, 
   स्नेह घटा बनकर छाए हो। 

  स्नेहिल अंक के राजकुमार, 
   अटल रहे यह लाड दुलार। 

   मां तुमने होना बतलाया, 
   तुमसे मैनें नवजीवन पाया। 

   चिर अमिट रहे  मनुहार सदा, 
   तात-मात का  प्यार सदा।

                              अंजलि ओझा



24 November 2019

पिता का पता



पिता को पत्र लिखा था
वह मृत्यु के नगर गए थे
और अब पते की जरूरत थी


सब भाषाओं को देखा
अनंत धर्मग्रंथ खंगाले
शब्दकोषों की धूल खाई
पर पता नहीं मिला


अपने बाल नोचती
सारी पृथ्वी का भ्रमण करती
एक दिन पहुंची चेतना के नगर
ज्ञान की गली में
ध्यान का द्वार और
द्वार के उस पार
“उत्थान” का उद्यान


चित्त छूटा संशय गया
वहीं बोधिवृक्ष के नीचे
तथागत के चरणों के पास
जीवन मृत्यु के संधिकाल पर
अमृतरस से भरा कमंडल


कृष्ण की बंसी की धुन पर
गाते हुए आए कबीर
और नानक के हाथ से लेकर
सिंचित करने लगे एक ‘बीज’
मीरा का नृत्य और 
सूफियों के चिमटे का ‘झम्म’
तत्क्षण
“नवपौध” का उद्गम


संख्यातीत सवालों की लपटें
और शीतल सा ‘उत्तर’
पिता का पता मिल चुका था
अब पत्र भेजने की आवश्यकता नहीं थी


                                            अनुजीत इकबाल


मैं जिऊंगा उसी ढंग में

गम के ये पहाड़ से दिन 
ऐ जिंदगी तू कब तक दिखायेगी 

मैं रंगूगा नहीं तेरे रंग में 
मैं जिऊंगा उसी ढंग में 
जैसा बनाया परमेश्वर ने मुझे... 
मैं एक समस्या सुलझाता हूँ 

तू सैकड़ों लाकर खड़ी कर देती है मेरे सामने 
पर तू इतनी सी बात मेरी सुनले 
मैं टूटूंगा नहीं /
मैं झुकूंगा नहीं /
मैं रूकूंगा नहीं /
मैं डरूंगा नहीं |


जैसे खिलता कमल कीचड़ में 
जैसे रात के बाद होता है सवेरा 
ठीक वैसे ही 
तू गायेगी मधुर गीत 
बंद होगा तेरा रुदन 
और महक उठेगा मेरा उजड़ा चमन... 


मैं दूंगा तेरा हर इम्तहान 
ऐ जिंदगी 
तू बेशक रुठ जाये मुझसे
पर मैं न कभी रुठूंगा तुझसे |


                                            - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 


युवाओं की वेदना

आज के युवाओं की एक वेदना

"चलते हैं हम 'आज' भुलाकर, घोंट गला अरमानों का..
'कल' बेहतर करने में कितने ख़्वाब जलाने पड़ते हैं..!!

सपनों के सौदे होते हैं दुनिया की बाजारी में..
दाग लगा देती है दुनिया बरसों की खुद्दारी में..
छूने भर से ढ़ह जाए जो ऐसे रेत घरौंदों को..
कितने क्रूर थपेड़े दिल पर अक्सर खाने पड़ते हैं..!!
कल' बेहतर करने में...............................!!१!!

औंधे बल जब गिरे हौसले, असफलता के छालों से..
नजर छिपाए फिरते हैं वो हो बेहाल सवालों से..
दुनिया वाले क्या सोचेंगे क्या उनको उत्तर दूंगा..
यही सोचकर हँस कर सारे अश्क़ छुपाने पड़ते हैं..!!
कल' बेहतर करने में...............................!!२!!

थकन पाँव की नजर गड़ाए रहती है जब ताजों पर..
भूख सिसकियां लेती फिरती दफ्तर के दरवाजों पर..
और महज अर्जुन की खातिर दुनिया की खुदगर्जी में,
कितने एकलव्यों को अंगूठे कटवाने पड़ते हैं..!!
कल' बेहतर करने में...............................!!३!!

                                               ✍️ कुमार आशू


पुराने किवाड़ों को रोज साफ कर रहे

पुरानी तस्वीरों में यादों को जिंदा रखते है।
कुछ लोग अभी भी रिश्तों को जिंदा रखते है।।


पुराने किवाड़ों को रोज साफ कर रहे हैं।
कुछ लोग अभी भी रिश्तों को जी रहे है।।


अभी आने ही वाला है मेरे परिवार का कोई,
कुछ लोग अभी भी देहली पर बाट निहार रहे है।


ना जाने वो करता रहता है इंतजार किसका,
अब रिश्ते तो हर पल उससे दूर ही जा रहे है।


आँगन को बुहारती,लीपती वो माँ अब नही है।
पता नही क्यों दूसरे रिश्तों को आजमा रहे है।।


प्रसिद्धि की खातिर लोग अपने गाल बजा रहे है।
खून के रिश्तों को रुपयों की गिनती से अपना रहे है।।


गाँव की मिट्टी पहचानती है आज भी सभी रिश्तों को,
अपने सभी बच्चो के पैरों की आहट वो जानती है।


वृद्ध हो चला बरगद का पेड पहचानता है सबको,
जो बड़े हो गए बच्चे,उनका बचपन यही पर खिला है।।


आँख मूंद कर एतबार करता रहा जो जीवन भर,
उसे तो उसके अपने आँशुओ ने भी उसे छला है।


पुरानी यादें भी अक्सर उन्ही को सताती है।
दिमाग नही,जो दिल को हरबार आजमाते है।।


                                            नीरज त्यागी