साहित्य चक्र

12 March 2023

सफर ज़िन्दगी का



दुनियाँ में आते ही शुरू हो जाता है
सफर ज़िन्दगी का सभी का एक है
रास्ते सबके अलग अलग बेशक हैं
पर आखिर मंजिल सबकी एक है

आसान नहीं है है मुश्किल बड़ा
ज़िन्दगी का यह अनोखा सफर
किसी को बहुत मुश्किल से मिलती है
कोई आसानी से पा जाता है डगर

अनगिनत लोग मिलते हैं इस सफर में
कोई याद रहता है कोई भूल जाता है
कोई चलता है जिंदगी भर साथ
कोई बीच राह में छोड़ जाता है

वर्तमान में जीते हैं जो उनका
हंसी खुशी से गुज़र जाता है सफर 
बीत गया सो बीत गया आज ही अपना है
कल क्या होगा किसी को नहीं है खबर

चला जाता है जो दुनिया से बेखबर
मुश्किल हो चाहे उसके लिए कितनी भी डगर
दफन हो जाते हैं वह भी हार जाते हैं सफर में
समझते तो जो अपने आप को रहबर


                                       - रवींद्र कुमार शर्मा


कविताः औरत





औरत ने जिस दिन

शराफत का पर्दा गिरा दिया

उस दिन वो सारी बेड़ियाँ

जो उसने पाजेब समझकर पहन रखी है

टूट जायेंगी

उस के आक्रोश में

बह जायेंगी

वो सारी परम्परायें

जो उसने माथे पर

सिंदूर समझ कर सजा रक्खी हैं

उस दिन जन्म लेगी

नयी सभ्यता

जिसमें प्रेम, शांति, करूणा, न्याय

एवम् धैर्य के साथ

सूत्रपात होगा नयी मानवता का

जो उद्भव से लेकर अंत तक

होगी यथार्थ, शाश्वत!



- रवींद्र कुमार




"वर्तमान संयुक्त परिवार, और बिखरते रिश्ते"


एक समय था जब लोग परिवार में रहना पसंद करते थे, लोगों की संपन्नता का अंदाजा उनके परिवार की एकजुटता के आधार पर लगाया जाता था, परिवार में वैचारिक मेल मिलाप के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी प्रतिष्ठा बनी रहती थी। परिवार के धनी व्यक्ति की बिरादरी में विशेष इज्जत होती थी, और ऐसे लोग ही पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करते थे बड़े परिवार का मुखिया पूरे समाज का मुखिया बनकर सामने आता था, तथा उसकी बात ही सर्वमान्य होती थी संयुक्त परिवार के उस दौर में परिवार के रिश्तो के बीच एक विशिष्ट अपनापन प्रेम और सम्मान का माहौल होता था, इन संयुक्त परिवार का फायदा पूरे समाज को मिलता था, समस्त समाज मिलकर राष्ट्र को एक सूत्र में बांँधने का संदेश देते थे। 





उस समय पूरा मोहल्ला और पूरा गांँव एक परिवार की तरह एक दूसरे के साथ हर परिस्थितियों में खड़े रहते थे, मोहल्ले में अगर कोई बुजुर्ग होता था तो वहांँ सब का बुजुर्ग माना जाता था किसी भी परिवार का दामाद, पूरे गांँव का दामाद हुआ करता था। तात्पर्य यह है कि, आपसी प्रेम से सभी मिलजुल कर रहते थे तथा एकजुटता का संदेश देते थे। 

लेकिन वर्तमान समय की बात करें तो सब कुछ सपना सा लगता है, अब ना परिवार रहे ना वैसे मोहल्ले ना गांँव! परिवार छोटे हो गए सबकी अपनी स्वयं की दुनियाँ जिसके अंतर्गत बाहर का कोई भी व्यक्ति जुड़ा नहीं होता है, पहले लोग परिवार के लिए जीते थे पर आज बात स्वयं पर आकर टिक गई है, जिम्मेदारी के नाम पर प्रत्येक व्यक्ति अपनी बीवी बच्चों के लिए जीना उचित समझता है, जिम्मेंदारी के नाम पर यदि परिवार के किसी अन्य सदस्य को मदद की आवश्यकता पड़ने पर उसे वह बोझ लगने लगता है, सहायता आर्थिक हो या मानसिक उसी समय खराब करना लगने लगा है, जिंदगी बस इसी उधेड़बुन में लगा देता है कैसे अपने बीवी बच्चे को ज्यादा से ज्यादा सुविधायें दे सके , समाज में आजकल प्रतिष्ठित व्यक्ति की यही परिभाषा है।

जीवन के लिए संघर्ष करता व्यक्ति आज रिश्तों को भूलता जा रहा है रिश्ते जो बिखरने से पहले भावनात्मक लगाव अथवा जुड़ाव उदाहरणार्थ कभी अपने मामा, कभी चाचा, कभी ताऊ, सहायता की अपेक्षा रखना निराधार होता जा रहा है। यह रिश्तें कहीं आर्थिक बोझ ना बने इसी डर की वजह से वह अपनों से दूर होता जा रहा है। 

आज का व्यक्ति सिर्फ अपनी जिंदगी जी रहा है उसे दूसरे रिश्तो में झांँकने से डर लगने लगा है, सारी दुनियाँ की खबर गूगल से रखता है, या  टेलीविजन से, पर पड़ोसी का हाल क्या है उसे नहीं पता होता है। आलम यह है कि, लोग दिनदहाड़े अपने घरों में अंदर से ताला लगाकर कैद होकर रह रहे हैं और कहते हैं जमाना बदल गया है, पर कभी यह नहीं सोचा जमाना बदला किसने ?

आज जरूरत है इन तालो को तोड़ने की, साथ ही अपने दिलों में एक रोशनदान की जिससे आपको पता रहे आपके मोहल्लें में शायद किसी को आपकी जरूरत भी पड़ सकती है। औपचारिकता के आधार पर आपको अपने घर परिवार मोहल्ले गांँव में घट रही घटनाओं और लोगों से जुड़े रहना चाहिए, हमें अपने संस्कार नहीं भूलना चाहिए अपनी परंपराओं को लेकर चलना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। याद रखिए विकास करना बुरी बात नहीं है पर स्वयं का विकास करते करते घर से परिवार से रिश्तो से समाज से दूर हो जाना नासमझी है समझदार बने ,और संयुक्त परिवार और मोहल्ले के महत्व को समझे ताकि आने वाले समय में हमारी अगली पीढ़ी को कह सके कि हांँ! हमने भी आपके लिए एक सुखी समृद्ध और विकसित भारत छोड़ा है।


                                              - रत्ना मजूमदार


02 March 2023

शिक्षा - सामाजिक परिवर्तन का उपकरण


 
            शिक्षा, समाज, राजनीति, धर्म और संस्कृति का अटूट संबंध है। सामाजिक परिवर्तन एक सतत घटना है। हम अब एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जो तेजी से बदल रहा है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के चमत्कारों ने जीवन के तरीके और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को इतना बदल दिया है कि हम नहीं जानते कि इसके साथ कैसे तालमेल बिठाया जाए और उचित समायोजन कैसे किया जाए। सामाजिक मूल्य, मानवीय मूल्य, अंततः एक निश्चित समय में समाज के स्वास्थ्य और बीमारी का निर्धारण करते हैं।




आमतौर पर यह माना जाता है कि छात्र वही करते हैं जो शिक्षक करते हैं; लोग शासकों - राजनेता और नौकरशाह का अनुसरण करते हैं; बच्चों को उनके माता-पिता द्वारा, उनके वफादार अनुयायियों को उनके धार्मिक नेताओं द्वारा ढाला जाता है। हालांकि, आज जीवन के हर क्षेत्र में उथल-पुथल और भ्रम है। बच्चे, जो अपने माता-पिता द्वारा लाड़-प्यार में अनुशासनहीन कर  दिए जाते हैं, उन्हें वयस्क होने पर अनुशासित और आज्ञाकारी होने का आदेश दिया जाता है। लड़कियों और लड़कों, महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग मूल्य और मानदंड निर्धारित हैं। चरित्र जो एक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता है, बचपन में परिवार और समाज दोनों में नजरअंदाज कर दिया जाता है। "चरित्र वह है जिस पर किसी राष्ट्र की नियति का निर्माण होता है।" जवाहरलाल नेहरू बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोग गांधीजी से कैसे प्रभावित हुए थे। "परिस्थितियों से मजबूर लोगों के लिए खुद को अपने सामान्य स्तर से ऊपर उठाने के लिए, पहले की तुलना में और भी निचले स्तर पर वापस जाने के लिए उपयुक्त हैं। आज हम कुछ ऐसा ही देखते हैं ... इससे भी बुरा यह है कि इन मानकों को बढ़ाने के लिए सामान्य रूप से कम किया जा रहा है।


 गांधी ने अपना जीवन सामाजिक उत्थान को समर्पित कर दिया था।" कई बार राजनीति विद्वेष पैदा कर देती है। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद समाज के हर तबके में व्याप्त है। जनसंख्या, गरीबी, बीमारी, कुपोषण और अशिक्षा पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। दहेज, दुल्हन को जलाना, आतंकवाद दिन का क्रम है। महिला विकास राजनेताओं का फोकस है, लेकिन पुरुष विकास का नहीं। "छोटे चरित्र के पुरुषों और महिलाओं के साथ कोई राष्ट्र नहीं हो सकता।" संसद में पारित कानूनों को ठीक से लागू नहीं किया जाता है क्योंकि अधिकांश आम लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी नहीं होती है और उनका प्रचार-प्रसार करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और सत्ता के भूखे राजनेताओं द्वारा शोषण किया जाता है। समन्वय, व्यापक योजना और प्रबंधन की कमी है और सबसे महत्वपूर्ण आम लोगों की चिंता मूल विषय से नदारद है। आजादी के बाद भी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं। गरीबों और दलितों के उत्थान के लिए किसी ने गंभीरता से प्रयास नहीं किया। साधन, जो सीमित हैं, बर्बाद हो जाते हैं।

 आईआईटी, प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों ने सर्वश्रेष्ठ छात्रों को प्रशिक्षित किया है, जिनमें से 80% विकसित देशों में चले जाते हैं। उच्च पदों पर बैठे लोगों के बच्चों को उन लोगों के लिए कोई सरोकार, कोई दायित्व नहीं है जिनका पैसा उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण में जाता है। उन्हें न तो अपने देश पर गर्व है और न ही देश उन्हें बनाए रखने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन देता है। एक व्यक्ति जितनी अधिक उच्च शिक्षा प्राप्त करता है, उतनी ही अधिक डिग्रियाँ प्राप्त करता है, दहेज की माँग भी उतनी ही अधिक होती है। डिग्री केवल भौतिक मामलों में आत्म-उन्नति के लिए, किसी की स्थिति को बढ़ाने और जल्दी पैसा बनाने के लिए एक साधन है। इन सभी बीमारियों के लिए शिक्षा को रामबाण माना जाता है। विद्वानों, वैज्ञानिकों और तकनीशियनों को गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी और मानव पतन से लड़ने की आवश्यकता है।

शिक्षा की वर्तमान प्रणाली में कुछ दोष हैं। हमारे जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए विज्ञान आवश्यक है लेकिन मानविकी की तुलना में विज्ञान, इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी में छात्रों को प्रशिक्षित करना महंगा है। राष्ट्रीय परंपरा की उपेक्षा की गई है। वर्तमान पीढ़ी जड़विहीन है। सामान्य शिक्षा की क्या जरूरत है। राष्ट्रीय शिक्षा परिषद छात्रों को उनकी महान राष्ट्रीय विरासत और विज्ञान के साथ-साथ पारंपरिक मूल्यों को समझने में शिक्षित करके राष्ट्रीय भावना को विकसित करने में रुचि रखती थी। "सत्य और असत्य की दुनिया, सही और गलत, सुंदरता और कुरूपता की दुनिया विज्ञान की दुनिया से अलग है।" 

धर्म एक अन्य बाध्यकारी शक्ति है, हालांकि ऐसा लगता है कि यह समाज को विभाजित कर रहा है। "हमारे महाकाव्य, हमारे साहित्यिक ग्रंथ, हमारे धार्मिक तीर्थ, देश की एकता की घोषणा करते हैं।" आखिरकार "धर्म सही विश्वास, सही भावना और सही कार्य है …", यह बौद्धिक विश्वास, भावनात्मक परमानंद या सामाजिक सेवा तक ही सीमित नहीं है।

शिक्षा की किसी भी अच्छी प्रणाली का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए, जिससे वह ज्ञान और ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम हो सके। साहित्य, धर्म और दर्शन का अध्ययन उसे ज्ञान प्राप्त करने में मदद करता है। तभी वह ब्रह्मांड के नियमों को समझ सकता है अन्यथा वह लालच, चिंता आदि से पीड़ित होगा। भारतीय संस्कृति जितनी बदलती है, उतनी ही वैसी ही रहती है।" जानकारी, ज्ञान, विज्ञान सब व्यर्थ है अगर एक शिक्षित व्यक्ति में चीजों को शांति से देखने की क्षमता नहीं है।
 
            राजनीति अब शिक्षा व्यवस्था का अभिन्न अंग बन चुकी है। यह शिक्षक संघों, छात्र संघों आदि में विशेष रूप से स्पष्ट है। हड़तालों और चुनावों के दौरान पैसा और शक्ति तबाही मचाते हैं। यहां तक कि पदोन्नति भी सत्ता में बैठे लोगों की सनक पर निर्भर करती है। इसलिए, प्रतिबद्ध शिक्षकों को इस प्रक्रिया में नजरअंदाज किया जाता है, वे हतोत्साहित और निराश होते हैं। डर की राजनीति हावी है। शैक्षणिक माहौल खराब हो गया है, हालांकि किसी तरह शिक्षण संस्थान अभी भी ज्ञान प्रदान करने का प्रबंधन करते हैं।

शिक्षा के लिए अनुदान के आवंटन में कमी, (बजट में शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी गई) के परिणामस्वरूप मानकों में गिरावट आई। जिस समाज में सम्मान भौतिक संपत्ति पर निर्भर करता है, वहां शिक्षकों का सम्मान गायब हो जाता है। शिक्षण अब एक विद्वान की पहली पसंद नहीं है। नतीजा यह होता है कि बेहतरीन दिमाग वाले अब इस पेशे की ओर आकर्षित नहीं होते। राजनेता, शिक्षाविद् और समाज सुधारक आज समाज में अराजक स्थितियों के लिए एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हैं।
 
            "शिक्षा पूरे मनुष्य के लिए सोचने, महसूस करने,और अपने होने का परिचायक है और बिना सोचे इसे हासिल नहीं किया जा सकता है" उपकरण, पुस्तकालय, भवन महान शिक्षकों के लिए कोई विकल्प नहीं हैं। सर्वश्रेष्ठ विद्वानों को शिक्षण पेशे में होना चाहिए। "विश्वविद्यालय के शिक्षक को आराम से रहने में मदद की जानी चाहिए यदि वह खुद को सीखने, सिखाने और अनुसंधान के लिए समर्पित करना चाहता है। चूंकि विश्वविद्यालयों में भर्ती होने वाले युवा को कम वेतन दिया जाता है, वे बौद्धिक मूल्यों की सराहना करने में विफल रहते हैं और पाठ्यपुस्तक लिखने या फेलोशिप प्राप्त करने में रुचि रखते हैं।"  जैसा कि शिक्षक के उदाहरण का विद्यार्थियों पर बहुत प्रभाव पड़ता है, हम शिक्षण पेशे के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। एक अधिक प्रबुद्ध सार्वजनिक दृष्टिकोण आवश्यक है" डॉ एस राधाकृष्णन, शिक्षक, दार्शनिक और राजनेता कहते हैं।
 
            विश्वविद्यालय शांति के लिए सबसे मजबूत प्रभावों में से एक हैं। दुनिया की वर्तमान स्थिति सोचने वाले लोगों के लिए हैरान करने वाली और खतरनाक है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने आसमान और सितारों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया है। इस चुनौती से निपटने के लिए हमें नए साधनों की जरूरत है। "राजनीति तत्काल की कला है। स्टेट्समैनशिप लंबे और गहरे विचारों पर टिकी हुई है।" "विश्वविद्यालयों को हमें अनुपात और परिप्रेक्ष्य की भावना सिखानी चाहिए, क्योंकि वे विश्व समुदाय को स्वीकार करते हुए सार्वभौमिक सुपर-राष्ट्रीय मूल्यों पर जोर देते हैं और एक स्थिर संतुलन के भीतर राष्ट्रीय समूहों को घेरने का प्रयास करते हैं। दुनिया के विश्वविद्यालय अपने सदस्यों को एक साथ जोड़ने वाली एक महान बिरादरी बनाते हैं। शिक्षा किसी एक ख़ास वर्ग के लोगब की बपौती नहीं बल्कि हवा की तरह सबके लिए उपलब्ध होनी चाहिए ताकि समाज की नसों में विकास का ऑक्सीजन दौड़ता रहे।"

 
                                      -  सलिल सरोज


सब था.....पत्थर




बात पत्थरों की चली।
पत्थरों के शहर में हर इंसान ... पत्थर ।
हंसता -बोलता ,रोता -खेलता हर इंसान..... पत्थर ।
और दुनिया बनाने वाला इंसान का भगवान ...पत्थर ।

बात पत्थरों की चली.......सब था पत्थर।
इंसानियत को दरकिनार करते कुछ किरदार..... पत्थर।
अपनों की ठोकरों में आयें कुछ मतलबी वफादार..... पत्थर।
बन बैठे सिपाहसालार धर्म और समाज के कुछ अमूल्य.... पत्थर।

बात पत्थरों की चली।
पत्थरों के शहर में हर इंसान ... पत्थर ।
पत्थरों के हर शहर का हर मकान..... पत्थर।
वक्त की चक्की में पिसता हर आम-खास....पत्थर।
दिल कहाँ है... उसकी जगह गढ़ा है कबरिस्तान -सा....पत्थर।

बात पत्थरों की चली।
पत्थरों के शहर में हर इंसान था... पत्थर ।
हंसता -बोलता ,रोता -खेलता हर इंसान..... पत्थर ।
और उसी दुनिया को बनाने वाले इंसान का भगवान  ...पत्थर ।

बात पत्थरों की चली.......सब था पत्थर।
इंसानियत को दरकिनार करते वो किरदार..... पत्थर।
अपनों की ठोकरों में आयें कुछ मतलबी वफादार..... पत्थर।
बन बैठे सिपाहसालार धर्म और समाज के वो जहनदार.... पत्थर।

बात पत्थरों की चली।
पत्थरों के शहर में हर इंसान ... पत्थर ।
मर गई ख्वाहिशें उम्मीदों के पांव पड़ते- पड़ते।
वो पिघला ही नहीं जो था सबसे बड़ा था.... पत्थर।

मत कुरेद मुझको क्यों हुआ....... पत्थर।
जुबानों ने कितनी वेरहमी  से गिराए जो... पत्थर।
जवाब उनको भी वक्त ने दे ही दिया।
आज वो भी खड़े हैं बनकर एक वेगैरत.... पत्थर। 

ठोकर में रहकर जो रगड़ खायें... पत्थर।
जिंदगी की आग जला कर वहीं मीलपत्थर बन जाएं.... पत्थर।
पत्थर.... पत्थर को भी पिघला सकता है ।
अगर एक दिन बन जाए वो शाहकार ....पत्थर। 


                              - प्रीति शर्मा 'असीम'