साहित्य चक्र

30 December 2022

और मेरे आलोचक!



मुझे माफ़ करना 
जो मैं अपने अनुभवों पर
चाँदी के शब्दों का वर्क नहीं चढ़ा पाया।
मुझे माफ़ करना कि जब तुमने
मेरी कविता पर हाथ फिराया 
तो तुम्हारी हथेली लहूलुहान हो गयी।तुम पीछे कहोगे-
उसकी कविता तो बड़ी कँटीली,बड़ी ढीठ थी
मगर सच तो यह है कि वह कविता नहीं वरन
मेरी और मेरे पुरखों की चिपकी हुई पीठ थी

मेरे आलोचक!
मुझे माफ़ करना जो मेरे भाव की आँच में 
कुछ ज्यादा ही खरी हो गयी कविता की रोटी।
मुझे पता है तुम मेरी कविता देखोगे,मुंह बिचकाओगे
और मुंह में जुगुप्सा भरते हुए बोलोगे-
उसकी कविता तो बड़ी रूखी,बड़ी कसैली थी
मगर सच तो यह है कि वह कविता नहीं वरन
मेरी,मेरी जोरू और मेरे बच्चों की देह फैली थी

तुम मेरी कविता की कालिमा और रूखापन देख,
उसे खाओ या उससे नफरत करो।मुझे फ़र्क नहीं पड़ता।
मैं जानता हूँ कि जो भूखा होगा,
वह मेरी कविता की कालिमा नहीं देखेगा...
वह बस उसे खा लेगा।जैसे कि मेरे बच्चे।
जिनके लिए मैं लिखता हूँ,खपता हूँ,रचता हूँ

तुम कौन हो आलोचक?
मैं तुम्हें नहीं जानता।तुम कोई जोंक तो नहीं ?
लेकिन रुको!तुम तो जुगाली कर रहे हो।
तुम्हारा पेट और दालान दोनों भरे हुए हैं...
अबे स्साले इच्छाधारी नाग।
चल निकल,भाग।


                                  - अजय 'दुर्ज्ञेय'


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