साहित्य चक्र

06 December 2022

कविताः आफताब के साथ कभी मत जाना





सुनो बेटी श्रद्धाओ मेरी बात पर देना ध्यान
मां बाप का कभी दिल मत दुखाना
मां बाप को छोड़ कर
आफताब के साथ कभी मत जाना

आफताब तुम्हें बहलाएगा फुसलाएगा
झूठा प्यार जताकर अपने जाल में फँसायेगा
मकसद पूरा हो जाएगा जब
तब मारेगा पीटेगा और रुलाएगा

जब तुम्हें समझ आएगी बहुत देर हो जाएगी
मां बाप का शर्म के मारे सिर झुक जाएगा
कोई रोकने वाला नहीं होगा आफताब को
एक दो नहीं तेरे पैंतीस टुकड़े कर जाएगा

आरी से काटेगा तुम्हारे बदन को टुकड़ों में 
खून की निकलती पिचकारी पर वह अट्टहास लगाएगा
संस्कार ही ऐसे मिले हैं उसको बचपन से
कत्ल करने में वह बिल्कुल भी नहीं घबराएगा

फूल की तरह खिलती मुस्कुराती श्रद्धा
तुम एक दिन इतनी बेबस हो जाओगी
खौफ खाते थे जिससे दोस्त भी सारे
क्या मालूम एक दिन टुकड़ों में बिखर जाओगी

तू आफताब के मन को क्यों नहीं समझ पाई
मन का झूठा था निकला वो कसाई
जात पात मज़हब छोड़कर क्यों उसके साथ गई तुम
नफरत की आग में कर गया वो बेवफाई

श्रद्धा तुम क्यों करती हो यह गलती बार बार
कभी जलाता हैं फैंकता है तुम पर तेजाब
कभी कोई आफताब लूटता है आबरू सरे बाजार
फिर भी क्यों हो जाती हो उसके साथ जाने को बेताब


                       - रवींद्र कुमार शर्मा


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