साहित्य चक्र

25 December 2022

कविताः प्रेम की बेटियाँ

प्रेम की बेटियाँ



तुम! 
प्रेम में कितनी बार छली जाओगी बेटियों ?
तुम! प्रेम में कब तक मिरोगी?
तुम! प्रेम में कितने टुकड़ों में 
काटी जाओगी और कब तक बेटियों ?
तुम प्रेम में घर से बेघर हुयी
तुम प्रेम में इस कदर डूबी
कि तुम्हारे लिये लौटने के सारे रास्ते बंद कर दिए गए 
यही मानकर भी लौट नहीं पाती हो 
तुम! उस स्नेहिल छाँव  में 
जिसकी शीतलता में तुमने प्रेम से जीना सीखा था
सच्चे प्रेम में 
पिता खफा हैं 
मरते दम तक मुंह नहीं देखेंगे 
याद रहा तुम्हें 
तभी तुम लौट नहीं पायी
एक बार पुकारती तो सही उन्हें 
फिर देखती तुम पिता के असीम प्रेम को
दौड़कर लगा लेते सीने से तुम्हें 
प्रेम में अंधी लडकियों!
इतनी स्वच्छंद ना बनों कि
गलत-सही की सोच ही कुंद हो जाये
 छलिया चहुंओर मिलेगें
पहचानों उन्हें 
तुम्हारे प्रेम में अटूट श्रद्धा थी
 पर उसका प्रेम
पैतीस टुकड़ों में काटकर रख दिया तुम्हें 
यह प्रथम घटना नहीं 
बार-बार काटी गयी हो तुम
अब तो सजग हो जाओ
अपने प्रति रखो श्रद्धा 
और करो खुद से प्रेम भी
तुम देह मात्र बनकर मत जीना
मनुष्य हो
मनुष्य ही रहना।

                                                    - इन्दु श्री


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