साहित्य चक्र

26 April 2024

लघुकथाः अदला-बदली

सरिता जब भी श्रेया को देखती, उसके ईर्ष्या भरे मन में सवाल उठता, एक इसका नसीब है और एक उसका। क्या उसका नसीब उसे नहीं मिल सकता ?

सरिता के छोटे से फ्लैट की बालकनी से श्रेया का भव्य बंगला बहुत सुंदर दिखाई देता था। वह जब भी पति के साथ मोटरसाइकिल से निकलती, श्रेया के बंगले की पार्किंग एरिया में खड़ी बीएमडब्ल्यू पर नजर उसकी नजरें चिपक जातीं। 





अपनी खूबसूरती को निखारने के लिए श्रेया खुले हाथों से पैसे खर्च करती थी। ट्रिम किए बाल, नियमित फेशियल, पेडिक्योर, मेनिक्योर, सब कुछ संपूर्ण। सिर से ले कर पैरों तक सब कुछ व्यवस्थित और सुंदर। जबकि सरिता के मर्यादित बजट में यह सब कहां से हो पाता। उसके बिखरे बाल, उसमें बीच-बीच में सफेद बाल। वह मेहंदी तो लगाती थी, पर कभी समय न मिलता तो काले बालों के बीच सफेद बाल झांकने में बिलकुल पीछे नहीं रहते थे। 

साग-सब्जी काटते-काटते हाथों की अंगुलियो की चमड़ी खुरदुरी हो गई थी। खुद बर्तन मांजने से नाखूनों का रंग और आकार अजीब हो गया था। अगर श्रेया के यहां की तरह उसके यहां भी नौकरों की फौज होती तो उसका भी सिर से ले कर पैरों तक अलग ही नक्शा होता। पर उसके भाग्य में तो कुछ और ही था।

कहां श्रेया के डिजाइनर कपड़े और कहां उसके साधारण कपड़े, इस्त्री किए कपड़े पहनने का आनंद ही कुछ और होता है, घंटो इस्त्री पकड़ने वाले सरिता के हाथ उससे कहते। रविवार को किसी ठेलिया पर चाट-पकौड़ी या समोसे-कचौड़ी खा कर लौटते हुए सरिता यही सोचते हुए अपार्टमेंट की सीढ़ियां चढ़ रही होती कि बीएमडब्ल्यू में फाइवस्टार होटल की लज्जत ही कुछ और होती है।

श्रेया का शरीर हमेशा सोने और हीरों के गहनों से सजा होता था। समय समय पर वे बदलते रहते थे। जैसे कपड़े, वैसे आभूषण। जबकि सरिता को विवाह के समय जो मंगलसूत्र मिला था, वही एक महत्वपूर्ण गहना था। सोना खरीदने की औकात नहीं थी, इसलिए चांदी पर सोना चढ़वा कर दिल को संतोष मिल जाता था।

पर श्रेया को देख कर सरिता के दिल का संतोष लुप्त हो जाता और मन ईश्वर से एक ही सवाल पूछता, 'श्रेया का भाग्य उसे नहीं मिल सकता क्या ?'

और अगर मिल जाए तो... 

तमाम मेघधनुषी सपने आंखों में तैरने लगते। शाम को जब पड़ोस में रहने वाली हिमांशी ने बताया कि सामने वाले बंगले में रहने वाली श्रेया को ब्लड कैंसर है और लास्ट स्टेज में है। तब से सरिता भगवान से यही प्रार्थना कर रही है कि उसके भाग्य में जो है, वही ठीक है। प्लीज अदला-बदली मत कीजिएगा।


                                                             - वीरेंद्र बहादुर सिंह 


बर्बाद समय को हम रिसाइकल नहीं कर सकते


बर्बाद समय का अर्थ है बर्बाद जीवन
या
मोबाइल हमारे समय के सबसे बड़े शत्रु





             आज औद्योगिक युग के बाद फैक्ट्री, ऑफिस और नौकरी का जो दौर शुरू हुआ, उसने मनुष्य को घड़ी का गुलाम बनाकर रख दिया। आधुनिक अविष्करांे ने हमारे जीवन की गति बढ़ा दी है। इनकी बदौलत हम दुनिया से तो जुड़ गए हैं, लेकिन शायद खुद से दूर हो गए हैं। मोबाइल हमारे समय के सबसे बड़े शत्रुओं में से एक है, क्योंकि वह हमें महत्वहीन कामों में उलझा देता है। मोबाइल से दो तरह से समय बर्बाद होता है या तो हम खुद ही अपना समय बर्बाद करते हैं या फिर अब इसके माध्यम से दूसरे हमारा समय बर्बाद करते हैं। जिन लोगों के पास खाली समय होता है, वह हमेशा काम करने वाले लोगों का समय बर्बाद करेंगे। बर्बाद समय का अर्थ है बर्बाद जीवन। 


आप बर्बाद समय को रिसाइकल नहीं कर सकते है। यदि आप समय के सर्वश्रेष्ठ उपयोग को लेकर गंभीर हैं तो मोबाइल, टीवी, इंटरनेट चैटिंग आदि समय बर्बाद करने वाले आविष्कारों का इस्तेमाल कम कर दें। डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल और हृदय रोग की तरह ही समय की गति भी आज की एक समस्या है, जो आधुनिक जीवन शैली का परिणाम है। 

हम 80 प्रतिशत काम 20 प्रतिशत समय में ही पूरा कर लेते हैं और बचे हुए 20 प्रतिशत काम में 80 प्रतिशत समय बर्बाद करते हैं। इंटरनेट पर अगर आप ज्यादा काम करते हैं तो आपको ब्रॉडबैंड कनेक्शन पर काम करना चाहिए। इसकी गति तेज होती है। हर इंसान दिन में काम से कम 5 मिनट तक नीरा मूर्ख होता है। समझदारी इसमें है कि हम इस अवधि को बढ़ने न दें। अगर आप पूर्व दिशा में जाना चाहते हैं तो पश्चिम की ओर न जाए। जो दुनिया को हिलाना चाहता है, सबसे पहले उसे खुद को हिलना चाहिए। इससे ज्यादा निरर्थक कुछ नहीं है कि आप वह काम कुशलता से करें जिसे किया ही नहीं जाना चाहिए था।

           उस व्यक्ति का कितना सारा समय बच जाता है, जो इस बात पर नजर नहीं रखता है कि उसकी पड़ोसी क्या कहता, करता और सोचता है? मोबाईल, सिगरेट और शराब के अलावा भी कई बुरी लत होती है, जो सिर्फ आपका बहुत-सा समय ही बर्बाद नहीं करती बल्कि जीवन भी बर्बाद करती है। समुद्र में इतने लोग नहीं डूबे जितना कि मोबाईल, सिगरेट और शराब में डूब गए। यह मनोवैज्ञानिक आदतें होती है, जिनमें उलझ कर आप अपना समय खुद बर्बाद करते हैं। बड़़ बोलेपन से भी बहुत समय बर्बाद होता है।

              एक सुंदर युवती से रोमांटिक बातें करते समय एक घंटा एक सेकंड की तरह लगता है और सुर्ख अंगारे पर एक सेकंड बैठना भी एक घंटे की तरह लगता है। अपने बेटे को आदमी बनने में एक औरत को 20 साल लग जाते हैं और दूसरी औरत उसे 20 मिनट में मूर्ख बना देती है। जब आप शहद की तलाश में जाते हैं तो आपको यह उम्मीद रखनी चाहिए कि मधुमक्खियां आपको काटेंगी। जल तरंग के समान चंचल इस जीवन में लेस मात्र का भी सुख नहीं है। आज के समाज को आत्मावलोकन की जरूरत है। हमारे समय को चुराने वालों की पहचान करने की जरूरत है। जब तक आप अपने समय को मूल्यवान नहीं मानेंगे, तब तक आप इसके बारे में कुछ भी नहीं करेंगे। समय धन से अधिक मूल्यवान है।  


                                                                       - डॉ नन्दकिशोर साह


कविताः ऐसी क्या मजबूरी है




बिना रिश्तों के यह ज़िन्दगी अधूरी है
रिश्तों का होना ज़िन्दगी में बहुत ज़रूरी है
मर मर कर क्यों जी रहे हैं लोग विचार करो
क्यों भूल गए रिश्तों की एहमियत ऐसी क्या मजबूरी है

माता पिता ने बच्चों को पढ़ाया लिखाया
पेट अपना काट कर उनको खिलाया
उस पढ़ाई से तो थे अनपढ़ ही अच्छे
जिसने मां बाप को बृद्धाश्रम पहुंचाया

अब कहां मिलेगा पुत्र जैसे श्रवण कुमार
जिसने माता पिता पर सब कुछ दिया वार
आजकल कौन रखना चाहता है पुरानी चीजें
माया के इस चक्कर ने कई घर दिए उजाड़

नई पीढ़ी रहने लगी है अब बुजुर्गों से दूर
खो गई जवानी नशे में रहती है हरदम चूर
संस्कार तो जैसे गुम हो गए अंधरे में कहीं
बड़ा बन गया अगर तो भी काहे का ग़रूर


                                           - रवींद्र कुमार शर्मा


पहाड़ी कविता- बदलियां गल्ला




अज्ज कल बदलना लग्गियां
तेरियां गल्लां
तेरे शहरे दे मौसमे सैंई।

अज्ज कल बदलना लग्गा।
तेरा अंदाज
गिरगिटे दे रंगे सैंई।

अज्ज कल बदलना लग्गा
तेरा प्यार
तेरे रुसदे चेहरे सैंई।

अज्ज कल बदलना लग्गा
तेरा व्यवहार
तेरियां नजरा सैंई।

अज्ज कल बदलना लग्गे
तेरे जज्बात
तेरे लफ्जां सैंई।

अज्ज कल बदलना लग्गी
मेरी अहमियत
तेरी बदलिया सोच्चा सैंई।

                                      - डॉ. राजीव डोगरा



08 April 2024

सुहागरात की कल्पनाएं!

मानव समाज में सुहागरात को लेकर इतनी सारी कल्पनाएं बनी हुई हैं, जिनको गिन पाना असंभव है। फिर भी मैं कुछ कल्पनाओं पर बात करूंगा, जो हमारे समाज में अपने पैर जमा चुके हैं। सबसे पहले लड़कों की कल्पनाओं पर बात करते हैं। अक्सर लड़कों के दिमाग में यह बैठा रहता है कि वह सुहागरात के दिन क्या करेगा ? कैसे करेगा ? कही वह पहले ही नाइट फेल तो नहीं हो जाएगा ? क्या वह अपनी पत्नी को खुश कर पाएगा ? 





आदि कल्पनाएं लड़कों के दिमाग में बैठी रहती हैं। इसके अलावा लड़कों के दोस्त लड़के को सुहागरात के दिन एक योद्धा के रूप में देखते हैं। जैसे लड़के को किसी युद्ध में जाना हो और उसे युद्ध को जीत कर आना ही होगा आदि। मगर इन कल्पनाओं से अलग सत्य कुछ और ही है। उस सत्य के बारे में हम अंतिम में बात करेंगे। अब हम बात करते हैं लड़कियों के मन में सुहागरात को लेकर चलने वाली कल्पनाओं के बारे में। लड़कियां अक्सर सुहागरात को लेकर सोचती हैं कि अगर सुहागरात के दिन उनकी योनि से ब्लड नहीं आएगा तो क्या होगा ? कही उनका होने वाला पति उनके चरित्र पर सवाल तो नहीं उठाएगा ? पहली बार सेक्स करने पर कितना दर्द होगा ? क्या वह दर्द मेरे से सहा जाएगा ? कही लड़का हवसी तो नहीं होगा ? जैसे क‌ई कल्पनाएं लड़कियों के मन में चलती हैं।


हकीकत यह है कि सुहागरात के दिन बहुत ही काम लोग ठीक से शारीरिक संबंध बना पाते हैं। इसके पीछे विभिन्न कारण हैं। जैसे- सुहागरात के दिन घर में मेहमानों की भीड़, दुल्हन और दूल्हे का सही से परिचित नहीं होना, दुल्हन-दूल्हे का थक जाना और दोनों का मानसिक रूप से शारीरिक संबंध बनाने के लिए तैयार नहीं होना आदि। वर्तमान में प्रेम विवाह की संख्या लगातार पड़ रही है और ऐसे में अधिकतर लड़के-लड़कियां शादी से पहले ही शारीरिक संबंध बना चुकी होती हैं। इसके अलावा आज शादी से पहले लगभग हर लड़का-लड़की किसी ना किसी के प्रेम संबंध में रहे होते हैं या फिर सोशल मीडिया इत्यादि प्लेटफार्म के माध्यम से सेक्स इत्यादि के बारे में जानकारी प्राप्त कर चुके होते हैं। इसकी बावजूद भी सुहागरात को लेकर हमारे मानव समाज में कई तरह की कल्पनाएं होती हैं। खैर वक्त के साथ-साथ हमारी ये कल्पनाएं भी धीरे-धीरे मर जाएंगी।


                                                                          - दीपक कोहली


30 March 2024

हे कौन्तेय...

फोटो स्रोतः गूगल


महाभारत        के        श्रेष्ठतम     पात्र, 
वह    थे        उनके    ही   ज्येष्ठ   भातृ।

किया शिशु  को   प्रवाहित  गंगा नदी  में, 
जो   थी    उनकी   और पांडवों की मातृ

सचमुच        तुझे       सब      ने     छला, 
मात-पिता गुरु संग  यशोदा  के  भी लला

जो    ना    विस्मृत    होता   तुझे वह ज्ञान, 
वध     तेरा       नहीं       था      आसान

सूर्य  थे  पितृ  किन्तु मन में कैसा था खोट  
वह   भी   छुप    गए     बादलों   के ओट

माता   को     भी     अभी     था   बताना, 
युद्ध     का   निष्कर्ष     था   जब   आना

बता दिया कि   तुम     हो   ज्येष्ठ  कौन्तेय, 
पार्थ    से   क्यों     नहीं     किया  याचना ?

वाकई  तूने     खाई    बहुत   ही    चोट  है 
वाकई   तूने     खाई   बहुत    ही   चोट है

परंतु   हे   राधेय  हे  कौन्तेय   हे   अंगराज, 
हे        दुर्योधन       के      मित्र          श्रेष्ठ,
सच       में        तुम        तो     हो   महान, 
दिनमान        के         तुम      हो    संतान, 
किंतु      चक्रव्यूह      में      अभिमन्यु    के, 
छल     से    तुम        भी     हरे    हो  प्राण

हे अंगराज  महान  चाहे  लाख   दानवीर हो, 
श्री     श्रद्धेय     परशुराम    के  शूरवीर   हो, 
परंतु      यज्ञसेनी     की     भरी    सभा   में, 
हरण        किये       तुम      भी     चीर  हो

अधर्म         का            दिया            साथ,
पाप          खुद                 लिया       माथ, 
बात       जब      धर्म      अधर्म    की    हो, 
तब       धर्म       ही          आएगा      हाथ

किंतु   हे     कर्ण   तुझसे   अद्भुत   प्रीत   है, 
तेरी     हार     में     भी    तेरी     जीत     है,
बुरा       का       अंत     तो     होगा      बुरा 
यही      तो      दुनिया      की       रीत     है

हे     सूर्यपुत्र      तुझे    ह्रदय     से      नमन, 
सब       करते       हमेशा       तेरा      वंदन, 
पूजे         जाते        हो        तुम         सदा, 
अर्पित         चरणों       में      तेरे      सुमन


                                                                        - सविता सिंह मीरा 


कविताः फुर्सत





फुर्सत ना मिली ।
कभी खुद से मुलाकात होती। ।
मैं सुनता ही रहा सबकी।
काश !कभी खुद से भी बात होती।

 फुर्सत ना मिली कभी खुद से मुलाकात होती।
जिंदगी ने उम्मीदों की एक लंबी लिस्ट थमा  डाली।
मैंने भी समझौतों से हर बात बना डाली।
फुर्सत ना मिली.....
काश! एक उम्मीद खुद से भी की होती।
अपाहिज सपनों को लेकर जिंदगी
आज इस तरह ना चली  होती।

फुर्सत ना मिली कभी खुद से मुलाकात होती।
वो जिन के लिए फुर्सत से खुद को भूल गया।

उनको फुर्सत ना मिली सोचने की ,
 कि उनके लिए तुमने क्या किया।

आज फुर्सत से खुद से मिला तो जाना।
बस अपना साथ ही साथी है।
बाकी  सब तो था.... बहाना।


                                                             - प्रीति शर्मा 'असीम' 


कविताः स्कूल चले




आओ हम स्कूल चले 
नव भारत का निर्माण करें

छूट गया है जो 
बंधन भव का 
आओ मिलकर उसको 
पार करें,
आओ हम स्कूल चले...

जाकर स्कूल हम
गुरुओं का मान करें 
बड़े बूढ़ों का कभी न
हम अपमान करें,
आओ हम स्कूल चले...

जाकर स्कूल हम 
दिल लगाकर पढ़ेंगे
मौज मस्ती और खेलकूद भी 
खूब करेंगे,
आओ हम स्कूल चले...

क ख ग का गान कर 
हम हिंदी का मान बढ़ाएंगे।
एक दो तीन चार पढ़ कर
गणित का ज्ञान भी करेंगे।
आओ हम स्कूल चले...


                                        - डॉ.राजीव डोगरा



होली की मनमोहक कविताएँ

फोटो स्रोतः गूगल


दिखे जब रंगों की झलकी समझो होली आई 
खड़कते दिल के दरवाजे समझो होली आई 

कलियों के देखे रंग दमकते समझो होली आई 
छलकते जगह-जगह जाम समझो होली आई 

होते हो नाच गाने बैठकों में समझो होली आई 
दिखते हो नाजो अदा समझो होली आई

गाल लाल,गुलाबी आंखें, हाथों में पिचकारी समझो होली आई 
भरी पिचकारी चलें  अंगिया पर समझो होली आई 

सीनो से ढलके आंचल समझो होली आई 
लपके  जब सब दिल लेने को समझो होली आई 

लचक लचक कमर चले,फड़के जब तन समझो होली आई
नैन मटकाकर नैन लड़ाए समझो होली आई

खेल रहा कीचड़ में बेताब समझो होली आई 
बहक रहे सब मदहोश हो समझो होली आई 


                                                               - आलोक सिंह बेताब


*****

रंग  जमाने,  गुलाल  उड़ाने,
गले  लगाने, सबको  हँसाने,
चल देती मस्तानों की टोली,
खुशियों भरा, रंग-बिरंगा त्योहार है होली!

मीठी गुजिया, तीखा दही भल्ला,
बाहर सड़क पर, मचा हो हल्ला,
चेहरे  पर   सबके   बनी  रंगोली,
ऐसे ही तो मनाते हैं लोग प्यार से होली!

बच्चों की खरीदारी, नई पिचकारी,
गुब्बारे   भरकर,  कर  ली  तैयारी,
प्यारी लगती उनकी हँसी ठिठोली,
इनका  तो  पसंदीदा  त्योहार  है  होली!

हर  माता - बहन, नए  वस्त्र  पहन,
एक दिन पहले पूजे, होलिका दहन,
खुशियों से भर जाए  उनकी झोली,
अग्नि में कष्टों को स्वाहा कर देती होली!

सच्ची मुस्कान और बनते पकवान,
घर    पर    आते,  खूब    मेहमान,
आपस मे बोलें सब प्रेम भरी बोली,
ये ही हमारी परम्परागत भारतीय होली!

रखना याद, बड़ो का आशीर्वाद,
रहेगा   साथ  हम  होंगे  आबाद,
उनको  लगे  हमारी सूरत भोली,
उन्ही  से  शुरू करनी  है  अपनी होली!

आएगी क्रांति जब देश मे होगी शान्ति,
अमन है ज़रूरी, ये दुनिया भी जानती,
सरहद पर चले ना, अब एक भी गोली,
तभी मनेगी हमारी असली पावन होली।

                                                     - आनन्द कुमार

*****

बात अलग है

क्या हुआ जो धर्म अलग है,
क्या हुआ जो जज़्बात अलग है,
एक बार  प्यार और भाईचारे से गले तो मिलो,
इस रंगो वाली होली की बात अलग है।
ये हुड़दंग वाली मस्ती नहीं,
ये मनचलों वाली कृति नहीं,
यहां सिर्फ प्यार के रंग ही रंग हैं,
इन लाल गुलाबी रंगों की बात ही अलग है।
इसमें शुद्ध मनोभाव से  चेहरे रंगे जाते हैं,
रंगों के प्यार से अपने रिश्ते निभाए जाते हैं,
कोई उंगली उठा के तो देखे इस त्योहार पर,
अभी तक किसी की इतनी औकात नहीं।
बच्चे  रंगों की पिचकारी से सबको खूब नहलाते हैं,
औरतें गुलाल का टीका लगाकर खूब रंग उड़ाती हैं,
होली के रंगो में रंगकर सब बैर भूल जाते ,
इस प्यार भरे रंगों वाली होली की बात अलग है।

                                                               - डॉक्टर जय महलवाल

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 "होली आई रे"

होली आई.....होली आई...होली आई रे 
होली आई.....होली आई...होली आई रे 

नीले पीले लाल गुलाबी रंगों का ये त्यौहार,
खुशियों उमंगों से भर देता है सबका संसार।
रंग बिरंगे रंगों में सबको डुबोने होली आई रे,
क्या बच्चे क्या बूढ़े सबकी बनाने टोली आई रे।
होली आई.....होली आई...होली आई रे....

रंग गुलाल से सराबोर तन मन को करेंगे,
ढोल नगाड़े की थाप में सब मिल थिरकेंगे।
गली गली में होली की हुडदंग अब मचेगी,
रंग बिरंगे रंगों से राधा गोरी की चोली सनेगी।
होली आई.....होली आई...होली आई रे....

मदमस्तों की टोली में खुशियां है छाई,
भेदभाव लड़ाई झगडे भूल जाओ भाई।
होली के रंग में खुद रंगों औरों को भी रंगा लो,
छोड़कर सारे दुख विषाद मस्ती में झूमो गा लो।
होली आई.....होली आई...होली आई रे....

ऊंच नीच अमीरी गरीबी सबको भुलाकर,
आओ सब होली मनाएं सबको गले मिलाकर।
होली के रंगों से रंग दो सभी को तुम प्यारे,
खुश होकर दुआ सच्ची देंगे तुमको बेचारे।
होली आई.....होली आई...होली आई रे....

राग द्वेष और भेदभाव की छोड़ो तुम बोली,
मिल जुलकर सतरंगी रंगों से खेलो होली।
इस होली दुश्मनी दूरियां सब तुम भूलाओ,
होली की बोली में चहुं ओर मिठास फैलाओ।।
होली आई.....होली आई...होली आई रे....

                                                                   - मुकेश कुमार सोनकर

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होली कुछ ख़ास मनाते हैं
आओ दोस्तों इस वर्ष होली कुछ ख़ास मनाते हैं,
बचपन की यादों को फिर से जगाते हैं।

वह दिन भी क्या गजब के दिन थे,
 जब हम छोटे छोटे नटखट बच्चे थे।

न किसी से किसी का वैमनस्य था,
रहता सबका हमेशा सामंजस्य था।

उम्र से जरूर हम कच्चे थे,
पर दिल के हम सब सच्चे थे।

सब निर्मल मन से होली खेलते थे,
एक दूसरे पर प्यार से रंग उड़ेलते थे।

अब होली में वह पहले जैसी बात नहीं,
होली में रंग तो हैं पर रंगों में जज्बात नहीं।

आओ दोस्तों फिर से ख़ुद को बहकाते हैं,
सब साथ मिलकर होली के रंगों को महकाते हैं।

फिर से होली में जज्बात भरते हैं,
जो दोस्त दूर हो गए उनको साथ करते हैं।

आज सब साथ में अपनत्व के रंग उड़ाते हैं,
फिर से बचपन वाली वह होली सजाते हैं।

आओ दोस्तों इस वर्ष होली कुछ ख़ास मनाते हैं,
बचपन की यादों को फिर से जगाते हैं।

                                                                          - भुवनेश मालव 


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04 March 2024

कविताः रंगमंच




मैं पढ़ूं गजल तो जमाना वाह वाह करता है,
कोई बजाता है ताली तो कोई सोचता है 
तो कोई करता है टिप्पणी,
अलग-अलग प्रसंग हैं यहां तमाम के,
अनोखा रंगमंच है यह जिंदगी,
किरदार में रह कर लोग अभिनय शानदार करते हैं,
कोई करता हैं प्रेम तो दगा हजार करता है 
मीठी-मीठी बातों से सौदा हजार करता है,
कोई झेलता है घाव तो कोई घाव हजार करता है,
मिन्नतों के साथ कोई मन्नत हजार करता है,
मैं दुख पढ़ता हूं अपना और जमाना हंसहंस कर बात करता है,
चुपके चुपके वह बातों में अपनी शिकायत करता है,
कोई कहता है खुद का किस्सा अनोखा 
और कोई दुख की भरमार करता है,
अलग-अलग प्रसंग हैं यहां तमाम के,
अनोखा रंगमंच है यह जिंदगी,
किरदार में रह कर लोग अभिनय शानदार करते हैं,
कोई पहुंचता है सीधे और कोई मार्ग हजार करता है,
धीरे-धीरे सपनों के कोई सौदा हजार करता है,
कोई रखता है धीरज तो कोई आक्रोश हजार करता है,
धीरे-धीरे सफलता का कोई सफर हजार करता है,
मैं कहता हूं सत्य और जमाना मुंह से वाह वाह करता है,
पीठ पीछे क्या पता तानों की बौछार करता है,
भाईचारा यानी क्या! जिसमें राजा बने 
रंक के महल में रंक राज करता है।


                                      - वीरेंद्र बहादुर सिंह

10 February 2024

बाल कविताः आई होली खेलें रंग





फुर्र हो गई सर्दी रानी, आया मार्च खतम कहानी।
बढ़ने लगा सूरज का ताप, अब न आती मुंह से भाप।।

थर्र-थर्र नहीं कांपता तन, प्रफुल्लित रहता है मन 
कुहरा-धुंध गये सब संग, अब आई होली खेलें रंग ।।

फूल खिले हैं चारों ओर, खग गाते जब होती भोर।
तितलियां उड़कर आती, फूलों के ऊपर मंडराती ।।

मन में भरकर के उमंग, होलिका दहन करते संग।
मिष्ठान खा लगाते टीका, भरपूर मनोरंजन जी का।।

लाते तरह-तरह के रंग, खूब खेलते संग-संग।
गाते-नाचते मिलकर, बनाते पकवान घर-घर।।

खुद खाते और खिलाते, बधाई देने घर-घर जाते।
बर्फी गुजिया पेड़े बाल, चेहरे दिखते पीले-लाल।।

छोड़ के पीछे शर्म-लाज, खेलते गाते नाचते आज।
हो जाते सब चेहरे ऐसे, कभी न देखा इनको जैसे।।

धर्म-संप्रदायों की जो खाई, होली तीज करती भरपाई।
बहती है समरस की धारा, वातावरण मनमोहक सारा।।


                                       - डॉ. सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी

पढ़िए 17 कविताएँ एक साथ...



अव्वल आख़िर जिंदगी का 
मकसद ख़ाक़ है सुन लो,
हां सभी तो अपने ही थे 
उनका गि़ला क्या करते,
ज़ख्म भी गहरे थे सभी
उनको अयाँ क्या करते, 
तेरी मसरुफ़ियत तो 
हमको पता है सारी, 
तेरे आने की खुशी वादों 
पे यक़ीं क्या करते, 
जब सितारे भी हाथों से
निकले रफ़्ता रफ़्ता, 
फ़िर चांद को पाने की
आरज़ू बता क्या करते, 
वह मुसाफ़िर था हमसे
वफ़ा क्यों कर करता , 
हम भी थे मजबूर दिल से
अपने दग़ा क्या करते, 
खुली हवा में उड़ने का वह
आदी था नहीं समझे,
हाथ फ़ैलाकर उसको बुलाते 
तो भला क्या करते, 
अव्वल आख़िर जिंदगी का 
मक़सद ख़ाक़ है सुन लो, 
महल और अटारी हम भी बना
लेते तो बता क्या करते ,
ख्वाबों के जज़ीरे का नक्शा
आंखों में फिरा करता है,
बेसिम्त चल रही थीं हवाएं
"मुश्ताक़"बता क्या करते ?

                                   - डॉ. मुश्ताक अहमद 


*****

दस्तूर

बहता है दर्द तो
लफ़्ज़ों में पिरो दो
झरता है इश्क़ तो 
अल्फाज़ो में बटोर लो।

मिलता नहीं कोई
शख्स इश्क करने को  
तो ख्वाबों में
किसी से इजहार कर दो।

मिलता नहीं कोई अपना
हाल-ऐ- दिल बतलाने को 
तो परायो से थोड़ी 
गुफ्तगू कर लो।

करता नहीं कोई वाह
बेहतरीन कार्य करने पर
तो खुद ही आह को 
वाह बना लो।

                                   - डॉ. राजीव डोगरा


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शिष्टाचार ही हमारा संस्कार

शिष्टाचार एवं आदर-सत्कार,
नम्रता से भरा हो व्यवहार,
प्रेम और सम्मान के साथ हो बातचीत,
सभ्यता से हो हम परिचित,
दूसरों की भावनाओं का हो सम्मान,
ना करै जाने अंजाने में भी अपमान,
धैर्य, संयम, और सहनशीलता,
हो सभी के लिए हमेशा समानता,
अपनी भाषा में सभ्यता दिखाए,
विनम्रता, विवेक, और समझदारी को ना भुलाए,
शिष्टाचार से भरा हर कदम है श्रेष्ठ,
क्यूं ना इसमें हो के दिखाए हम सर्वश्रेष्ठ।

                                     - डॉ. माधवी सिंह इंसा


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बसंत पंचमी 

हवा में उड़कर मीठी मीठी खुशबु आ गई, 
कोयल की तान मन को भा गई,
चारो तरफ सरसों के पीले फूल लहलहा गए, 
सूरज ने भी आखें खोली,
चारों ओर उजाला छाया, 
फूलों की महक हर तरफ फैली, 
पूरी फिज़ा बसंती हो गयी,
माँ सरस्वती की पूजा हो रही, 
धरती माँ ने पीली चादर ओढ़ ली, 
सूरज की गर्मी से, 
धुंध चारो ओर की छट गई,
हे माँ जैसे सूरज के आने से धुंध छट जाती है, 
वैसे ही सबके जीवन में उजाला हो जाए, 
बसंत पंचमी का ये शुभ दिन, 
सबके जीवन को महका गया।

                                       - गरिमा


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हूँ ...मैं

अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ.... मैं ।
जीने की हर कोशिश में बहुत -बार मरा हूं मैं।
सैकड़ों बार टूट -टूट के
फिर उन टुकड़ों को जोड़ कर जुड़ा हूँ.. मैं।

अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ.... मैं ।
अपनों ने ही खींचे थे पाव।
सैकड़ो  बार गिरकर लड़खड़ाते हुए फिर भी खड़ा हूँ ..मैं।
मिले तो थे हाथ साथ मगर।
जिंदगी की राह पर फिर भी अकेला चला हूँ.. मैं।

अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ.... मैं ।
सवाल बन के क्यों...रह गई जिंदगी।
हर  उस जवाब की तलाश में अब चला हूँ...मैं।
उम्मीदों से छुड़ाकर हाथ अपना।
आज आपने साथ पहली बार चला हूँ...मैं।


                                              - प्रीति शर्मा 'असीम 

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हंसना मुस्कुराना दोनों हैं अपने हाथ

अच्छे का इंतजार करते करते 
जो मिला था वह भी गंवा दिया
तृष्णा रही बहुत कुछ पाने की
जिसने दिया उसी को भुला दिया

जीवन निकल गया मिला कुछ नहीं
जो चल रहा है उसी में मज़ा लीजिए
हर वक्त क्यों रहते हो तनाव में
अपने आप को मत यूं सजा दीजिए

हंसना मुस्कुराना दोनों हैं अपने हाथ
यह आप पर निर्भर है आपको क्या चाहिए
अवसर मत ढूंढिए कोई हंसने का
बिना बात के भी कभी कभी मुस्कुराइए

मन में मत कुछ रखिये
जो मन को भाय वह पीजिए खाइए
घर में बैठ कर क्यों करते हो वक्त बर्बाद
कुछ समय निकाल कर बाहर घूम आइए

दीन दुखियों के साथ कुछ वक्त बिताइए
दोस्तों के साथ दूर तक टहलने निकल जाइए
बुजुर्गों के साथ बैठिए गप्पें मारिये
मुस्कुराने की बजह उनको दीजिए खुद भी मुस्कुराइए

सार्थक हो जाएगा आपका जीवन जो 
आपके कारण दूसरों के होठों पर हंसी आएगी
ऊपर वाला भी देखकर खुश होगा आपका काम
जीवन की बगिया में खुशी हमेशा मुस्कुराएगी


                                           - रवींद्र कुमार शर्मा


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स्त्री क्या है?
वीरेंद्र बहादुर सिंह 

स्त्री क्या है?
ब्रह्म है?, जीव है?, या जगत है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई 'सार' है?
तलवार की 'धार' है?
या रात के बाद का 'सवेरा' है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई 'छाया' है?
या मन को मोहने वाली कोई 'माया' है?
स्त्री कोई 'सुर' है?
स्त्री कोई 'उर' है?
या फिर यह कोई 'कोहिनूर' है?
स्त्री क्या है?
स्त्री कोई 'सवाल' है?
या फिर सवाल में छुपा 'जवाब' है?
स्त्री पुरुष की 'ढाल' है?
मां का 'दुलार' है?
या फिर पत्नी या प्रेमिका का 'गाल' है?
स्त्री क्या है?
यह कैसे जान सकता हूं?
पर इतना जरूर जानता हूं।
कि स्त्री के बिना तो...
अयोध्या के 'राम', द्वारिका के 'श्याम'
या नीलकंठ द्वारा भस्म किया गया 'काम' भी,
एकदम खाली होता...
क्योंकि... स्त्री 'फेफड़े' में आए तो 'हवा'
और 'दिल' से गुजरे तो 'दवा' बन जाती है।
स्त्री क्या है?

                                        - वीरेंद्र बहादुर सिंह 


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प्रकृति का हर कोना बोले, आकाश की गहराई में खोले,
नीला विस्तार लिए आकाश, जैसे कला का कोई परिहास।
हरी-भरी धरती की चादर, फूलों की वो मधुर फुहार,
वृक्षों की लहराती डालियाँ, प्रकृति की सजीव मालाएँ।
सुबह की पहली किरण जैसे, न‌ई दिन की आशा लाए,
आकाश में बिखेरे सोना, चिड़ियों का संगीत सुनाए।
शाम ढले जब सूरज छिपे, आकाश रंग बदलता जाए,
लाल, पीला, नारंगी, नीला, जैसे कलाकार का पैगाम।
रात्रि में तारों की चमक, चाँद की चांदनी बिखेरे,
आकाश बन जाता है चित्रकारी, जिसमें चाँदनी है घेरे।
प्रकृति का यह अद्भुत खेल, जीवन का सुंदर मेल,
आकाश-धरती का ये संगम, सिखाए हमें जीवन का ये गीत।
हर पल यह संदेशा लाए, जीवन है खूबसूरत सजाए,
प्रकृति और आकाश में जो खोजे, पाए वह शांति अपरिमाए।

- दीपक कोहली


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हे वीणावादिनी सरस्वती

हे वीणावादिनी सरस्वती,
हे हंस वाहिनी सरस्वती।
विधा का वरदान दे दो मां,
में अज्ञानी शरण तुम्हारी आई हूं।
हाथ में वीणा पुष्प कमल पर,
विराजमान तुम रहती हो।
मन के अंधकार को मिटा देना,
उजालों का हमको अधिकार देना मां।
बुध्दि की दाता तुम हो,
मेरे कंठ में आकर हम सब,
पर कृपा ऐसी कर दो मां ।
विधा की तुम हो देवी,
कण -कण में तुम है विराजी।
ऋषियों ने समझा है,
और मुनियों ने जानी।
वेदों की भाषा पुराणों की वाणी,
हमको अपनी शरण में ले लो मां।
तुम श्वेत वर्णी वीणा को धारण करती,
मन से कभी ना तुम दूर होना।
तुम जगत जननी कल्याण करणी,
तुम ने मुझे इतना कुछ लायक बनाया।

- रामदेवी करौठिया


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दुख का साथी

कोई शरीफ़ लगता है, कोई बेईमान लगता है,
जिसमें भी हो ख़ुद्दारी, वो ही इंसान लगता है,
पीड़ा में साथ बहुतेरे, फिर कैसा है घबराना?
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
जहाँ देखो मुसीबत है,पथ में आई दिक्कत है,
इंद्रधनुषी रंग बदलना,ये लोगों की फ़ितरत है,
भला जो सबका करे, बड़ा परेशान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
कष्टों को मिलने दो, करेंगे उनका भी सामना,
किसी के दिल से निकली है, मेरे लिये कामना,
उन्हीं सँग सांझ सवेरे,जीवन आसान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
कचोटती हैं ये चिंताएं, जब आती कुछ बाधाएँ,
रखकर रब पर आशाएँ, मुश्किलें दूर हो जाएँ,
समस्या के जब बने घेरे,सही निशान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।
है मानवता अभी ज़िंदा, भलाई करते रहो प्यारे,
होती रहे बेशक निंदा, कर्म लिखे जाते हैं सारे,
जो मानस गुणों को धरे, वही महान लगता है!
दुख में जो खड़ा मेरे, हमें भगवान लगता है।

- आनन्द कुमार

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प्रकृति की लालसा

हिमाच्छादित चोटियाँ नीले नभ से करती यूं बयां ,
मिलने को आतुर ,
लक - दक होती हम बारम्बार ,
सहती हिम अम्बार ,
कोशिश में रहती ये सब करके ,
चिर इच्छा यूं पूरी होगी इसबार
वृक्ष शाखाओं को फैलाकर ,
नभ को कहते यूं निहार ,
अब तो मिल जाओ तुम हुमसे ,
हम फिर से न जाएँ हार
खग भरकर ऊंची उड़ान ,
अबकी उड़ान सबसे ऊंची जान ,
आज तो मिलन होगा ही ,
जरूर साथ देगा आसमान
समंदर का जल ,
ताप से जलकर ,
धुआँ –धुआँ होकर ,ऊपर उड़ ,
प्रयास नभ से मिलन का कर ,
कहता,कब होगा मिलन ,
क्या फिर से मुझे आना पड़ेगा ,
बिन मिले ही इस धरा पर
मिट्टी धरा की ,
धूल का गुब्बार बन,
कण –कण को समेट ,खुद को सबल कर,
प्रयत्न करती, पहुंचे नभ तक,
होने को एक ,आसमां से मिलकर ,
पुकारती ,क्या फिर मेरे हौंसले को देंगे दबा जलद ,
संग अपने वृष्टि रूप से ,
ला देंगे फिर जमीं पर ,
ये चोटियाँ सहकर सब ,
कर ऊंचा कद ,
वृक्ष अपने फैलाव की हद तक ,
खग,पंखों का अति प्रयास कर ,
ताप अति ,जल समंदर का सहकर ,
कण-कण समेट मिट्टी सबल बन,
अपनी-अपनी वाणी में ,
कर रहे नभ से प्रार्थना रह-रह कर ,
मिलन की उनकी ,
उससे अधूरी लालसा होगी कब पूरी ,
कुछ तो बयां कर
कहता शांत, हृदयविशाल, अंतहीन आकाश ,
हर ना मानें कोई
मुझसे मिलने का करता रहे हर प्रयास ,
चुनौती रहेगी ,रहेगी जब तक ये चाह ,
होड़ रहेगी बढ़ने की आगे ,
तुम हारें ना मैं जीतूँ ,
प्रकृति का संतुलन यूं रहे बना ,
देखकर तुम सबको यूं प्रयासरत ,
संतुष्ट सा खुद को हूँ पाता ,
फिर मैं तुमसे हूँ ,तुम मुझसे हो ,
है गहरा हमारा नाता ,
ध्यान रहे मर न पाए तुम्हारी ये लालसा ,
यही तो दिखाएगी तुम्हें आगे बढ़ने की राह

- धरम चंद धीमान

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!! सरस्वती वंदना !!
माँ शारदे हमें वरदान दे,
हमको नवल उत्थान दे।
अज्ञानता से हमें मुक्त कर,
ज्ञान का हमें प्रकाश दे।
सुरों को हमारे राग दे,
संगीत से हमें अनुराग दे।
अपनी शरण में हमें लेकर,
बेटों सा हमको दुलार दे।
जीवन हमारा संवार दे,
भव से हमें तार दे।
अवगुणों को हमारे दूर कर,
गुणों का हमें भंडार दे।
विद्या का हमें अधिकार दे,
हमें श्रेष्ठ बुद्धि अपार दे।
नफरतों से हमें दूर रख,
प्यार हमें बेशुमार दे।
माँ शारदे हमें वरदान दे,
हमको नवल उत्थान दे।
अज्ञानता से हमें मुक्त कर,
ज्ञान का हमें प्रकाश दे।

- भुवनेश मालव




!! हुण लगी बरखा !!
तीन महीनेया रा हुई गयी रा था एडा लम्बा अरसा।
हुण जाई कने हुणे लगी बरखा।।
डोहरुआ री कणक हुई गयी री थी पियुली।
सारे डाल लगी गयी रे शुकणे जिहां सुकी री हुयीं चिहुले।।
काले काले बादल देखी करीने खुश हुई गया जीयू।
हुण ता बरखा लगी सौगी लगेया पौणे हियुं।।
सभी लोके पैहनी लयीरे अपणे मोटे मोटे गर्म कपड़े ।
खाडा औणे लगेया पाणी कने भरने लगे जंगला रे छपड़े।।
नकाल पौणे ते हुण जाणा बची।
पाणी ने सौगी सौगी फसल भी हुणी अच्छी।।
हुण दबारा खाणे जो मिली कराएं भोगड़े कने मूंगफली।
चूल्ही ले बैठी करीने घयाना पाणे रा दौर दबारा पैया चली।।

- विनोद वर्मा

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!! शेष !!
'कल, आज और कल'
यही जीवन है;
इसके आगे 'मृत्यु और रहस्य' है।
श्मशान तक,
यह जो सड़क जा रही है-
इसी पथ से होकर
तुम्हें ले जाया जाएगा;
जीवन के बाद,
मृत्यु की यथार्थता के साथ,
उसी 'रहस्य' की ओर
जहाँ जीवन का अंत होता है,
मृत्यु आती है
और 'रहस्य' ही शेष रहता है।
इसी 'रहस्य' से जीवन जन्म लेता है
और ईश्वर भी।

- अनिल कुमार केसरी


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हाल ए दर्द
सस्ती चीजों को जब भाव दिये ।
लगता है जैसे खुद को घाव दिये ।।
झाँव - झाँव सी जिंदगी हो गयी,
उन्हीं ने किये जिन्हें सुझाव दिये ।।
कभी जिनकी ताव पर काम आये,
आज वही बात बात पर ताव दिये।।
कौर कौर का ये कसैलापन खूब हैं,
जबकि आवभगत में खूब चाव दिये।।
तैरकर उल्टी धारा जिन्हे पार उतारे,
आज मजधार में वही डुबो नाव दिये।।
आज जो उनकी नींद उड़ी उड़ी सी है,
कभी अपनी नींद को नहीं ठाँव दिये।।
विकास समेट कर अपने आगोश रख,
यहाँ दोस्त भी दुश्मन सा बर्ताव दिये।।

- राधेश विकास

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क्या लिखू माँ तेरे बारे में..
जब भी इस भीड़ में खुद को अकेला पता हूं...
तुम्हें याद करके अपना अकेलापन दूर कर पता हूं...
दोस्त भी तुमसे अच्छा कहा है माँ...
वो तो काम आने पर याद करता है...
पर तुम जैसी तो माँ दुनिया मे कोई दोस्त भी नहीं...
जो बिना बात पर भी मेरी राह तकती है...
वो उस मंदिर कि घंटिया भी अब उस तरह नहीं बजती...
जो तू मुझे गोद मे उठाकर बजवती थी...
अब वो भगवान भी बदल गया माँ...
जो तुम्हरे बोलने पर बोलता था...
तुम्हारे बुलाने पर आता था...
अब तो वो भी मेरे साथ ऐसा खेल खेलता है...
कि हर खेल मे भी तू ही याद आती है..
मेरी हार को मेरी जीत बनाने वाली
ओ... ओ... ओ... मेरी माँ..
तुम्हारी हर पल बहुत याद आती है...

- अमन वशिष्ठ


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