अब नहीं सोचती मैं
दुनियां के बारे में,
सदियों से जमी काई के समान,
कुछ व्यवस्थाओं को बदलना
मेरे वश की बात नही,
जब भी करती हूँ प्रयास,
तब तब होता जाता है मुझे,
मेरी गौण सूक्ष्मता का आभास,
और सोचती हूँ कि मैं,
कर भी कैसे सकती हूँ कुछ,
जब बनाने वाले ने दे दी स्वतंत्रता,
सबको गढ़ने को अपना जीवन,
और उन्हीं कर्मों से उपजा,
फलित होता जाता जीवन,
फिर शिकायत किससे ?
उसने दे डाली है कुछ इंद्रियां,
खेलने के लिए पासों की तरह,
क्या जीवन चक्र एक खेल है?
यदि खेल है तो, है नियम कहाँ,
फल की इच्छा भी हो,
पर अपेक्षा नही हो,
सही मार्ग पर चलना भी हो,
परन्तु राहें हो धुंधली सभी,
इंद्रियां सक्रिय, पर सबल नही,
भटकन ही केवल प्रबल रही ,
जहाँ कर्म भी हो, और इच्छा भी,
आनंद भी हो, समीक्षा भी,
यह खेल बहुत विचित्र हुआ,
दूर की कौड़ी भी देख सके,
और रहे लक्ष्य पर नज़र भी,
संघर्ष भी हो, पर आनंद भी हो,
जो हँसते हँसते खेल गया,
वो सजीव रहा, वही जीत गया,
मैं लिप्त भी हूँ, निर्लिप्त कभी,
मैं प्रेम में हूँ, मैं प्रेम भी हूँ ,
मैं कारक भी, हुई कर्म भी मैं,
और स्वयं के कर्मों का फल भी मैं...
मैं ही हूँ, मेरी दुनियां
जिसे निर्मित कर चल रही सदा..
धीमे पाँव, बढ़े कदम मेरे
संवारती चलूँ, बस आसपास...
बस आसपास...
- स्नेहा देव, दुबई
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