साहित्य चक्र

16 December 2022

कविताः रिश्तों की परछाईयाँ




ज़िन्दगी के रोशनदान से
झांक रही रिश्तों की परछाईयाँ
दबे पांव हौले से आकर करती है
अनगिनत बातें मुझसे !
जिसमें होती है बचपन की यादें
मायके का प्यार और रिश्तों का दुलार
माँ की लोरी, पिता का प्यार
भाई की नसीहत, बहनों की नोक झोंक !
फिर दबे पांव आती है जीवन में
एक नये रिश्ते की सौगात
जहाँ प्यार से ज़्यादा होता है
जिम्मेंदारियों का एहसास
अपनी मिट्टी से कटकर
एक नए घर मे खुद को
स्थापित करने का एहसास !
रिश्तों के अनगिनत मायने बदलते
कई सारे चेहरे और उनके नाम
और उनमें छिपा एक इकलौता "शख्स"
हाथ थामे कहता है:
" चलो पार करले एक साथ मिलकर
जीवन की ये नदी
तुम नाव मैं पतवार बनू
तुम आस मैं सांस बनू
और मिलकर सार्थक करे रिश्ते की परिभाषा"
आज सच मे रोशनदान से छनकर आती रोशनी
कहती है मुझसे "प्यार की मिठास समेटे
तुम्हारी ज़िन्दगी ने जीत ली है रिश्तों की मर्यादा
एक नारी की परिभाषा
जो रखती है हर संबंध का मान"

- राधा शैलेन्द्र


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