साहित्य चक्र

24 December 2022

शीर्षक- अनजान हैं हम

अनजान हैं हम



74 साल आज़ादी के पर 
कितने आज़ाद हैं हम ?
सांस भी लेना मुश्किल,
बस इतने ही आज़ाद हैं हम।

बेटियाँ सुरक्षित नहीं, कहीं भी,
माँ कोसे कितने लाचार हैं हम।
युवा को रोज़गार नहीं, करे गुहार.
क्या इतने ही ईमानदार हैं हम।

शिक्षा भी अब खेल बनीं,
हर हाथ मोबाइल है।
हर घर रसोई गैस,
फिर भी कितने चूल्हे धधक रहे,
क्या देते कोई हिसाब हैं हम??

किसान कहे मेरी सुनो, सहे सारे अत्याचार,
हुए महीने 6 ,पर हिले नहीं सरकार,
अब इतने बेज़ार है हम।

मज़दूर रोये,माली रोये और रोये सब्ज़ी वाला,
न काम है, न ठिकाना और
न ही खाने को ढंग का निवाला!

TA, न DA और महंगाई....
वेतन से भी खेलें,
ऐसे थानेदार हैं हम।
इनके नहीं क्या गुनहगार हैं हम।

सारी सीमा घेरे में हैं,
नक्शा बिगड़ने को है,
गरीब हो रहा और गरीब,
अमीर हुआ और अमीर,
इन गणीतों से अनजान हैं हम।

आरक्षण सब मांगे पर
आरक्षित कुछ ही कहलाएं
सब जान कर भी अनजान हैं हम....
आरक्षण सब मांगे पर
आरक्षित कुछ ही कहलाएं
सब जान कर भी अनजान हैं हम.....
अनजान हैं हम!

- अपर्णा सचान 

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