साहित्य चक्र

02 December 2022

कविताः खाने खिलाने का तजुर्बा



एक नेता,
 दूसरे नेता के पास
 दौड़ा दौड़ा आया 
शरमाया - सकुचाया ओर 
गला फाड़कर चिल्लाया।

बेचारे पहले नेता को,
 झपकी से जगाया,
ओर बुदबुदाया, 
लो यह मिठाई खाओ 
और बिन त्यौहार ही खुशियां मनाओ।

 पहला नेता डर गया
 उसकी इस हरकत से सहम गया
 और चौक कर बोला 
अरे भाई यह मीठा मुंह क्यों करा रहे हो
 क्या तुम्हारी कोई लॉटरी लग गई है
 या किसी जनता का
 खून चूस कर आ रहे हो
  अरे नहीं, भाई लॉटरी तो
 सरकार ने बंद करवा दी
 और मैं क्यों भला
 खून चूसने लगा
 क्या मुझे जूस नहीं मिलता।

बात कुछ यू है 
हमारे राजनीतिक दल दल में,
एक और भ्रष्टाचारी आ रहा है
 जो अपने आगमन का 
ढोल बजा रहा है 
पहला नेता , मगर वह अभी अनाड़ी है
 राजनीति में कच्चा खिलाड़ी है 
वह पागल है जो 
देश में लगी दीमक को
 मिठाई खिला रहा है
 अरे नहीं वह तो
 मझा हुआ इंसान हैं 
इंसान के पीछे शैतान है
 आज खिला रहा है
 कल खा रहा होगा 
यही तो उसकी चाल है
 मिठाई को उसने बनाई ढाल है 
अपने आगमन के साथ ही
 उसने राजनीति का
 पहला गुर सीख लिया
 खाने खिलाने का तजुर्बा जान लिया।


कमल राठौर 'साहिल'


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