साहित्य चक्र

28 January 2020

मेरी यादें...

अक्सर जाती हूं उस जगह पर मैं,
जिसकी मिट्टी से मेरा नाता है,
होंगी हज़ार जगह घूमने के लिए,
लेकिन उस जगह से खूबसूरत कोई भी नहीं,
मेरे जन्म से उसका गहरा नाता है।।


उस घर की चार दीवारों में गुज़रा मेरा बचपन,
अक्सर मुझे याद आता है,
सारे लम्हें समेट कर ,
हर वो पल याद करती हूं,
बैठ अकेले मैं,
ख़यालो में फिर से अपना बचपन जीती हूं।
अपने बाबा संग खेलती थी मैं,
सबकी दुलारी थी,
अपने घर के आंगन की लक्ष्मी थी,
ऐसा मां मुझसे कहती थी।।


अक्सर जाती हूं उस जगह पर,
मेरी पाठशाला की जहां से शुरुवात हुई,
आज भी याद करती हूं,
कैसे मां खेल खेल में मुझे पढ़ाती थी,
छोटी सी थी फिर भी भाई संग 
पाठशाला जाने की ज़िद करती थी।।


वो हर याद गहरी है,
जो मेरे दिल से जुड़ी है,
अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत की जहां से,
वो घर कैसे भूल जाऊ,
ये पक्के घर उन यादों को धुंधला नहीं कर सकते,
मुझसे मेरी यादें  छीन नहीं सकते,
अक्सर जाती हूं मैं उस जगह पर,
जो मुझसे जुड़ी है,
मेरे अपनों से जुड़ी है।।


                                                 निहारिका चौधरी


27 January 2020

विनम्र निवेदन-



जयदीप पत्रिका हिंदी साहित्य का एक विशाल मंच यानि वेब साइट व एप्प बनाने जा रही है। जिसके लिए आप सभी की आर्थिक मदद की जरूरत है। अगर आप हमारी आर्थिक मदद करना चाहते है, तो कृपया नीचे दिए गए अकांउट, फोन-पे व पेटीएम नंबर पर आर्थिक मदद राशि भेज सकते हैं
                               धन्यवाद
पेटीएम नंबर- +91 9718294336
फोन पे- +91 9690163174

खाता संख्या- 5111997133
IFSC- KKBK0000180
खाता धारक- दीपक कुमार



संभल जाओ... अभी वक्त है।





संभल जाओ मेरे प्यारे... अभी भी वक्त हैं ।
अपनी संस्कृति को बचाओ यह मांग वक्त की है ।

भौतिकतावादी सुख सुविधाओं के पीछे नहीं दौड़ो ।
पाश्चात्य संस्कृति हावी होना सही न इसे तुरंत छोड़ो ।

अपने खुद के लिए ही जीना कोई जीना नही होता ।
अपने बहकने के लिए पीना यह कोई पीना नहीं होता। 

युवा दिल! जीते हो तो कुछ कीजिए राष्ट्र के लिए ।
देश की प्रगति ही समाज पथ प्रगति है अपने लिए ।

यह आपके मन का उगता सूरज नया विश्वास उल्लास ।
जगमग रहेगा और देता फैलाता रहेगा नया प्रकाश ।

यही अपना राष्ट्र धर्म है खोना नही हैं देशहित मे निरंतर ।
'रावत' अपनी संस्कृति राष्ट्रहित में रहे हरदम अग्रसर  ।।


                          सूबेदार रावत गर्ग उण्डू  "राज"


गणतन्त्र के सात दशक



परिवर्तन का जोश भरा था, कुर्बानी के तेवर में।
सब कुछ हमने लुटा दिया था, आजादी के जवर में।।

हम खुशनसीब हैं कि इस वर्ष 26 जनवरी को 71वाँ गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं। 15 अगस्त सन् 1947 को पायी हुई आजादी कानूनी रूप से इसी दिन पूर्णता को प्राप्त हुई थी। अपना राष्ट्रगान, अपनी परिसीमा, अपना राष्ट्रध्वज और अपनी सम्प्रभुता के साथ हमारा देश भारत वर्ष के नवीन रूप में आया था। हालाँकि इस खुशी में कश्मीर और सिक्किम जैसे कुछ सीमावर्ती या अधर में लटके राज्य कसक बनकर उभरे थे।

देश को एक संविधान की जरूरत थी। संविधान इसलिए कि किसी भी स्थापित व्यवस्था को इसी के द्वारा सुचारु किया जाता है। संविधान को सामान्य अर्थों में अनुशासन कह सकते हैं। 

संविधान अनुशासन है, यह कला सिखाता जीने की।
घट में अमृत या कि जहर है, सोच समझकर पीने की।।

2 वर्ष 11 माह 18 दिन के अथक और अनवरत प्रयास से हमारे विद्वत जनों ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान बना लिया था। लागू करने के लिए इतिहास में पलटकर उस दिवस की तलाश थी जब भारतीयों ने समवेत स्वर में पूर्ण स्वराज्य की माँग की थी। सन् 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में रावी नदी को साक्ष्य मानकर तय किया गया था कि 26 जनवरी 1930 को सम्पूर्ण भारत वर्ष में ध्वज फहराकर पूर्ण स्वराज्य मनाया जाएगा और जब तक हम पूर्ण स्वराज्य नहीं ले लेते, उक्त तिथि को हर साल पूर्ण स्वराज्य मनाते रहेंगे। इसी ऐतिहासिक गौरवपूर्ण तिथि की शान में 26 जनवरी का इंतज़ार करके 1950 में प्रथम गणतन्त्र दिवस मनाया गया। वह नन्हा सा बीज विशालकाय वृक्ष बन चुका था। 

यद्यपि हम स्वाधीन हो गए थे, गणतन्त्र हो गए थे, अंग्रेज हमें छोड़कर जा चुके थे, लोकतान्त्रिक संविधान लागू हो गया था जिसके मूल में जनता थी तथापि हमारे सामने कई चुनौतियाँ भी थीं। ब्रिटेन और वे देश जो वर्षों पूर्व स्थापित हो गए थे, हमारे विभाजन से बेहद खुश थे और बकुल ध्यान लगाकर बैठे थे हमारी संघीय असफलता की लालसा सँजोये। हमारे सामने न सिर्फ अन्तरराष्ट्रीय चुनौतियाँ थीं बल्कि विरोधी एवं कंगाल पड़ोसियों के साथ बहुतायत आन्तरिक समस्याएँ भी थीं। बढ़ती आबादी, अनियमित रहन- सहन, बेकाबू घुसपैठ, अशिक्षा, भूखमरी, दकियानूसीपन, पूर्वाग्रह, साहूकारी, अपर्याप्त फसल उत्पादन, ध्वस्त उद्योग धंधे, विविध विषमताओं से बढ़ती दूरियाँ, विरोध से जूझती राजभाषा तथा अपर्याप्त सैन्य शक्ति।

चुनौती बनीं ज्वलंत समस्याओं को हमारी सरकारों ने गम्भीरता से लिया और एक - एक कर हम आत्म निर्भर होते गए। विश्व बंधुत्व और पंचशील पर आधारित हमारी भावनायें भारत - चीन युद्ध में आहत तो हुईं किन्तु वैश्विक परिवेश में कमोबेश हमको समर्थन और सराहना भी मिली। बासठ की हार को सरसठ की जीत में बदल लिए। सबसे बड़ी बात यह रही कि हम शठे शाठ्यम् समाचरेत् को पुन: सीख सके। इस युद्ध को जीत - हार के रूप में न देखकर हमारे देश ने सीख के रूप में लिया जिसका परिणाम यह रहा कि ऐसे किसी भी युद्ध का मुँहतोड़ जवाब देने में हम सक्षम हुए। शास्त्री जी का जय जवान - जय किसान, इन्दिरा जी की हरित क्रान्ति और अटल जी के जय विज्ञान ने देश को त्वरित नव राह दिखाई। इस बीच कभी - कभी अल्प समयावधि के लिए लोकतन्त्र कमजोर और लाचार भी दिखा, वंशवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद और अधिनायकवाद के प्रकोप से चरमराया भी लेकिन लोकतन्त्र में निहित आंतरिक शक्तियाँ स्वयं ही लोकतन्त्र को उबारने में सफल हुईं। भूगोल से खगोल तक हम विकास का परचम गाड़ने में सफल रहे हैं।

अल्पकाल का दु:ख हमें आता नव राह दिखाने को।
जग में कौन पराया - अपना, हमको यह समझाने को।।

इन सत्तर वर्षीय यात्रा में हम स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, सरहद, सैन्य और संसाधन के रूप में बहुत कुछ हासिल कर लिए हैं। लेकिन आज भी कुछ बिन्दुओं पर हमें आशातीत सफलता नहीं मिल पाई है और साथ ही कुछ नयी समस्यायें भी पैदा हुई हैं। अनियन्त्रित रूप से बढ़ती हुई आबादी को हम रोक पाने में सफल नहीं हुए हैं। जनप्रतिनिधियों के नैतिक पतन से भ्रष्टाचार और घोटालों पर अभी पूर्ण लगाम नहीं लग सका है। कुर्सी पाने के लिए असम्भव वादों के लॉलीपॉप अभी भी बाँटे जाते हैं। देश के कुछ क्षेत्रों में अभी भी पीने के पानी की समस्या को हम हल नहीं कर पाए हैं। विकास के अंधाधुंध दौड़ में मानव जनित कुछ समस्यायें नींदें उड़ा रहीं हैं। बीसवीं सदी में प्लास्टिक वरदान बनकर आया था और इक्कीसवीं सदी का सबसे भयानक अभिशाप बन गया। पर्यावरण को हर ओर से क्षति पहुँची है। जनसंख्या, घुसपैठ और बेरोजगारी पर अंकुश नहीं है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अंग्रेज तो चले गए किन्तु अंग्रेजियत को हम पकड़े रहे। दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भागते हैं। दिन रात प्राणवायु देने वाली तुलसी को फेंककर हम कैक्टस व मनी प्लॉंट लगाने लगे हैं। माँ के समान गाय के बदले हम कुत्ते पालने लगे हैं। माँ - बाप को अनाथालय में भेजकर घर में निर्जीव मोनालिसा को स्थापित करने लगे हैं। सामाजिक सम्बंधों को मिटाकर आत्मकेन्द्रित हो रहे हैं। चौकी और चौका में बड़ा अन्तर कायम करके हम दोहरा व्यक्तित्व जीने में खुद को अग्रणी मानने लगे हैं।

भाषा को हथियार बनाकर, जनगण को ही लड़ा दिया।
सरफ़रोश जिसने सिखलाया, अंग्रेजी से हरा दिया।।

हमें किसी भी भाषा से कोई ऐतराज़ या विरोध नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी से भी नहीं है। किन्तु जब अंग्रेजी भाषा कुत्सित साजिश के तहत थोपी जाती है या यूँ कहें कि अंग्रेजी बोलने वाले आज से सौ साल पीछे जाकर अपने को ब्रितानी वायसराय और गैर अंग्रेजी वालों को गुलाम समझने लगते हैं तो सहिष्णुता विद्रोह कर जाती है। सच पूछिए तो सन् 1947 में हुकूमत हस्तान्तरण के वक्त आम जनता स्वीधीन होने के जो सपने देखी थी, जल्दी ही ध्वस्त हो गए। जन साधारण के सामने एक स्याह पक्ष यह भी उभर कर आया कि अफसरों, नौकरशाहों, उद्योगपतियों और जनप्रतिनिधियों की सोच अंग्रेजियत से बाहर नहीं। कहीं न कहीं इनके मन के किसी कोने में खुद को शोषक बनए रखने की मंशा कायम रही और कमोबेश आज भी है। 

नेताओं की बात न पूछो, आग लगाते पानी में।
बद से बदतर हो जाते हैं, कुर्सी की नादानी में।।

सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि विकास के पथ पर हम निरंतर अग्रसर हैं इसलिए छोटे - मोटे साइड इफेक्ट्स आने स्वाभाविक हैं। देश में दशकों से नासूर बनी समस्याओं से हम हम हाल में निजात पाने हेतु कृतसंकल्प हैं और सफल भी हो रहे हैं। दुनिया के प्रभुता सम्पन्न सक्षम देशों में हमारी साख और औकात बढ़ी है जो सकारात्मक ऊर्ज्य है। एक जागरूक नागरिक बनकर एक जुटता के साथ किसी भी आगामी साइड इफेट्स के प्रति सावधान रहना होगा। पर्यावरण के प्रति पूर्ण सचेत रहना होगा। इस पावन अवसर पर पूरी ईमानदारी से शपथ लेना चाहिए कि तिरंगे का सम्मान और देश की अस्मिता के लिए हम एक सच्चे नागरिक बनकर हर कुर्बानी हेतु सदैव तत्पर रहेंगे।

                           

गणतन्त्र के दिवस पर करते हैं हम ये वादा।
पूरा  करेंगे  सपना,  पक्का  है ये इरादा।।

डॉ. अवधेश कुमार अवध


प्रेरक बाल कथा - शरारती अमर




           अमर दसवीं कक्षा की पढ़ाई कर रहा था।आमतौर पर इस कक्षा के विद्यार्थी काफी शरारती होते हैं और उसी प्रकार अमर का भी व्यवहार काफी शरारती था।


          

अमर पढ़ने में एवरेज बच्चा था और उसकी कोशिश हमेशा पेपरों से बचने की रहती थी।दसवीं के प्री बोर्ड के एग्जाम चल रहे थे।अमर काफी घबराया हुआ था क्योंकि उसकी तैयारी पेपरों के लिए अच्छी नहीं थी।
          

          अमर अपने पिता से भी काफी डरता था।हालांकि उसके पिता का स्नेह उसके प्रति बहुत ज्यादा था क्योंकि वह अपने माता-पिता का इकलौता बेटा था।


           अमर का परसो गणित का एग्जाम है लेकिन उसकी तैयारी बिल्कुल भी नहीं है।पिता से डरा हुआ अमर समझ ही नहीं पा रहा था कि किस तरह पेपर से बचे ताकि उसे अपने पिता से डॉट ना पड़े।


           आखिर वह सुबह आ ही गई जब उसकी परीक्षा होनी थी।अमर काफी घबराया हुआ था।तभी उसने अपना दिमाग लगाया और बहुत जोर से पेट में दर्द होने का नाटक किया।


          वह दर्द से बड़े ही नाटकीय अंदाज में कराह रहा था।क्योंकि उसके माता-पिता उससे बहुत प्रेम करते थे।इसलिए वह दोनों घबरा गए और अमर के पिता उसे तुरंत एक बड़े से हॉस्पिटल में लेकर चल पड़े।


          अमर को इस बात की बहुत खुशी थी कि अपने इस नाटक से वह परीक्षा देने से बच जाएगा।अमर के पिता किसी फैक्ट्री में बड़ी ही मेहनत-मशक्कत से घर की जीविका चलाने लायक ही कमा पाते थे।


           अमर के पिता ने अपनी आमदनी के हिसाब से अपनी औकात से भी ज्यादा बड़े स्कूल में अमर को पढ़ाया था ताकि उसका भविष्य उज्ज्वल हो जाये।


          अब वह अमर को लेकर हॉस्पिटल पहुंच गए।डॉक्टर ने अमर के पेट को हर तरफ से दबाया और काफी देर जांच करने के बाद उन्होंने अमर के पिता को बताया कि शायद अमर को अपेंडिक्स है और उसको एडमिट करके ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है।

           अब अमर अपने नाटक पर काफी पछता रहा था।छोटा बच्चा इतना घबरा गया कि शायद उसे ऑपरेशन ना करवाना पड़ जाए इस डर का उसके पास कोई हल नही था और वो अपने ही बुने जाल में फस गया था।

          अमर को अस्पताल में एडमिट कराया गया।दो दिन तक उसके सभी टेस्ट कराए गए जिसके उपरांत डॉक्टर ने उसके पिता को उसे छुट्टी ले कर घर जाने के लिए कहा और बताया कि शायद कुछ खाने-पीने का इंफेक्शन था।जिसकी वजह से उसके पेट में दर्द हुआ।


           दो दिन के इलाज में उसके पिता की बड़ी ही मेहनत की कमाई से जुड़े हुए लगभग ₹40000 इस प्रक्रिया में खर्च हो गए।अमर अपने पिता के मेहनत से कमाए गए पैसे इस तरह जाने से बहुत परेशान हुआ और बहुत ही लज्जा महसूस कर रहा था।


           इसके बाद अमर ने कभी अपनी पढ़ाई से कभी मुँह नहीं फेरा और पूरी लगन से अपनी पढ़ाई में लग गया और दसवीं की परीक्षा में उम्मीदों से परे बहुत ही अच्छे नंबरों से उसने स्कूल को टॉप किया।


          दसवीं परीक्षा को पास करने के बाद उसने अपने पिता को बताया कि उसने प्री बोर्ड में नाटक किया था।जिसकी वजह से उसके पिता के काफी पैसे का नुकसान हो गया था।


           यह बताते हुए अमर की आंखों में पश्चाताप के आँशु थे।अमर के पिता ने अमर के सर पर हाथ रखा और अपने बेटे से कहा कि उसकी पढ़ाई के प्रति इस लग्न को देखने के लिए वह अपना कुछ भी देने के लिए तैयार है। आँखों में आँशु भरा हुआ अमर अपने पिता के गले लग गया।


                                                              नीरज त्यागी


गणतंत्र दिवस यह आया है।

नव उल्लास,नव उमंग लिए
गणतंत्र दिवस यह आया है।
जय हिन्द-जय भारत का
घर-घर अलख जगाया है।
गणतंत्र दिवस यह आया है।


छब्बीस जनवरी का वह दिन सुनहरा
अपना संविधान सबने पाया था।
वर्षों की खोई आजादी
पूर्ण स्वराज हमने पाया था।
नव उमंग,नव उल्लास लिए
गणतंत्र दिवस यह आया है।


तिरंगा झंडा यह मेरा
सत्य की राह दिखाता है।
कैसे पाया अपना कानून
पल-पल याद दिलाता है।

शहीदों को न्योछावर देकर
मां बहनों की आंचल सुनी कर के
अपना संविधान हमने पाया था।
नव उत्साह ,नव उमंग लिए
गणतंत्र दिवस यह आया है।


जरा याद करो उन लम्हों को
उन वीरों,वीर शहीदों को
जिनसे गौरवान्वित है भारत सारा
उन शहीदों की कुर्बानी पर
श्रद्धा सुमन अर्पित है मेरा
श्रद्धा सुमन अर्पित है मेरा।


वो सुखद एतिहासिक क्षण हमारा था
बजा था गणतंत्र का डंका
लोकतंत्र का नारा था।
राष्ट्र गान की मंगल ध्वनि
सबके लबों पर छाया था।

नव उत्साह नव उमंग लिए
गणतंत्र दिवस यह आया है
गणतंत्र दिवस यह आया है।

                                         अभिलाषा मिश्रा आकांक्षा



महिला सशक्तिकरण



"एक महिला का जन्म नहीं होता हैबल्कि उसे महिला बनाया जाता  है।"-सिमोन डी विभोर ईडन गार्डन में मूल पाप महिलाओं का था।उसने निषिद्ध फल का स्वाद लियाआदम को लुभाया।और वह तब से इसकी सज़ा भुगत रही है। उत्पत्ति मेंप्रभु ने कहा, “मैं तुम्हारे दुख और तुम्हारी धारणा को बहुत बढ़ाऊंगादु में तुम बच्चों को आगे लानाऔर तेरी इच्छा बच्चों को आगे लाएगीऔर तेरी इच्छा तेरे पति की होगीऔर वह तुझ पर राज करेगा। समाजजो कि मूल रूप से पितृसत्तात्मक हैउपरोक्त उद्धरण को समाज में महिलाओं की स्थिति को एक पौराणिक औचित्य के रूप में मान सकता है।

                                            

कई महिलाएं अपने जीवनसाथी के साथ अपने संबंधों के सारांश को देख सकती हैंजो कि उम्र के माध्यम से उनकी स्थिति का उचित विवरण है।लंबे समय सेमहिलाओं को सामान्य रूप से पुरुषों के संबंध में दुनिया में एक द्वितीयक स्थान पर कब्जा करने के लिए मजबूर किया गया हैजो कि नस्लीय अल्पसंख्यकों के साथ कई मायनों में तुलनात्मक स्थिति की सही दशा को प्रदर्शित भी करता है 

 महिलाओं को इस तथ्य के बावजूद हाशिये पर छोड़ दिया गया है कि वे आज मानव जाति के कम से कम आधे हिस्से का गठन करती हैं। इसके परिणामस्वरूप महिलाओं ने स्वतंत्र और स्वतंत्र संस्थाओं,जो बौद्धिक और व्यावसायिक एकता के समान तल पर पुरुषों के साथ जुड़ी हुई हैके रूप में अमानवीय गरिमा की जगह ले ली है।

पूर्व-कृषि काल मेंमहिलाओं को कड़ी मेहनत करने और युद्ध में भाग लेने के लिए भी जाना जाता था।हालांकि महिलाओं को सशक्तिकरण मेंप्रजनन का  बंधन एक कष्टकारक बाधा थी गर्भावस्थाप्रसव और मासिक धर्म ने काम करने की उसकी 
क्षमता को कम कर दिया और उसे धीरे-धीरे संरक्षण और भोजन के लिए पुरुषों पर अधिक निर्भर बना दिया। यह अक्सर ऐसे पुरुष थे जो शिकार करने और भोजन एकत्र करने में अपनी जान जोखिम में डालते थे।यह काफी विडंबनापूर्ण है कि श्रेष्ठता मानवता में उस सेक्स के लिए नहीं है जो जीवन को आगे लाती है और उसका पोषण करती हैबल्कि उसके लिए है जो जीवन को हरता है 


मानव समय के साथ खानाबदोश के रूप में बस गए और फिर सामुदायिक जीवन की उत्पत्ति हुई। समुदाय वर्तमान से परे एक निरंतर अस्तित्व की इच्छा रखता हैइसने अपने बच्चों में खुद को पहचान लियाऔर गरीबीविरासत और धर्म जैसी संस्थाएं भी दिखाई दीं। महिलाएं अब खरीद का प्रतीक बन गईं और बहुत बार उसे पृथ्वी से जोड़ कर भी देखा गया क्योंकि महिलाओं और पृथ्वी दोनों पर ही किसी और का ही अधिकार दिखाई देता है 

 बच्चों और फसलों को भगवान का उपहार माना जाता था। ऐसी शक्तियां पुरुषों में प्रेरित हैं जो डर से घुलमिल जाती हैं जो महिलाओं के देवी  रूप में उनकी पूजा में परिलक्षित होती हैं। हालांकिखुद में व्याप्त  शक्तियों के बावजूदएक महिला को बहुत ही प्रकृति की तरह अधीन और शोषित किया जाता हैजिसका प्रजनन वह स्वयं करती है।

"औरतआदमी के लिए , या तो एक देवी या एक डायन है।"

एक सामंती समाज में गड्ढे और कुरसी के बीच एक दोलन आम था। सामंतवाद से पूंजीवाद के संक्रमण मेंबढ़ते शहरीकरण ने महिलाओं के लिए उपलब्ध नए स्थानों को सामंती संपदाओं तक सीमित कर दिया। महिलाओं के यौन संक्रमण को निजता के प्रतीकघर से दूर उनके शाब्दिकआंदोलन के संदर्भ में देखा जाता है।

पितृसत्ता मेंगतिशीलता की संभावना महिला अवज्ञा का एक पहलू बन जाती है। उत्पीड़न की ऐसी धारणाओं के लिए एक सुधारात्मक परिपाटी की आवश्यकता महसूस की जा रही है।जब तक मानव जाति लिखित पौराणिक कथाओं के मंच तक पहुंचीतब तक पितृसत्ता निश्चित रूप से स्थापित हो चुकी थी। पुरुषों को हर समय कोड लिखना था और जाहिर है कि महिलाओं को एक सब-ऑर्डिनेट पद दिया गया था।होमोजेनिक विचारधाराओं की एक केंद्रीय विशेषता सार्वभौमिक दृष्टिकोण के सार्वभौमिक रूप से सच होने का प्रक्षेपण है।पितृसत्ताएक वैचारिक धारणा के रूप मेंएक ही सिद्धांत पर काम करती है।
 और फिर भीपुरुषों द्वारा सख्त प्रभुत्व के युग मेंसमाज ने उन महिलाओं को दूर फेंक दिया है जो पुरुषों के कैलिबर से मेल खा सकती हैंयहां तक कि पुरुषों के कौशल को भी पार कर सकती हैं।