साहित्य चक्र

30 December 2020

‘तुम इतना क्यों बदल गये'




याद करती हूँ जब भी तुम्हें,
टीस सी उठती है मन में।  

अपने आप में मैं तो खुश थी, 
जाने तुम क्यों आ गए जीवन में? 
करते थे कैसी मीठी - मीठी बातें, 
यूँ ही बातों में बीत जाती थी रातें। 

कैसे जगह बना गये थे तुम दिल में, 
वादों की दी थी न जाने कितनी सौगातें। 

कभी-कभी बात करते तुम शरमाते, 
कभी अपनी बातों में मुझे भी उलझाते। 

करते प्यार भरी बातें बहुत मगर, 
बातों बातों में दुनियादारी भी समझाते। 

कभी-कभी सोचती हूँ कि अचानक, 
फिर तुम इतना क्यों बदल गये? 
प्यार भर कर मेरे दिल में अपना,
जाने किस राह पर तुम निकल गये। 

सुनो, तुम्हें सोच कर आज भी, 
चेहरे पर मुस्कान रहती है मेरे। 

सुन लूँ तुम्हें एक बार है यही ख़्वाहिश, 
तोड़ दो अब तो यह खामोशी के घेरे।

                                                       कला भारद्वाज


24 December 2020

अटल बिहारी वाजपेई जी के जन्मदिवस पर विशेष




राजनीति का अटल पुरोधा, भारत का अनमोल रतन।
भारत-मां  की  सेवा  में वो करता रहा हर एक यतन।

अटल सत्य ये अटल बिहारी में सबका विश्वास रहा।
पक्ष-विपक्ष रहा हो लेकिन, सबके दिलों में वास रहा।

अडिग,अटल विश्वास तुम्हीं पर इंद्रा जी ने तुम्हें चुना।
तुम्हें  पठाया  था  विदेश  में, भारत मां का दूत बना।
  
अचल,अटल अविराम रहे,मेधा अमित,अनन्त विशाल।
अर्पण,तर्पण चन्दन से किया भारत मां का उन्नत भाल।

तोड़ निरंकुशता सत्ता की, एक नया इतिहास रचा।
पाषाणों में फूल खिलाया जन-जन में विश्वास जगा।

चारों खाने चित्त हुए तब एक अटल की बोली में।
और हड़कंप मचा ड़ाला तब गद्दारों की टोली में।

भारत डरता नहीं  किसी से, पोख़रण में बतलाया।
किया परिक्षण परमाणु ,भारत का लोहा मनवाया।

जी भर जिया शान से जीवन,दिया पंक में कमल खिला।
भारत मां को किया समर्पित,घट को जब तक श्वांस मिला।       ‌‌          

जान  फूंक दे पाषाणों में ऐसी  रच  डालीं  कविता।
संघर्षों से रार ठान कर, किया सुसज्जित अस्मिता।

व्यथित  किया  हृदय पीड़ा ने, मुश्किल  में  भारत-शुचिता।
लिख दी तुमने काल कपाल पर,कालजयी अनुपम कविता।

जब तक जिया राष्ट्र की खातिर, नहीं कभी विश्राम लिया।
अनुकरणीय दीर्घ यात्रा को फिर, तुमने अटल विराम दिया।

                                     राजश्री


19 December 2020

"पापा बदल गए हैं"





राम प्रसाद जी आज ही वृद्धाश्रम में रहने आए थे। उन्होंने कमरे में अपना सामान रखा। सामान के नाम पर वो एक चटाई लेकर आए थे, एक बक्सा और एक थैला। बक्से का ताला लगा हुआ था। थैले में एक लौटा था, एक फूलों की माला, उनकी पत्नी की, फ्रेम की हुई एक फोटो और उनकी डायरी। कमरे में, पलंग के पास रखे स्टूल पर उन्होंने अपनी पत्नी की फोटो रखकर उसे फूल माला पहना दी। लौटा उसके सामने रख दिया और डायरी तकिए के पास रख दी। बक्सा पलंग के नीचे रख दिया और कार्यालय की और चल दिए। मैनेजर ने उनसे  आवेदन पत्र  भरकर जमा करने को कहा और उनके परिवार के विषय में पूछा। आवेदन पत्र भरने के बाद उन्होंने बताया कि उनके परिवार में उनकी पत्नी उनके साथ रहती थी, जो अब भगवान को प्यारी हो गई है। बेटा कई सालों से विदेश में नौकरी करता है। अपने परिवार के साथ वहीं रहता है। कॉरोना के चलते अपनी मां के अंतिम संस्कार में भी शामिल नहीं हो पाया लेकिन स्थितियां सामान्य होते ही उनसे मिलने आएगा। 

मैनेजर को उनकी बात सुनकर हंसी आ गई लेकिन फिर उदास हो गया। रामप्रसाद जी के पूछने पर उसने बताया," सर यहां आने वाले सभी बुजुर्ग आने के समय यही कहते हैं कि उनके बच्चे व्यस्त रहते हैं लेकिन उनसे मिलने आएंगे जबकि वो सभी इस बात को जानते हैं कि उनके बच्चों की बेरुखी के चलते ही उन्हें वृद्धाश्रम आना पड़ा है, वरना हंसी खुशी कौन अपना घर छोड़कर आता है यहां रहने।"

आपने जब कहा कि जल्द ही आपका बेटा आएगा, तो मुझे हंसी आ गई लेकिन जब लगा कि आपकी इच्छा अधूरी रह जाएगी तो मैं उदास हो गया। रामप्रसाद जी मुस्कुराकर बोले," लेकिन मेरा बेटा ज़रूर आएगा।" मैनेजर ने, आत्मविश्वास से भरे उनके चेहरे की ओर देखा और फिर सिर झुकाकर अपने काम में व्यस्त हो गया। रामप्रसाद जी अभी कार्यालय में ही थे, मैनेजर के सामने आकर बोले," मैं पढ़ा लिखा हूं, कार्यालय के कामों में तुम्हारी मदद कर सकता हूं, यदि तुम्हे उचित लगे तो।" मैनेजर ने फिर आश्चर्य से उन्हें देखा," सर, यहां आकर सब अपने परिवार वालों को याद करते रहते हैं, उनके ही बारे में बात करते रहते हैं, काम में मदद करने के बारे में तो कोई सोचता भी नहीं। आप तो आज ही आए हैं, अभी से काम करने के बारे में सोच रहे हैं।" रामप्रसाद जी ने उत्तर दिया," मुझे खाली समय बिताना बिल्कुल पसंद नहीं है, इसलिए तुम्हारे पास चला आया। पत्नी चली गई है,भगवान के पास। बेटा कई सालों से  विदेश में रहता है, अपने परिवार के साथ। याद किसको करूंगा बेटा?" मैनेजर उनके जवाब से काफी प्रभावित हुआ। उसने तुरंत उन्हें काम समझा दिया। रामप्रसाद जी की दिनचर्या नियमित हो गई।

सुबह नहा धोकर, पूजा करके, कार्यालय आ जाते और पूरा दिन वहीं पर काम करते। शाम को कार्यालय बंद होने पर अपने कमरे में आ जाते। अपने साथ रह रहे दूसरे बुजुर्ग लोगों से बातचीत करते, थोड़ी देर कुछ पढ़ते और अपनी डायरी में कुछ लिखकर सो जाते।

उन्हें वृद्धाश्रम आए हुए एक महीना हो चुका था। मैनेजर ने एक दिन उन्हें याद दिलाया कि उनका बेटा अब तक नहीं आया उनसे मिलने। रामप्रसाद जी ने काम करते करते उत्तर दिया," इसी महीने की पच्चीस तारीख को आएगा।" पच्चीस सितंबर को कार्यालय में अत्यंत आधुनिक वेशभूषा पहने, एक आकर्षक युवक ने प्रवेश किया। उसने अपना परिचय विनय प्रसाद कहकर दिया। मैनेजर के पूछने पर उसने बताया कि वह रामप्रसाद जी से मिलने आया है। रामप्रसाद जी, नजरें झुकाए अपने काम में व्यस्त थे। मैनेजर ने उन्हें बुलाया तो विनय के सामने आकर बैठ गए। विनय के कुछ बोलने से पहले ही उन्होंने उसे बताना शुरू किया," तुमने आने में बहुत देर कर दी बेटा, मैंने सब कुछ इस वृद्धाश्रम के नाम कर दिया है।" विनय ने गुस्से से उन्हें देखा, कुर्सी से खड़ा हो गया। " आपका मैसेज पढ़ा था मैंने। आपकी संपत्ति में मेरा भी हिस्सा है, आप मेरा हिस्सा किसी को नहीं दे सकते। मैं कोर्ट तक जाऊंगा अपने हक के लिए।" रामप्रसाद जी की आंखे नम हो गई लेकिन कमजोर नहीं पड़े। " कोर्ट में जाने के लिए अपने देश में आना पड़ेगा बेटा। अच्छा ही है, तुमसे मिल तो सकूंगा। तुम्हारी मां तो तुमसे मिलने की इच्छा मन में लिए ही चली गई। तुम्हे समय नहीं मिल पाया। संपत्ति के लिए ही सही तुम्हे समय तो मिलेगा।" विनय ने नफरत से उनकी और देखा और पैर पटकता हुआ बाहर चला गया।

                                                                                   अर्चना त्यागी




चुनौती


जब-जब इंसान ने अपने अहम से
इंसानियत को मारा है
तब-तब उसने महाकाल को ललकारा है
सिर्फ एक आँधी से निस्तब्ध सब 
श्मशान और शहर में फर्क़ अब कहाँ है? 

अब क्यों घबराता इंसान?
अब क्यों रोता इंसान?
कमज़ोरों की नज़रों में डर को देख हंसता
आज उस डर से क्यों डरता इंसान?

जैसे कोई कहता आँखों में उंगली डाल...

तुम कुछ नहीं 
प्रकृति के वक्ष पर 
एक तुच्छ प्राणी हो मात्र 
एक छोटी सी आहुति से निःशब्द हो गए 
मनमानी, विलासी, विजयी बन
तुमने जिस तेज को ललकारा है 
उस चुनौती को स्वीकार 
महाकाल ने एक पलटवार ही तो किया है। 

                                  -आँखी दास


उदासी से... परे





चाहे!!! जिंदगी उदास हो....
उदासी भरा दिन,
उदासी भरी एक लंबी रात हो...
 वही जिंदगी की,
 चक्की पर चलती।
 दिन और रात के कामों की,
 हर दिन की तरह वही लिस्ट हो।

 चाहे!!!जिंदगी उदास हो.....
 गलियों से गांव...
 गांव से शहर....
 फिर चाहे!!!!
 शहर से जंगल तक उदास हो।

 एक धुंध में पसरी हुई,
 जिंदगी की हर आस  उदास हो।

 सुनना खामोशियों के शोर,
 और खुद से बात करना।
  भीड़ का तो.....
  हर इंसान अकेला है।
 फिर किस साथ के लिए उदास हो।

 मिलोगे ना जब तुम खुद से,
 हर तरफ उदासी दिखेगी।
 प्यास....   बाहर नहीं।
 तुझे तेरे भीतर ही मिलेगी।

 
                           प्रीति शर्मा असीम

"आँचल "




जब माँगी होगी एक स्त्री ने ख़ुदा से
दर्द को तुरंत कम करने की औषधि।
तब ईश्वर ने उसे नज़राने में
एक कोमल आँचल दिया होगा।

जब लगाया होगा एक स्त्री ने
शिशु को अपने दामन से।
तब ईश्वर ने उसके करो की
थपकी में,
सुकून का अमृत दिया होगा।

जब टूट कर बिखरें किसी पुरुष ने
खुद को हताश पाया होगा।
तब एक स्त्री ने ,
अपने इसी आँचल तले,
उसकी पीड़ा पर मरहम लगाया होगा।

जब बहा दिये होंगे उस पुरुष ने 
अपने पीड़ा युक्त अश्रुजल।
तब एक स्त्री ने,
इन्ही अश्रु कण को,
अपने आँचल का नवरत बनाया होगा।

जीवन के हर ख़ुशी और गम में,
प्रत्येक पीड़ा पर उसने
एक ही उपचार चलाया होगा।
आँचल के एक सिरे पर गाँठ बाँध कर,
स्त्री ने हर भय को दूर भगाया होगा।


                                                ममता मालवीय "अनामिका"


मैं छोटा सा आदमी



 मैं छोटा सा आदमी
 छोटी सी दुनिया मेरी 
छोटा सा शहर है
 छोटी-छोटी ख्वाहिश है 
छोटी छोटी खुशियां मेरी 
मैं छोटा सा आदमी

 बड़े लोगों में छोटा महसूस करता हूं
 महफिलों के काबिल नहीं 
अपनी ही दुनिया में मस्त रहता हूं
 मैं छोटा सा आदमी

 मगर बड़े हैं संस्कार मेरे
 बड़े हैं विचार मेरे
 बड़ी है मंजिलें मेरी
 जिन पर नि :संकोच निडर हो
 मैं चलता हूं 
मैं छोटा सा आदमी हूं

                                     कमल राठौर साहिल