समझें न गति करना नादानी ,
यह कहता नित बहता पानी ।
अगर न मैं उद्गम से बढ़ता ,
निश्चित वहीं रहकरके सड़ता ।
गति न करें जो ग्रह - नक्षत्र ,
मच जाये हा-हाकार सर्वत्र !
रात-दिन अगर न हो पायें ,
प्राणी तड़फ कर मर जायें !
माह-ऋतु मिट जायेंगे सब ,
प्रातः-सायं न कुछ होंगे तब !
न फसलें और न फल-फूल ,
होगी नहीं वर्षा धूल ही धूल !
पौधे-प्राणी कैसे कर जीयेंगे ,
क्या खायेंगे औ क्या पीयेंगे !
प्रकृति स्वयं परिवर्तन करके ,
लाभकारी बनती है हर के ।
परिवर्तन से होता नव सृजन ,
फूल-फलदिखते वन-उपवन ।
ऐसे ही जग के सारे प्राणी ,
अपनायें प्रकृति की वाणी ।
परिवर्तन है बहुत जरूरी ,
इसे न समझें कोई मजबूरी ।
सबकुछ स्थिर हो जाये गर ,
परिणाम सोचें मन में हर !
गर्मी - सर्दी बरसात न धूप ,
फिर न दिखेगा कोई रूप !
बाग - बगीचा वन - उपवन ,
नजर नहीं आयेंगे ए धन !
पशु-पक्षी-मानव-नदी-झरने ,
लग जायेंगे सबकेसब मरने !
प्रकृति से यह लेकर सीख ,
चलें सदा उसी की लीक ।
मरने का नाम रूक जाना ,
गति करना है बड़ा खजाना ।
कभी न जीवन में रुक पायें ,
पल - पल आगे बढ़ते जायें ।
सृष्टि का यह जो बीज मन्त्र ,
इस कारण हुई नहीं परतंत्र ।
- डॉ.सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी
No comments:
Post a Comment