साहित्य चक्र

30 December 2022

बाल कविताः परिवर्तन से नव सृजन

  



समझें न गति करना नादानी , 
यह कहता नित  बहता पानी ।

अगर न  मैं  उद्गम  से  बढ़ता ,
निश्चित वहीं रहकरके सड़ता ।

गति न करें  जो  ग्रह - नक्षत्र ,
मच जाये  हा-हाकार  सर्वत्र !

रात-दिन  अगर  न हो  पायें ,
प्राणी  तड़फ कर  मर जायें !

माह-ऋतु  मिट जायेंगे  सब ,
प्रातः-सायं न कुछ होंगे तब !

न  फसलें और न फल-फूल ,
होगी नहीं वर्षा धूल ही धूल !

पौधे-प्राणी कैसे कर जीयेंगे ,
क्या खायेंगे औ क्या पीयेंगे !

प्रकृति स्वयं परिवर्तन करके ,
लाभकारी  बनती है  हर  के ।

परिवर्तन से होता नव सृजन ,
फूल-फलदिखते वन-उपवन ।

ऐसे  ही  जग के  सारे प्राणी ,
अपनायें  प्रकृति  की  वाणी । 

परिवर्तन  है   बहुत  जरूरी ,
इसे न समझें  कोई मजबूरी ।

सबकुछ स्थिर  हो जाये  गर ,
परिणाम  सोचें  मन  में  हर !

गर्मी - सर्दी  बरसात  न धूप ,
फिर न  दिखेगा  कोई रूप !

बाग - बगीचा  वन - उपवन ,
नजर  नहीं  आयेंगे  ए  धन !

पशु-पक्षी-मानव-नदी-झरने ,
लग जायेंगे सबकेसब मरने !

प्रकृति  से  यह  लेकर  सीख ,
चलें  सदा   उसी  की   लीक ।

मरने  का  नाम  रूक  जाना ,
गति करना है  बड़ा  खजाना ।

कभी न  जीवन में  रुक पायें ,
पल - पल आगे  बढ़ते  जायें ।

सृष्टि का  यह जो  बीज मन्त्र ,
इस कारण  हुई नहीं  परतंत्र ।


                                       - डॉ.सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी



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