जब से रवीश कुमार ने एनडीटीवी से इस्तीफा दिया है, तब से उन्हें भारतीय पत्रकारिता का देवता बताया जा रहा है, जो सरासर गलत और झूठ है। रवीश कुमार जनता के मुद्दों को उठाते थे यह बात सही है, मगर यह कहना बिल्कुल भी सही नहीं होगा कि वह दूध के धुले देवता हैं। एनडीटीवी का इतिहास बताता है कि उसका मालिक कौन था और ऐसा भी नहीं है कि एनडीटीवी में सिर्फ ईमानदार लोगों के ही पैसे लगे थे।
गूगल करके देखिए एनडीटीवी में किस किस के पैसे लगे थे। आपको हल्की सी जानकारी दे देता हूं- एनडीटीवी में अंबानी तक के पैसे लगे हुए हैं। जिस दौरान अंबानी ने पैसे लगाए थे, उस दौरान रवीश कुमार ने एनडीटीवी में नौकरी की है। इसलिए बिना जांच पड़ताल किए हुए रवीश कुमार को पत्रकारिता का कुलदेवता ना बनाएं।
आज वक्त के साथ-साथ पत्रकारिता बदल रहे हैं। भारतीय पत्रकारिता में बुजुर्ग पत्रकार युवाओं को बेहद कम मौका देते हैं। जिसके कारण पत्रकारिता के क्षेत्र में युवाओं के लिए कैरियर बनाना चुनौतीपूर्ण कदम है। अगर कोई युवा पत्रकारिता का कोर्स करके मीडिया संस्थानों में जाता है तो उस युवा से कम से कम 6 महीने की इंटर्नशिप ली जाती है यानी 6 महीने तक फ्री में काम करवाया जाता है।
इसके अलावा भारतीय मीडिया में योग्यता रखने वाले युवाओं को मौका ना के बराबर मिलता है। भारतीय मीडिया में जिस प्रकार से रिश्तेदारी से नौकरी मिलती है, वह यह बताता है कि भारतीय मीडिया में भी एक प्रकार से भेदभाव है। कई लड़कियां और महिलाएं भारतीय पत्रकारिता में इसलिए नहीं आना चाहती क्योंकि मीडिया संस्थानों में इनका सबसे ज्यादा शोषण होता है।
एक टीवी न्यूज़ एंकर को लोक प्रसिद्ध बनाने के पीछे करीब 6 से 10 लोगों की टीम होती है। वह टीम दिन रात मेहनत करती है। टीम के अधिकांश लोगों की सैलरी 40-50 हजार से ऊपर नहीं होती है जबकि लोकप्रिय टीवी न्यूज़ एंकरों की सैलरी लाखों और करोड़ों में होती है। बताइए न्यूज़ चैनलों में एक प्रसिद्ध एंकर को लाखों रुपए महीने का सैलरी पैकेज मिलता है और उसके पीछे की टीम के लोगों को 40-50 हजार से ऊपर नहीं मिलता है। आखिर क्यों ? क्या यह मीडिया संस्थानों का कर्मचारियों के प्रति भेदभाव नहीं है ? क्या अच्छा दिखना और बोलना ही पत्रकारिता है या अच्छा लिखना, अच्छी स्टोरी तैयार करना और सामाजिक मुद्दों को लेकर आना भी पत्रकारिता है ?
रवीश कुमार, सुधीर चौधरी, अंजना ओम कश्यप जैसे पत्रकार अपने आप को ब्रांड बना लेते हैं। जिससे मीडिया कंपनियों के मालिक इनके ऊपर धन की खूब बरसा करते हैं। अगर आप इन लोगों की हकीकत देखेंगे तो यह बिना टीम के कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इनमें से कई प्रसिद्ध एंकरों को तो हिंदी टाइपिंग और शुद्ध हिंदी लिखना तक नहीं आता है। अगर आपको मेरी इस बात पर विश्वास नहीं है तो आप इन एंकरों के ट्विटर हैंडल पर जा कर देखिए। बाकी मैं इतना ही कहूंगा कि भारतीय मीडिया जगत में ईमानदार पत्रकारिता की कोई जगह नहीं है। हकीकत बोलूं तो हमाम में सभी नंगे हैं।
- दीपक कोहली
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