साहित्य चक्र

25 December 2022

कविताः मुखौटा

मुखौटा


ये ख़ूबसूरत चेहरा तेरा, 
जो यूँ तो बेहद प्यारा है,
क्या मुखौटा है कोई,
या तिलिस्मी नज़ारा है,
जो ये फूल झरते है बातों में
काँटों को कहाँ छिपा जाते हो,
इन्हें बिछा कर चुपके से ऊपर
दानों का चुग्गा जो फैलाया है,
तुम्हारे इस भोलेपन पर कभी
बनाने वाले को भी तरस आया है,
तब ही चमकते दानों को चुगने 
कुछ और नादानों को बनाया है,
कि अपनी ज़रूरतों के लिए
बना लिए तुमने कितने ही मुखौटे,
जब जैसी ज़रूरत वैसा
मुखौटा चुन लेते हो,
अब सपनों में कुछ, 
कुछ हक़ीक़त में जी लेते हो...
क्या सही है, क्या गलत यहाँ!
सभी के अपने मापदंड जहाँ,
ज़रूरत तो जीते रहने की है,
शेष उसी जीने के आसपास ,
फैला एक नाटकीय नज़ारा है,
तो क्या बुरा है जो, थोड़ा जी लिया,
सहूलियत का पहनकर एक मुखौटा
कुछ घूँट ज़िन्दगी को पी लिया...


                           - स्नेहा देव, दुबई


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