पहली रचना
!! अब मैं ही समझदार हो जाऊं !!
हक़ की बातें न करूं मैं सच्चाई से दूर हो जाऊं,
अपने ज़मीर से लड़लुं,कोई अख़बार हो जाऊं,
मेरे दिल को हो गया भरम कि मैं फरिश्ता हूं,
मगर डर लगता है ज़माने,से इंसान हो जाऊं,
तिजारत का है बाज़ार,हर चीज़ यहां है सस्ती,
ज़माने के साथ चलूं ईश्क़ का बाज़ार हो जाऊं,
उससे है गर मुहब्ब्त तुझको तो सोचना क्या है,
बेहतर है कि बस उसका ही तलबगार हो जाऊं,
गल्तियां मेरी नहीं हैं फ़िर भी अब बहुत सोचूं,
बड़ा हुं घर का अब मैं ही समझदार हो जाऊं,
ईश्क़ के सभी रिश्ते यहां कच्चे धागों से बंधे हैं,
मैं भी इस खेल का मुश्ताक़,फ़नकार हो जाऊं।
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दूसरी रचना
!! वो कहता था लौट आऊंगा जल्दी !!
पूछता रहता है ,ज़माने से
वो खैरो ख़बर मेरी,
वादा किया था उसने वो
अब मेरे रुबरु नहीं आता,
सारी दुनिया में ढूंढती फिरती
हूँ मैं अब उसको
सबको दिखता है वो मुझको
मगर नज़र नहीं आता,
वादों से अपने क्या मुकर जाऊँ
मैं भी तरह उसके,
आता है उसको ये हुनर, मुझको
ये हुनर नहीं आता,
मैं तो कहती थी , साथ में मुझ्को
तू अपने ले चल,
वो कहता था लौट आऊंगा जल्दी
अब वापस नहीं आता,
उदास आंखे जो मेरी हैं, क्या खबर
ज़रा नहीं उसको,
अश्क़ मेरे पोंछ देता था,हां मुश्ताक़
ख़्याल उसको मेरा नही आता।
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तीसरी रचना
!! तस्वीर तेरी अब भी मेरी आंखों में फिरा करती है !!
जागना क़िस्मत, नीन्द अांखों से दूर रहा करती है,
तस्वीर तेरी अब भी मेरी आंखों में फिरा करती है,
कोई तो मसीहा आए दिल का ईलाज कर जाए,
दिल से आज कल मेरी अन बन ही रहा करती है,
शै़ौक़ पीने का नहीं था, तेरी अांखों से पी गया,
अब हर वक़्त तबियत मेरी बीमार रहा करती है,
मुसलसल भी तुझे मैं अब देखा करूं तो क्या,
तिश्नगी मेरीआंखों में फिर भी बनी रहती है,
तुझे भूल जाउं ये मुमकिन ही नहीं है मुश्ताक,
याद करने की मुझे तुझको बीमारी बनी रहती है।
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चौथी रचना
!! दांतों में लेकर उंगलिया न मुस्कुराया कर !!
तेरे मेरे बीच की सभी बातें ,
सखियों को मत बताया कर ,
जुलफ़ों को हटा ले चहरे से ,
चांदनी को भी शरमाया कर ,
वादा करना कोई बात नहीं है ,
वादों को शिद्दत से निभाया कर ,
नजरों में ज़माने की नही रहना .
इन पलको में छुप के बैठ जाया कर
जब भी कभी साथ चलना हो ,
सारी दुनिया को भूल जाया कर,
ना उम्मीदी कुफ्र है क्या नहीं मालूम ,
हाथ भी दुआ के लिए उठाया कर,
चाहने वाला है ये पागल मुश्ताक ,
दीवाने को इस तरह मत सताया कर ,
कभी दिन को भी रात तु कर दे ,
काजल आंखो मे तु लगाया कर,
बहुत प्यास है ला पिला दे आंखों से,
कभी होठों से होंठ भी लगाया कर ,
छत पे आजाऊँ तेरी डर लगता है ,
दुपट्टा हवाओं में मत उड़ाया कर,
एक मुद्दत हुई कोई अता पता नही ,
फेसबुक पर भीउंगलियां घुमाया कर ,
मां बाप की दुआएं यूं ही नही मिलती,
पास बैठ उनके हाथ पांव भी दबाया कर ,
आएगा तुझे फिर वो बचपन का मज़ा ,
गलियों में बच्चो के साथ पल बिताया कर,
दौर पनघट का नही मुझको पता है,
छाओं में पीपल की तो आ जाया कर,
बल खा जाएगी और कमरिया तेरी ,
इस तरह गगरिया मत उठाया कर ,
हजारो दिल धड़क जाते है अन्दाज़ से तेरे,
दांतो मे लेकर उंगलिया न मुस्कुराया कर ,
बैताब है शमा लौ मे जलने के लिए" मुश्ताक"
हम पे भी तो कभी बिजलिया गिराया कर।
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पांचवी रचना
!! शौक़ से सुनिये क़िस्सा मेरी मुहब्ब्त का !!
साक़ी तेरी बात से हम इत्तफ़ाक रखते हैं,
क़सम नहीं थी, हम तो मज़ाक़ करते हैं,
सरे महफ़िल कर गया वो इशारा मुझको ,
हाय करने लगे कहा,तूझसे प्यार करते हैं,
शौक़ से सुनिये क़िस्सा मेरी मुहब्ब्त का,
क्या आप भी गिरेबां को चाक़ करते हैं,
न रही शाख न वो गुलशन ही रहा अपना ,
बाक़ी है ज़िन्दगी उसको खाकर करते हैं,
ए बर्क क्या रहा बाक़ी,जो तु जलाने आई,
लौट जा मुश्ताक़ आख़िर सलाम करते हैं।
लेखक- डॉ . मुश्ताक अहमद शाह
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