जब से थोड़ा ध्यान में उतरी हूँ, भीतरों संवादों की आवाज़ों को सुन पाती हूँ।
आज का संवाद - "मन और बेमन साथ साथ चलते है।"
कैसे ?
जीवन नित नई स्थिति परिस्थितियों को हमारे सामने परोसता चलता है।
जिसमें कुछ मन की होती है, कुछ बेमन की।
हमें ऐसा लगता है कि हमें चुनाव का अधिकार है। परन्तु किसी नापसंद स्तिथि को, न चुनना भी एक चुनाव है। इसका अर्थ है कि हम चुनाव के लिए बाध्य है।
यदि अध्यात्म के अनुसार, जीवन को कर्मफल के सिद्धांत पर आधारित मानें, तब इसका अर्थ यह भी है, कि कुछ भी सयोंगवश नही हो रहा। आज की परिस्थिति पुराने बीते समय के कर्मफल का योग है।
यदि आत्मा दृष्टा है, तो वह हर पल हमारे कर्म अनुसार फल को संचित करती है एक डायरी की तरह। यही डायरी आगे के जीवन मरण का चक्र और आधार बनती होगी। यही आत्मा डायरी, अर्थात तुम्हारी कोर्ट फ़ाइल जाएगी परमात्मा के पास।
डायरी जितनी लंबी, परीक्षा भी उतनी जटिल, उतनी लंबी। डायरी ख़त्म तो चक्रव्यूह ख़त्म।
डायरी ख़त्म कैसे की जाए ?
और क्यूँ की जाए ?
क्यूँ - इसलिए कि कर्मफल से मुक्ति के बाद परीक्षा में उत्तरीण हो तो कोई अपग्रेडेशन हो। स्कूल से निकल कॉलेज में दाखिला हो सकें।
इस अनंत ब्रह्मांड में कही कुछ और उपहार हों संभवतः। नही तो इतनी बड़ी गैलेक्सी का औचित्य क्या है? इस दुनिया में कुछ भी बिना बात नही होता।
मन इच्छा द्वारा नए कर्म का कारण बनता है। और कर्म किसी न किसी फल का।
मन की हो जाती है तो आनंद का अनुभव,
बेमन की करनी पड़े तो दुख का अनुभव।
आनंद से उपजा मोह (यानी फिर से भोग की इच्छा), दुख से उपजा विषाद (अर्थात उलट स्थिति की इच्छा, बदले स्वरूप की इच्छा)।
इच्छा से उपजे नए कर्म, नए कर्म से नए फल।
अर्थात चक्रव्यूह
बेमन वाली न चुनी गई स्तिथियां, अधूरे कर्म और अभोगे फल के रूप में बनी रहेंगी और फिर से परोसी जाती रहेंगी। यदि किसी भी स्थिति को कर्मफल समझें तब वो सारी, मन और बेमन वाली दोनों ही स्तिथियां, हमारी ही बनाई हुई है।
चक्रव्यूह टूटे कैसे ?
जो भी सामने आए बिना फल की इच्छा के, बिना मोह में जकड़े, स्वीकृत करते जाना।
सम्पूर्ण जीवन को कर्तव्य पथ मानना।
परिस्थिति अनुसार संतुलित उचित निवारण करते जाना।
निस्वार्थ भाव से संभव कर्म करते जाना।
आत्मा को शुद्ध रखना।
देह की प्रकृति को समझ बस आवश्यकता अनुसार जितना ही पोषित करना।
देह का किया धरा उस तक ही सीमित रखना, आत्मा पर न छपने देना।
किसी भी प्राकृतिक भूख को वासना न बनने देना।
हर कृत्य का अस्तित्व केवल अनुभूति और अनुभव तक सीमित रखना।
मन की चंचल प्रकृति को समझना, और उदारता से अनुभव तक सीमित हो आगे बढ़ते रहना।
किसी का भला करने योग्य हो सकें, तो इसे भी एक स्थिति ही समझना। अहंकार को पोषित न करना, ये मन का दुर्गुण और प्रकृति है।
विषाद को जीवन में प्रवेश न देना।
जो भी करो, डायरी में यादें न बनाना, बनें भी तो जुड़ना नही है। याद रखना है कि ये यादें, अनुभव केवल इस देह से जुड़ी है और यही मिट्टी में छूट जाएंगी। तुम्हारा यश भी।
इसीलिए संत कह गए है कि हर परिस्थिति में जब शांतचित्त रहा जा सके, स्थिति कैसी भी हो पर तुम्हें छू न पाए, वही मोक्ष है। जल और कीचड़ दोनों में रहता भी है और अछूता भी है... जैसे कमल।
सुलझा सरल सुंदर कमल।
लेखिका- स्नेहा देव
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