साहित्य चक्र

29 December 2022

कविताः स्वानुभूति





अजब सा सन्नाटा 
सायों के दरख़्त
बेवजह का डर 
मेरी तरफ़ बढ़ रहे लम्बे हाथ
कहाँ जाऊँ भाग कर 
हर तरफ़ निगाह उसकी 
चीलों का शोर , शहर से दूर 
बहुत दूर थोड़ी सी शांति 
नहीं सिर्फ़ वहम
वहाँ कुछ क्षण रहने का भ्रम
भागना चाहती हूँ दूर बहुत दूर 
जहाँ कोई निगाह कोई सवाल नहीं
मैं और बस मैं
कोई जवाबदारी नहीं
उन्मुक्त रह सकूँ कुछ पल
जहाँ कोई हलचल नहीं
सिर्फ़ हो सुंदर संगीत 
मधुर लहरियाँ, वो कूप की आवाज़ 
वो ठंडा जल , वो मदमस्त बयार
फिर से वहीं जाना चाहता हैं मन 
एकदम शांत हो जाना चाहता हैं मन


                       - डॉ. अर्चना मिश्रा


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