साहित्य चक्र

25 January 2019

"गणतंत्र दिवस"

  


"शहीदों की चिताओ पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालो का यही बाकी निशाँ होगा"



हम भारतवासियों का यह कर्तव्य है कि देश की रक्षा एवं अखण्डता के लिए हम अपना सब कुछ बलिदान कर दें । हमें प्रत्येक परिस्थिति में देश की रक्षा करनी ही है । यह सत्य है कि विभिन्नता में एकता भारतीय संस्कृति की विशेषता है । यही हमारे लोकतन्त्र के चिरस्थायी होने का महत्वपूर्ण आधार भी है ।
गणतंत्र दिवस यानि 26 जनवरी भारत का राष्ट्रीय पर्व होने के की वजह से  इसे हर धर्म, संप्रदाय और जाति के लोग मनाते हैं।26 जनवरी 1950,को भारत का संविधान लागू हुआ,और भारत गणराज्य बना था।इस दिन को हमारे देश के आत्मगौरव तथा सम्मान से भी जोड़ा जाता है
हमारे देश में गणतंत्र दिवस समारोह धूमधाम से मनाया जाता है।इस दिन सभी सरकारी गैर सरकारी संस्थानों में ध्वजारोहण,और राष्ट्रगान होता हैं।साथ ही देश के वीर सपूतों को यादकर वंदे मातरम, जय हिन्द,भारत माता की जय के साथ पूरा वातावरण देशभक्ति से ओतप्रोत हो जाता है।
इस राष्ट्रिय पर्व का विशेष आयोजन भारत के राजधानी दिल्ली में राजपथ पर किया जाता है| इसकी छटा देखने लायक होती ।जहाँ इस दिन लाखो की संख्या में लोग सम्मिलित होते हैं और आयोजन का आनंद लेते हैं। कार्यक्रम की शुरुआत राष्ट्रपति द्वारा झंडा रोहण और राष्ट्रगान के साथ होता है| हर साल गणतंत्र दिवस के दिन एक भव्य परेड का आयोजन किया जाता है जो इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक होती है। इस परेड के दौरान थलसेना, वायुसेना और नौसेना के जवान शामिल होते हैं। इस परेड के दौरान तीन सेनाओं के प्रमुख राष्ट्रपति को सलामी देते हैं। यही नहीं इस दिन तीन सेनाएं आधुनिक हथियारों का प्रदर्शन भी करती हैं जो राष्ट्रीय शक्ति का प्रतीक है।
भारत के लगभग सभी राज्यों से आये लोक-नर्तक अपने-अपने झाकियों पर अपना नृत्यों का प्रदर्शन करते हैं|परेड में भारत के हर राज्य की एक झाकी निकाली जाती है, तथा सेना और पुलिस के दल अपने-अपने बैंड के साथ मार्च करते हैं|
इस परेड को देखने के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ता है। साथ ही इस परेड में देश के विभिन्न स्कूलों से आए बच्चे भाग लेते हैं और रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। यही नहीं गणतंत्र दिवस समारोह की एक खास बात यह है कि इस समारोह में पूरी दुनिया के देशों से कोई एक मुख्य अतिथि चुना जाता है जो सम्पूर्ण कार्यक्रम के दौरान वहां मौजूद रहता है। गणतंत्र दिवस समारोह में परेड के दौरान सभी राज्यों की झांकी प्रस्तुत की जाती है। इस झांकी में सभी राज्य अपनी विविधता और संस्कृति की झलक प्रस्तुत करते हैं। यही नहीं इस कार्यक्रम में हर राज्य अपने प्रदेश के लोकगीतों तथा लोकनृत्यों का अद्भुत रूप प्रस्तुत करते हैं। गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए और दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए देश के कोने-कोने से लोग आते हैं। साथ ही राष्ट्रीय चैनल इस समारोह का सीधा प्रसारण कर पूरे देशवासियों को इस समारोह की झलक दिखाते रहते हैं। 
गणतंत्र दिवस समारोह उत्साह पूर्वक मनाने के बाद समारोह का धूमधाम से समापन किया जाता है जिसे बीटिंग रीट्रीट कहा जाता है। यह समारोह 26 जनवरी के तीसरे दिन अर्थात 29 जनवरी को आयोजित किया जाता है। इस समारोह में तीन सेनाएं भी शामिल होती हैं। यह समारोह राष्ट्रपति भवन के पास मनाया जाता है। इस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर राष्ट्रपति शामिल होते हैं जिन्हें तीनों सेनाओं के प्रमुख सलामी देते हैं।
 
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है,
वह नर नहीं, है पशु निरा और मृतक समान है”

                                    जयहिंद
                                                           रचनासिंह"रश्मि"






21 January 2019

महिलाओं को लेकर बवाल

हमारे देश में कभी जाति, कभी रंग, कभी धर्म को लेकर बवाल होता रहा है..। हमें भी इनकी आदत सी हो गई है..। हर महीने कोई ना कोई केस सुनने को मिलता है...। हमारी मीडिया आज जहां एक ओर राजनीति करने को उतारू है..। तो वहीं हमारे राजनेता मीडिया को चला रहे है..। जिसे हमारे देश का दुर्भाग्य कहा जा सकता है..।



 यहां जाति, धर्म, रंग पर लोगों से भेदभाव किया जाता है। वैसे हमारा देश संस्कृति से भरा राष्ट्र है..। यहां महिलाओं पर कई बवाल होते आए है..। कभी महिलाओं के कपड़ों को लेकर, तो कभी उनके गीत गाने को लेकर...। यह तो हमारे देश का दुर्भाग्य है, कि यहां की नारी सब सहती आई है। हमारे देश के कुछ धर्म गुरु और राजनेता इन्हीं मुद्दों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते आए है। हमारे देश की जनता को इस बात का कोई असर नहीं पड़ता हैं। कि देश की नारी क्या-क्या सह रही है। एक तरफ हमारे राजनेता डिजिटल इंडिया की बात करते है। तो दूसरी ओर हम पुरानी संस्कृति को बचाने में करोड़ों रूपये खर्च कर रहे है। ऐसे में कई सवाल हमारे मन में पैदा होते हैं..। आखिर हमारा राष्ट्र किसी दिशा की ओर जा रहा है। इस बात का हमें कोई भी अंदाजा नहीं है..। क्या हम डिजिटल दुनिया की ओर जा रहे हैं या फिर पुराने भारत की खोज की राह में..। चाहे जो भी हो एक बात साफ है। देेश में जब तक गंदी राजनीति खत्म नहीं होगी तब तक देश साफ-सुथरा और विकसित नहीं हो पाएगा। हमारे देश को हमारे यहां की राजनीति दिन पे दिन खोखला करती जा रही है। जो देश के लिए बेहद खतरनाक है। देश में आज भी महिलाओं को उनका पूरा अधिकार नहीं दिया जाता है। चाहे वह राजनीति हो या फिर अन्य कार्य क्षेत्र..। जबकि हर राजनीति पार्टी महिलाओं के अधिकारों की बात करती नजर आती है। .यहीं राजनीति पार्टियां महिलाओं को सीट देने के मामले में पीछे हटते नजर आते है। जो हमारे  देश की राजनीति में सबसे बड़ा कलंक है।


                                                 ।। दीपक कोहली।।  




* बुढ़ापा *



बुढ़ापा शब्द सुनते ही हमारे दिमाग में हमारे दादा जी और दादी याद आते हैं..। या फिर कोई बुढ़ा व्यक्ति सामने आता हैं। बुढ़ापा जीवन का एक अटटू सत्य ही नहीं बल्कि बुढ़ापा जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय है..। इसे अभिशाप ही नहीं अनुभवों का खजाना भी माना जाता हैं...। बुढ़ापा हमारे जीवन का सबसे बड़ा सच हैं...। हम इस उम्र में सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाते हैं..। क्योंकि हमारी बातें बहुत कम लोग सुनते-समझ हैं..। 
वैसे बुढ़ापा मनुष्य जीवन का एक ऐसा सच हैं...। जिससे हर मनुष्य को सामना करना पड़ता हैं..। इस कड़वी सच्चाई को कोई भी व्यक्ति झूठला नहीं सकता हैं...। चाहे वह नर हो या फिर नारी..। बुढ़ापा हमारे जीवन का आखिरी सफर स्टेशन हैं..। इस स्टेशन के बाद मनुष्य परलोक सिद्ध हो जाता हैं..। 


                         संपादकः- दीपक कोहली





05 January 2019

राजनीति पर साहित्यकारों का अंकुश


साहित्य जाति-धर्म, गरीबी-अमीरी से परे वह पारदर्शी दृष्टिकोण का वाहक है जो समाज की हू-ब-हू तस्वीर दर्शाता है। साहित्यकार संवेदनशील होता है उसका हृदय प्राणी मात्र के दुख से दुखी और खुशी से खुश होता है इसीलिए उसकी लेखनी सदैव समाज की विकृतियों, विद्रूपताओं और विसंगतियों पर चलती है। उसका हृदय समाज के कुरूप पहलू को देखकर उद्वेलित होता है और साहित्य सृजन के माध्यम से वह इन पहलुओं पर विरोध दर्शाता है। साहित्य निष्पक्ष और निस्वार्थ होता है यह न्याय और प्रगति के चश्में से ही सबको देखता है इसीलिए साहित्य को 'समाज का दर्पण' कहा गया है। यह कथन चिरकालिक मान्यता इसलिए प्राप्त कर सका क्योंकि हमारे साहित्यकारों ने समय-समय पर हमें समाज का वही रूप वही सत्य दिखाया जो तत्कालिक यथार्थ पर आधारित था। मैथिली शरण गुप्त, निराला आदि का साहित्य सदैव स्वच्छंदता पर अंकुश का कार्य करता रहा, कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद आजीवन समाज में व्याप्त सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, गरीबी, जमींदारी, उपनिवेशवाद पर लिखते रहे। इन साहित्यकारों का साहित्य समाज का वही रूप वही विकार दर्शाता है जो उनके समय में था।
साहित्य सशक्त होता है यह लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ता है, वह साहित्य ही है जो तुलसीदास की चौपाई के रूप में जन-मन तक पहुँच कर लोगों को भगवान श्रीराम से जोड़ता है, यही साहित्य हमें सूरदास के पदों के माध्यम से श्रीकृष्ण से जोड़ता है। साहित्य ही है जो समाज को अच्छाई व बुराई के भेद से परिचित करवाता है। इसी के माध्यम से संस्कृति की पहचान होती है तथा इसी से संस्कृति की उन्नति व अवनति संभव है। लेखनी की तुलना तलवार से इसीलिए की जाती है क्योंकि तलवार में यदि काटने की शक्ति है तो लेखनी में काटने के साथ बाँटने और जोड़ने की भी शक्ति निहित है, इसीलिए साहित्यकार का दायित्व बढ़ जाता है कि वह समाज का अपने साहित्य सृजन के माध्यम से सकारात्मक मार्गदर्शन करे। साहित्यकार स्वतंत्र होता है वह किसी के अधीन साहित्य सृजन नहीं करता इसीलिए उसके इस महती दायित्व की ओर संकेत करते हुए ही मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है कि "साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।" अपने इस कथन के द्वारा वह साहित्यकार को  सम्मान और समाजहित का उत्तरदायित्व सौंपते हैं। 
साहित्य और राजनीति दोनों साथ-साथ चलते हैं, दोनों का ही कार्य समाज को दिशा प्रदान करना होता है किन्तु राजनीति का लक्ष्य स्वार्थ प्रेरित और साहित्य का ध्येय ‘सर्वेः भवन्तु सुखिनः’ का होता है। राजनीति का परिणाम शीघ्र प्राप्त होता है और अल्पकालिक होता है वहीं साहित्य दूरगामी परिणाम देता है। स्वार्थ निहित होने के कारण राजनीति अधिक फलफूल रहा है तथा लोगों का शिकार कर 'स्वांतः सुखाय' को चरितार्थ कर रहा है। वहीं दूसरी ओर साहित्य उचित मान-सम्मान और पारिश्रमिक के अभाव में आत्म समर्पण करता नजर आ रहा है।
'साहित्य समाज का दर्पण होता है।' वर्तमान में यह कथन औचित्यहीन हो चुका है। 
साहित्यकारों की आर्थिक स्थिति सभी को विदित है, ऐसी स्थिति में कुछ साहित्यकार पूर्ण समर्पण से अपने साहित्यिक दायित्व का निर्वहन न करके उस ओर मुड़ जाते हैं जहाँ से उन्हें आर्थिक लाभ तथा सम्मान प्राप्त हो सके इसीलिए चिरकालिक रचनाओं का उत्सर्जन भी दुर्लभ हो गया है और साहित्य की धार भी उतनी पैनी नहीं रह गई जितनी उसे होनी चाहिए, जगह-जगह साहित्यिक संस्थाओं की संरचना तथा पुरस्कार व सम्मान वितरण का दौर चल पड़ा, साहित्यिक संस्थाएँ सरकार से सहायता प्राप्त करती हैं। फिर सरकारी हस्तक्षेप से दूर रहना सम्भव नहीं।  सरकार राजनीति का ही पर्याय है फिर साहित्य की इन संस्थाओं में राजनीति की घुसपैठ शुरू हो गई और साहित्य और राजनीति का आपस में विलय हो गया। ऐसी स्थिति में जो संस्था जिस सरकार की सरपरस्ती हासिल करती है उसी के हित की बात कहती है।  वयोवृद्ध साहित्यकार युवा राजनीतिज्ञ के पैंरों में पड़ा दिखे तो ऐसे साहित्यकार से किस संस्कृति की रक्षा की उम्मीद की जा सकती है ऐसा दृश्य देखकर तो यही प्रतीत होता है कि चारण युग का साहित्य पुनः जीवित हो उठा हो। वर्तमान समय में यह समाज और देश का दुर्भाग्य ही है कि साहित्य राजनीति को नहीं बल्कि राजनीति साहित्य को दिशा दिखा रही है, साहित्य सम्मान वापसी का दौर इसी बात का उदाहरण है। 
जब से साहित्य में राजनीति का हस्तक्षेप प्रारंभ हुआ तब से ही साहित्य से संवेदना का रिश्ता टूटा। संवेदना विहीन साहित्य में ‘सर्वेः भवन्तु सुखिनः’ जैसा संदेश हो ही नहीं सकता है। जब संवेदना नहीं होगी तो आम जन के  साहित्य का सृजन भी मात्र कोरी कल्पना ही होगी। 
कहने को तो हर साहित्यकार राजनीति से दूरी दर्शाता है परंतु ऐसे होते कम हैं...राजनीति से दूरी दिखाना तो पाखंड है, वे उसके साथ ही राजनीति के फायदे भी उठाना चाहते हैं, इसलिए खुलकर विरोध भी नहीं करते। साहित्यिक मंचों पर भी राजनेता को आसीन करवाना साहित्यकार सम्मान का पर्याय मानते हैं चाहे नेता जी का साहित्य से दूर का भी रिश्ता न हो। 
साहित्यकार का समाज में वही स्थान होता है जो शिक्षक/गुरु का विद्यार्थी के जीवन में। जिस प्रकार गुरु का सही मार्गदर्शन विद्यार्थी के जीवन को सशक्त, उज्ज्वल और प्रगतिशील बनाता है उसी प्रकार निष्पक्ष साहित्य भी समाज को प्रगति की ओर ले जाता है। इसीलिए साहित्यकार को चाहिए कि राजनीति को छोड़कर अपने साहित्यिक कर्तव्य को पहचाने और समाज को दर्पण दिखाने वाले साहित्य का सृजन करें। सही मायने में राजनीति पर अंकुश लगाने का कार्य साहित्यकार ही कर सकता है और ऐसा करके वह राजनीति को सही दिशा में मोड़कर समाज हित में कार्य करने को बाध्य कर सकता है। 


                                                मालती मिश्रा 'मयंती'✍️