साहित्य चक्र

29 December 2022

कविताः भाभी मां



बिन मां का घर
भाभी के आते ही
 पुनः विहंसने लगा
भाभी पायल की छम छम से भोर का स्वागत करती
तो चूडियों के संगीत से सांझ को रिझाती ।
धीरे -धीरे राजू को भाभी में ' मां ' नजर आने लगी
मुरझाया नन्हा पौधा भाभी के स्नेह से हरियाने लगा
बेरंग जीवन में  खुशियों के बेशुमार रंग भरने लगे
चुप -चुप सा रहने वाला राजू  बातों का पिटारा जब खोलता 
तो देर रात नींद आने पर ही बंद करता।
पन्द्रह-सोलह की उम्र में ही मां के आंचल से मरहूम राजू
भाभी के आंचल में जीने लगा
एक पल का विछोह असहनीय था अब उसके लिए 
भाभी मायकेे जाती तो वह भी साथ जाता
पाक कला का ककहरा न जानने वाली भाभी के लिए 
स्वादिष्ट भोजन बनाता 
और भाभी को कुछ समझाकर
जा बैठता पिता के पास
भाभी का और बने पकवान का ऐसा गुणगान  करता 
कि पिता मंद मंद मुस्काते 
हां में  हां मिलाते
पर भोजन के स्वाद सारे राज खोल देते
और पिता हर कौर में बेटे की ही झलक पाते।
भाभी को हल्का ज्वर चढने पर 
,जरा सी खांसी आने पर 
राजू घर-हॉस्पिटल एक कर देता
पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही पलंग से उतरने देता।
राजू के व्यवहार से भैया बहुत खफा होते 
पर इस बेटे को मां से दूर नहीं  कर पाते
उन दोनों की हँसी दीवारों को भेद
पडोसियों के आँगन में भी दस्तक देने लगी
कि अचानक 
भाभी मां से 'मां' विलुप्त होने लगी
राजू सबके आँखों में चुभने लगा
बात-बे-बात पिता की मार खाने लगा
सबसे आखिर में मिला रूखा-सूखा खाकर आँसूओं को छुपाने लगा 
और एक दिन 
पिता ने अपनी जिन्दगी से उसे 
 निकाल दिया
उसने देखा
कि भाभी ठठाकर हँस रही हैं
 पर आज उनके बगल में वह नहीं  है
बल्कि बडे भैया हंस रहे है 
भाभी से कहीं अधिक ज्यादा।


                                                - इन्दु श्री


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