आहा! क्या याद दिला दिया आपने। वो सर्दी की धूप में बैठना। स्मृतियों का पिटारा खुल गया। मेरा शिमला और हमारे बरामदे, आॅंगन और छत की धूप। हमारे लिए धूप किसी वरदान से कम नहीं हुआ करती थी। जिस घर में हम रहते थे, प्राचीन निर्माण शैली पर था। बहुत बड़े-बड़े कमरे और बाहर बहुत बड़ा बरामदा। बरामदे के आगे ढलान लेती छत।
और घर से बाहर बहुत बड़ा आॅंगन, जहाॅं हम फूल और सब्ज़ियाॅं भी उगाते थे, कपड़े भी सुखाते थे। इस तरह हमारे पास धूप सेंकने के लिए तीन जगह हुआ करती थीं। प्रातः उदित होते सूर्य के साथ अस्ताचल की ओर जाते सूर्य देव हमारे घर के चारों ओर घूमते ही रहते थे और हम सब भी सूरज के साथ-साथ अपने बैठने की जगहों पर घूमते रहते थे। शिमला में ग्रीष्म और शीत ऋतु दोनों ही मौसम में धूप का आनन्द लिया जाता था।
फ़ोल्डिंग चारपाईयाॅं, दरियाॅं और पटड़े हमारे लिए सारा दिन धूप में घूमते रहते थे। घर के अन्दर का रोटी-पानी का काम समाप्त हुआ और पूरा परिवार आॅंगन में धूप में। कोई पायताने पर, कोई सिरहाने कोई नीचे तो कोई पैर लटकाकर बैठ जाता था। अचार डालना, पापड़ बनाना, सेंवियाॅं बनाना, मटर छीलना, सब्ज़ियाॅं काटना, लकड़ी-कोयला तोड़ना और न जाने कितने ही काम धूप में बैठकर गपशप में ही निपट जाते थे। नहाकर बाल सुखाने के लिए धूप में आना ज़रूरी था। थाली में खाना डालकर बाहर ले आते और धूप में ही बैठकर खाते थे। सबसे बड़ा काम होता था स्वेटर बुनना। हर किसी के हाथ में उन-सिलाईयाॅं ज़रूर रहा करती थीं। और थोड़ी-थोड़ी देर बाद चाय बनकर आती रहती और हम पियक्कड़ बने रहते।
जब बर्फ़ गिरती और उसके बाद धूप निकलती तो बेलचा लेकर बर्फ़ हटाते और चारपाई के लायक जगह बनाकर उस पर बैठ जाते, उन सर्द हवाओं और ठण्डी धूप का अपना ही आनन्द होता था। दो-दो, तीन-तीन स्वेटर पहने, टोपियाॅं लगाये मफ़लर लपेटे और धूप सेंकते। बहुत याद आती है शिमला तेरी।
- कविता सूद
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