कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि भारत का भविष्य अंधकार में है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे वर्तमान में भारत वैचारिक रूप से विकलांग नजर आ रहा है। हम अपनी जनसंख्या वृद्धि नहीं रोक पा रहे हैं और लगातार कम होते जंगलों को नहीं रोक पा रहे हैं और इसके अलावा हमारे देश में लगातार खेती कम होती जा रही है। इतना ही नहीं बल्कि धार्मिक वैचारिकता भी हमारे देश से गायब होती दिखाई दे रही है। आज हमारे तथाकथित साधु संतों ने धर्म को व्यापार बना दिया है। एक वक्त हुआ करता था जब भारतीय समाज आर्थिक, वैचारिक और धार्मिक रूप से काफी समृद्ध था। मगर वक्त की सुई ने भारत से ये सब छीन लिया है। भारतीय समाज से सुकून गायब हो गया है। हर व्यक्ति पैसे के पीछे पागल है और अंधाधुंध पैसा कमाने के बावजूद भी लोगों को शांति नहीं मिल पा रही है। क्या कारण है कि आज भारतीय समाज भटका, बंटा और अस्वस्थ नज़र आता है। शायद हमारे समाज ने मेहनत करना बंद कर दिया है या फिर इन आधुनिक तौर-तरीकों और संसाधनों ने हमें बिगाड़ दिया है। मैं दावे के साथ कहता हूं कि आज भारत का कोई भी घर ऐसा नहीं होगा जहां महीने में कम से कम 200-500 की दवाई नहीं आती होगी। अगर नहीं आती है तो वह सिर्फ मजदूर या गरीब होगा जो बीमारी का इलाज नहीं कर सकता है या फिर वह बीमारी को सीरियसली लेता ही नहीं है।
खैर! भारतीय समाज जिस दिशा की ओर आगे बढ़ रहा है उस दिशा को देखकर मुझे सामने सिर्फ अंधकार नज़र आता है। उस अंधकार को देखकर मुझे डर लगता है कि कहीं हम अपनी धार्मिक, पौराणिक और आर्थिक समृद्धि को ना खो दें। भारतीय समाज से सामाजिक चिंतन खत्म हो गया है। जातिवाद और पूंजीवाद की खाई गहरी हो गई है। कभी जो भारत प्रकृति का धनी था, वह लगातार प्रकृति विनाश कर अपनी कब्र खोद रहा है। वह दिन दूर नहीं जब हिंदू समाज को अंतिम संस्कार करने के लिए लकड़ी तक उपलब्ध नहीं होगी क्योंकि जिस तेजी से भारत से जंगल खत्म हो रहे हैं उससे तो यही लगता है।
बाकी सोशल मीडिया के इस दौर ने लगभग हर भारतीय को आलसी, अय्याश और नचनिया बना दिया है। सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता के नाम पर हम सिर्फ सोशल मीडिया पर सकारात्मक पोस्ट कर या स्टेटस लगाकर अपनी आत्मा को संतुष्टि दे रहे हैं। आगामी वर्ष में एक विशाल धार्मिक मेला लगने वाला है। इस मेले को कभी धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक चिंतन के रूप में देखा जाता था, मगर आज इसे सिर्फ नहाने का उत्सव बना दिया गया है। वैसे यह मेला पवित्र नदियों के संगम किनारे आयोजित होता है, पवित्रता तो दूर की बात संगम में नदियां नाले जैसी हो गई है। कभी जिन साधु संतों के ऊपर सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक चिंतन की जिम्मेदारी थी, आज वह साधु संत सिर्फ धर्म के नाम पर अपने एशो-आराम पूरे कर रहे हैं। भारत की इस विकट स्थिति को देखकर मैं गंभीर चिंता में हूं। मेरी यह चिंता आपको जायज लगती है या नहीं! मुझे नहीं पता, मगर आप एक भारतीय हैं तो मैं यह विश्वास के कह सकता हूं कि आप अपने सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक चीजों से संतुष्ट नहीं होंगे।
- दीपक कोहली
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