मंदिर में हो रहे भागवत कथा आयोजन का आज अंतिम दिन था। कथा व्यास जी द्वारा कथा को समाप्त कर दिया गया था। अब केवल पूर्णाहुति और अंतिम आरती करना ही शेष था। इसी बीच आयोजक दल के प्रधान माइक पर पहुँच गये। यहाँ पहुँचते ही उन्होंने कथा व्यास सहित पंडाल में उपस्थित हर व्यक्ति का स्वागत किया और फिर उन्होंने आयोजक दल के तीन-चार लोगों के नाम पुकार कर उनसे आग्रह किया कि वे कथा व्यास को सम्मान स्वरूप शाल, टोपी और स्मृति स्वरूप ,स्मृति चिन्ह भेंट करें। इसके बाद दल के प्रत्येक सदस्य को एक-एक करके मंच पर बुलाकर कथा व्यास जी के हाथों और फिर एक सदस्य से दूसरे सदस्य को सम्मान स्वरूप शाल, टोपी या दूसरा कोई स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित करवाया गय। सभी स्वयं सेवी युवाओं को भी एक-एक करके सम्मानित किया गया। फिर प्रधान जी माइक से हट गये और इधर दल का एक अन्य सदस्य आकर प्रधान जी का नाम पुकारता है फिर कथा व्यास जी के हाथों उन को भी सम्मानित करवाया जाता है। यहाँ तक कि दूसरे राज्य से भी पांच-छह लोग जो मेहमान रूप में आये थे, उन्हें भी एक-एक करके मंच पर बुलाकर सम्मान दिया गया।
लगभग आधा घंटा पहले यहाँ पर जो भक्तिमय वातावरण बना हुया था। देखते ही देखते वह वातावरण जैसे लोप हो गया था। श्रोताओं के चेहरों पर एक अजीव सा भाव देखने को मिल रहा था। शायद वे दिखावे भरे इस कार्यक्रम को पचा नहीं पा रहे थे और भ्रमित से महसूस कर रहे थे। क्यूंकि यह मंदिर एक मुख्य सड़क मार्ग के किनारे पर एक शांत और सुन्दर स्थान पर स्थित है। यहाँ पर भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों की स्थापना हुई है जिससे यहाँ का दैवीय वातावरण मन को आकर्षित कर लेता है। मैं भी प्रतिदिन इसी मार्ग से अपने कर्म क्षेत्र की ओर जाता हूँ और शाम को वापिस आता हूँ। आज भी क्यूंकि कथा का समापन और भंडारे का आयोजन था। उस ईश्वर की ही अनुकम्पा होगी कि मेरा कार्य भी आज जल्दी ही पूरा हो गया था। मैं भी यहाँ आकर रुक गया था।
जब तक कथा वाचन का कार्य चल रहा था ,मैं बहुत आनन्दित महसूस कर रहा था, लेकिन जैसे ही यह मान-सम्मान रुपी कार्यक्रम सामने चला, धीरे-धीरे मन उच्चाट सा होने लगा। इसलिए नहीं कि इस सम्मान समारोह से दिखावे की बू आ रही थी। शायद आजकल के आयोजनों में इस तरह के तथाकथित मान-सम्मान देना एक परंपरा बनता जा रहा है, क्यूंकि मैं हर दिन यहाँ से गुजरता हूँ और अक्सर मंदिर में माथा टेकता हूँ। कभी अगर मंदिर के अंदर न भी जा सकूं तो बाहर से ही शीश नवाता हूँ।
हर दिन देखता हूँ एक व्यक्ति सुबह-शाम वहीं मंदिर में सेवा करते हुए दिखाई देता है। आज भी कथा पंडाल में जाने से पहले जब मंदिर गया तो वह व्यक्ति मुझे वहीं पर उसी सेवाभाव से सेवारत दिखाई दिया था। मैं जब भी इस मंदिर में शीश नवाता हूँ तो न जाने क्यूँ मन ही मन उस व्यक्ति के सेवा और समर्पण भाव को देखकर उनके आदर में सिर स्वतः ही झुक जाता है। सम्मान और यशोगान का यह समारोह खत्म हो चुका था। माइक से अभी तक मंदिर से और उस भागवत कथा आयोजन से जुड़े हर व्यक्ति को मंच से सम्मानित किया जा चुका था, लेकिन उस निष्काम सेवक की जैसे किसी को याद ही नहीं रह गई थी।
मैं बहुत व्यथित हो रहा था। इंतजार लम्बा खींचता चला जा रहा था और मेरे अंतर्मन में एक विद्रोही भाव जाग गया था। मुझे लग रहा था कि मैं मंच तक चला जाऊं और प्रधान जी से चुपके से कह दूँ कि आपने सभी को सम्मानित करवा दिया ,अपना भी यशोगान करवा लिया, इसमें मुझे कोई आपति नहीं लेकिन जो व्यक्ति अपना घर छोड़ कर चौबीस घंटे मंदिर में रहकर निष्काम भाव से सेवाएं दे रहा है, क्या वह किसी सम्मान का अधिकारी नहीं है ? पता नहीं मैं तीन-चार बार उठता-उठता बैठ गया। मन में आ जाता कि पता नी इन लोगों को बुरा लगेगा। वैसे भी मैं न तो उस भागवत कमेटी से जुड़ा था और न ही मंदिर में माथा टेकने और प्रसाद ग्रहण करने के अलावा मेरा कोई और योगदान था। इसी बीच मेरा ध्यान भगवान् शिव की ओर गया जिनके चरणों में यह भला मानुष हर पल रहता है, मैंने मन ही मन भगवान से प्रश्न किया कि हे ईश्वर।
क्या इस भरी सभा में इस नेक व्यक्ति की अनदेखी की अनुभूति जैसी मुझे हो रही है, किसी और को भी हो रही है क्या ? और अगर किसी और को न भी हो रही है तो क्या मैं गलत तो नहीं सोच रहा हूँ। और अगर मैं गलत नहीं हूँ तो कृपा करके मेरी प्रार्थना को सुन लो। मेरी आस्था को आज मरने से बचा लो। हे भगवान! इन आयोजकों का ध्यान इस व्यक्ति की ओर आकृष्ट करवा दो। अगर इस सेवा भाव को आज सम्मान नहीं मिला तो फिर मेरा इश्वर की भक्ति और शक्ति से शायद विश्वास उठ जाए। मैं मानसिक प्रार्थना करते-करते ही बीच-बीच में उस व्यक्ति को देख रहा था जो मंदिर के बाहर हर दिन की भांति आज भी अपने सेवा कार्य में व्यस्त था, उसके चेहरे पर अब भी व्ही संतुष्टि और स्नेह का भाव व्याप्त था जो हर दिन मैं सुबह-शाम देखता था। मैंने आँखें बंद कर ली थी और भगवन से मूक प्रार्थना करने लग गया था। मैं उस भीड़ से जैसे बेखबर हो गया था। कुछ समय बाद मुझे चेतना आई जब साथ बैठे व्यक्ति की बाजू ने मुझे स्पर्श किया। मेरी आँखे खुली तो देखा वह भला मानुष धीरे-धीरे मंच की ओर जा रहा था और मंच से प्रधान जी उनका नाम पुकार रहे थे और क्षमा याचना कर रहे थे कि उनकी भूल को माफ़ कर दें, और साथ ही कह रहे थे कि मंदिर के मुख्य सेवादार जी को कथा व्यास अपने हाथों सम्मानित करेंगे।
पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था। मुझे नहीं पता ये उस व्यक्ति की निष्काम सेवा का परिणाम था या मेरी उस मूक प्रार्थना का, लेकिन जो भी हो माईक सि उस पुन्य आत्मा के नाम के साथ मुख्य सेवादार शब्द सुनते और उसे सम्मानित होते देख आज भगवन के अस्तित्व में मेरी आस्था और विश्वास और भी अटूट हो गया।
- धरम चंद धीमान
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