साहित्य चक्र

06 April 2025

कविता- सास कभी माँ न बन सकी




मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी!
जिस बहू को बेटी बनाना था, 
उसकी कभी माँ न बन सकी! 
मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी! 

बहू की आँखों में थे आँसू, 
वो लेकिन उसके आँसू न पढ़ सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

सब नाते तोड़ कर आई वो, जिन रिश्तों के लिए...
वो उस लड़की के जज़्बात न समझ सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

जो लड़ जाती हर किसी से 
छोटी-छोटी बात पर, अपनों के लिए
वो उसका झिड़कना न समझ सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

एक अल्हड़, मनमौजी, मस्ती में रहने वाली ने,
हँसकर उनके घर की ज़िम्मेदारियाँ उठा लीं,
वो इस बात को भी न समझ सकी! 
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

बड़े-बड़े दुखों को मुस्कुरा कर सहने वाली,
वो जिस बात पर फफक कर रो पड़ी,
वो इस राज़ को न समझ सकी! 
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

वो ज़रूरत पर उनके बेटे की माँ भी बन गई..
पर अफ़सोस, वो उसकी ठीक से सास भी न बन सकी! 
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

वो बहू तो ले आई बेटी कहकर,
मगर वो अपनी बहू में बेटी न तलाश सकी
मेरी सास...कभी मेरी माँ न बन सकी! 

मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी! 
मेरी सास कभी मेरी माँ न बन सकी! 


                                                  - अपर्णा सचान


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