खु़शबू जैसे लोग कहां मिलते हैं।
मुद्दतें गुज़रीं एक लम्हा नहीं गुज़रा।
चला गया वो रेत पर घरोंदेबनाकर।
वो बिछड़ा तो मैं किसी दर का न रहा।
चला गया मुझे ख़्वाब झूठे दिखा कर।
पतझड़ की तरह बना देते हैं मौसम ।
चले जाते हैं यह दरख़्तों को हिला कर।
दर्द की शिद्दत में छिपी होती है मुहब्बत।
दिल धड़कता रहता है उनकी अदा पर।
तुम कहीं भी रहो निगाहों में ही रहोगे।
हम कैसे जियें बोलो तुम को भुला कर।
ख़ुशबू जैसे लोग कहां मिलते हैं मुश्ताक़।
एक ख़त रखा है मैंने किताबों में छुपा कर।
- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह
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