साहित्य चक्र

25 May 2022

कविताः इंतज़ार




मेरे घर के सामने एक पेड़ है
उस पेड़ में खिले थे पीले फूल
एक पीली चादर बिछी रहती थी उसके नीचे
मैं जब भी वहाँ से गुजरता
हवा के झोंके से एक दो फूल मुझपर गिर जाते I

मुझे लगता था
इन चटख रंगों, फूल की कोमलता से
पेड़ मुझे दिखाना चाहता है
कि अभी भी दुनिया में खुशी है
वह पेड़ फूलों से ढका बहुत खुश दिखता था
उसी तरह जैसे मेरे होठों पर एक मुस्कान रहती है I

मैं अक्सर सोचता था
कि जब सारे फूल गिर जायेंगे तो ?

मौसम बदला,
मेरे घर के सामने अब एक ठूंठ है
जब हवा चलती है
उसकी नंगी शाखें मातम मनाती हैं
रास्ते की धूल जब मुझपर गिरती है
तो मन में हाहाकार उठता है I

कितना करूँ, लगता है वह पेड़
अपनी नंगी शाखों से आसमान को देखता है
जहाँ फूल थे अब वीरानगी है
अब हवा पीली चादर नहीं बिछाती
अब उसकी फलियाँ मधुर सरगम नहीं छेड़ती
सब रीता सा लगता है
मुझे अब पता चला अकेलापन क्या है I

पर अब वह पेड़ मुझे और भी अच्छा लगता है
क्योंकि मैं उसके साथ अपना अकेलापन बाँटता हूँ
और जब वसंत आएगा
तो उसकी पत्तियों को देख कर
मेरा यकीन और पक्का होगा कि
"तुम" जरूर आओगी...


लेखक- गोपाल मोहन मिश्र
पता- दरभंगा, बिहार



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