साहित्य चक्र

24 May 2022

कविताः चाँद के साथ साथ





आसमान पर खिल उठा है, 
वो पूरा चाँद आज,
बादल की कुछ परतें कर रहीं हैं
संग उसके अटखेलियाँ...

बहती हुई हवा की मस्त धीमी चाल,
छेड़ रही है चाँदनी को,
वो मुस्कुराता हुआ धीमे धीमे पूरा चाँद...

आज उसे भी क्या, किसी का ख्याल आया है,
जैसे  उठ रहे हैं मन में कई विचार,
कुछ शरमाता, कुछ सकुचाता वो चाँद...

दूर घटाओं को देख कर कभी डर रहा है उसका मन,
अपनी चाँदनी को छुपा रहा है वो ख़ुद में,
समेट रहा है अपना हर प्रकाश...

कुछ छुपा छुपा सा, लगता है जैसे,
कर रहा हो कोई खेल, या डर गया है , 
वो अपनी ही भावनाओं से...

उसके मन में चल रहा है जैसे कोई द्वंद,
कोई लड़ाई ख़ुद से ही ,
और अब झांक रहा है उस पेड़ की डाली से...

फिर भी डरते हुए, फिर भी सकुचाते हुए,
डाली डाली कभी निकलता हुआ, कभी छुपता हुआ
कभी डरपोक और कभी निर्भय वो चाँद...

उसकी चाँदनी फिर लगी है बिखरने,
फिर उसका प्रकाश लगा है जगमगाने
आसमान हुआ सुनहला,
जैसे शरमाती हुई कोई दुलहन...

पेड़ की डाली डाली झूमती, देती है उसका साथ,
बादल भी खेल रहा, चाँद के साथ साथ
जीत रहा है वो चाँद, अपनी हर सोच पर...

फिर से खिल गया वो पूरा चाँद आसमान में,
फिर से पूरी हो गई उसकी हर आस,
कदम से कदम बढ़ चले अब,
चाँद के साथ साथ...


गोपाल मोहन मिश्र
दरभंगा, बिहार


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