साहित्य चक्र

11 January 2025

कविता- नये युग में...




चौके से महिला अब निकलने लगी है
सदियों की छवि को बदलने लगी है
चलती थी बैसाखियों पर जो पहले
लगता अब पैरों पर वो चलने लगी है।

घर की दीवारें कारागार थी जिसकी
ड्योडि सदा से पहरेदार थी जिसकी
पलटने‌ लगी है वो स्वयं अपने पन्ने
नये युग में तब से समझने लगी है।

उसकी नियति था काम केवल घर का
उसकी नियति था नाम केवल घर का
पुरुष से अब कंधे से कंधा मिलाकर
अपनों के संग खुद भी संभलने लगी है।

परदे की परिधि से वो बाहर आई
नौकरी भी करती और करती कमाई
पुरानी रिवाजों को दरकिनार करके
दशा-दिशा स्वयं की पलटने लगी है।

मंचों पर भाषण अतिथि बन बिराजे
अधिकारों के लिए जो यहां वहां गाजे
संकेत हैं अच्छे देश समाज को हमारे
ये देख 'व्यग्र' लेखनी लिखने लगी है।


                                                              - व्यग्र पाण्डे


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