साहित्य चक्र

11 January 2025

कविता- मानव सभ्यता




हम मानव सभ्यता खोज रहे हैं,
मन्दिर- मस्जिद खोद रहे हैं,
मैं कहता हूं!
मेने भगवान देखा हैं,
उसे खेत में हल जोतते देखा हैं, हां!
मेने उसे किसान के स्वरूप में देखा हैं,
वो बड़ा दाता हैं,
सच कहूं वो अन्नदाता हैं,
वो ही सबको पालता-पोषता हैं,
हम क्या?
खोद रहे हैं 
ओर क्या?
खोज रहे हैं,
किसान खोदता हैं,
ओर बो देता हैं बीज,
ताकि मानवता को खिला सकें,
और आज के मानुष का 
पेट क्या भर गया?
रक्षक से भक्षक बन गया,
सभ्यता के नाम पर,
असभ्यता का परिचय दे रहा हैं,
मन्दिर के निचे मस्जिद 
मस्जिद के नीचे मन्दिर 
खोज रहे हैं 
बड़े उतावले ख़ोज रहें हैं,
सच तो यह हैं,
मन्दिर मस्जिद से पहले,
आदिमानव ने पेट भरने की जुगत में,
शायद! ज़मीन पर हल चलाया होगा,
संभवतः यह उसकी भूल थी!
मनुष्य का पेट तो आज भी नहीं भरा,
आज की भूख तो बड़ी अजीब हैं,
दुनिया उन्नति का मार्ग ख़ोज रहीं हैं,
हमारे समक्ष सवाल आज भी खड़ा हैं?
हम क्या खोद रहे हैं..?


                                                               - जितेन्द्र कुमार बोयल 


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