साहित्य चक्र

21 February 2020

उम्मीद का आखरी दीया

आज बड़ी उत्सुकता से दीप जलाने ,उस खुले आसमान के नीचे गई।अपनी अपेक्षा ओर महत्वकांक्षा के जंजाल को पीछे छोड़ प्रीत का नया रोशन उजाला करने ,अपने मन के अंधकार को एक नई रोशनी देना, मानो एक ख्वाब सा जो बन गया था मेरे लिए।


                  


कुछ वक्त पहले भी कोशिस की थी ,की एक नई उम्मीद जगा लू मन में।
नए मायने दू जिन्दगी को जीने के, पर शायद नियति भी तुम्हारा और मेरा विरह देख न सकी। नयन रूपी  मेघ से अश्रु की निरंतर धारा मेरे मन रूपी दीप को बुझाती रही।

बहुत कोशिश की  काश एक ही उम्मीद का दिया जला सकू , ताकि हमारे प्रेम रूपी दीवाली पर अमावस का पहरा न पड़े। लेकिन तुम्हारे विरह का दर्द ,मेरी हर पूर्णिमा को अमावश करता रहा। लेकिन किस्मत भी अधुरे किस्सों को पूरा करने का एक मौका जरूर देती है।

जैसे आज फिर एकादशी की रात्रि ,अपने आप मे एक अमावश को समेट कर ,मानो एक आखरी रोशनी का लम्हा जीने आई हो। इस छोटे से ही लम्हे को फिर रोशन करने का अवसर मानो मेरे लिए तुम्हारे साथ  जिंदगी जीने जैसा था। मानो हमारे मन के आईने में आई हर कालिक को यह दिया मिटा दे,ये उम्मीद मन मे हिलोरें ले रही थी।

इस उम्मीद के दीये को लेकर जैसे ही खुले आसमाँ के नीचे गई। एक हवा के झोंके ने सारे दीप बुझा दिया। लेकिन मेरे उम्मीद का दीप आज भी फड़फड़ा कर एक पल का जीवन मांग रहा था। में झट से उस दीप को अपने हाथों के आशियानें में छुपा कर, तुम्हारे साथ जीने कि ज्योति को बचा रही थी।

मगर तुम तो मानो उस हवा के झोंके जैसे बन कर आए, और मेरी आखरी सांस गिनती उस ज्योत को बुझा कर खुद का अस्तित्व साबित कर रहे थे। उस लम्हें में मानो हम साथ नही,एक दूसरे के विपरीत थे। मेरी उम्मीद का दीया बुझना नही चाहता था,ओर तुम उसे जलने नही दे रहे थे।समगर आखिर ये क्या हुआँ, तुम्हारी ज़िद जीत गई और उम्मीद का दीया बुझ गया। मगर उस बुझती लो में भी जीने की चाह झलक रही थी।

वो बुझ कर भी ,फिर जलने को तैयार हो रही थी। उसे देख मेने मन मे एक बात विचारी, क्यो न कुछ वक्त इस झरोखे को मनमानी करने दी जाए। क्यो न उसे इस बात की तसल्ली दी जाए, की उसने उम्मीद के दीये को बुझा दिया है। मगर हकीकत तो केवल मेरा मन जनता था। जब हवा के झोंके को लगा ,वो फिर एक बार अमावश लाने में मुक्कमल हो गया है,
मेने फिर एक ज्योत प्रीत की जला दी। और उस हवा के झोंके को दिखा दिया।

"हार गलत ज़िद की होती है,उम्मीद की नही"

मैं मन रूपी दीप को मुकम्मल होता देख, कुछ पल वही ठहर गई, ओर देख रही थी,उसकी खुशी जो उसके लिए एक ख्वाब थी। उसका ख्वाब "अमावश को पूर्णिमा की चाँदनी देना", आज मुक़म्मल हो गया।

जानती थी, उसकी ये खुशी बस कुछ लम्हे की है, ये उम्मीद का दिया जिन्दगी रूपी पूरी रात नही चल पायेगा। परंतु तसल्ली इस बात की थी, वो कुछ पल जीने की अपनी एक आखरी ख्वाईश तो मुकम्मल कर ही जायेगा।

                                                             ममता मालवीय


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